मीडिया : देशभक्ति का पान मसाला
यों तो धोनी हर मैच में दस्ताने पहनते हैं, लेकिन इस बार मीडिया में उनके दस्तानों ने जितना धमाल मचाया उतना किसी दस्ताने ने नहीं मचाया।
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हरे रंग के इन दस्तानों पर एक भारतीय सैन्य दल का प्रतीक चिह्न छपा था जिसमें त्रिशूल की शक्ल के छुरे के एक चित्र के साथ ‘बलिदान’ लिखा दिखता था। कहने की जरूरत नहीं कि दस्तानों की इस खबर ने देश की सभी अन्य खबरों को मीडिया से आउट कर दिया।
शुक्रवार को पूरे दिन खबर चैनलों के एंकर बताते रहे कि वर्ल्ड कप आयोजित करने वाली संस्था आईसीसी ने धोनी के इन दस्तानों को हटाने को कहा है। उसके नियमों के अनुसार खिलाड़ी किस चिह्न को पहनेंगे, इसकी पूर्व अनुमति आईसीसी से लेनी होती है, और इस चिह्न की अनुमति नहीं ली गई है। यही नहीं, आईसीसी किसी भी धार्मिक या राजनीतिक चिह्न को किसी भी खिलाड़ी फील्ड को पहनने की इजाजत नहीं देती। आईसीसी की इस आपत्ति पर हमारे एंकरों की देशभक्ति अचानक जाग गई। वे इन दस्तानों के पक्ष में दलीलें देने लगे कि इस चिह्न से न किसी धर्म का प्रचार किया जा रहा है, न किसी राजनीति का। इसके साथ ही एंकरों ने इसे ‘देशभक्ति’का मुद्दा भी बनाकर धोनी के पक्ष में अभियान सा चला दिया कि धोनी सच्चे देशभक्त हैं। धोनी दस्ताने हरगिज न हटाना। तुम संघर्ष करो। सवा सौ करोड़ तुम्हारे साथ हैं। इसी बीच एक एंकर ने बताया कि इन दस्तानों के खिलाफ षड्यंत्र रचने में पाकिस्तान का हाथ है। उसी के सूचना मंत्री ने ट्वीट कर आईसीसी से शिकायत की है कि धोनी के दस्ताने काबिल-ए-ऐतराज हैं। इनसे भारतीय सेना का प्रचार किया जा रहा है।
फिर एक पत्रकार ने दस्तानों के चिह्न को अर्थाया कि दस्तानों पर छपे चिह्न उसी सैन्य टुकड़ी के प्रतीक चिह्न हैं, जिसने बालाकोट किया था। उसका मोटो है ‘बलिदान’। इस तरह दस्ताने ‘देशभक्ति’ का पर्याय बन गए। देशभक्त एंकर कहते रहे कि देशभक्ति का प्रतीक चिह्न पहनना अपराध कैसे हो सकता है? देखते-देखते दस्ताने इतने बड़े हो गए कि खबर चैनलों को अलीगढ़ की ढाई साल की लड़की की जघन्य हत्या की खबर तब अपनी खबर लगी जब सोशल मीडिया पर उसके पक्ष में जोरदार हल्ला मचा और अलीगढ़ में प्रदर्शन होने लगे। तब कहीं कुछ चैनल अलीगढ़ पहुंचे और इस घटना को अपनी बड़ी खबर बनाया वरना तो दस्ताने ही दस्ताने खबर में रहे।
टीवी के एंकरों, रिपोर्टरों और चरचाकारों को ‘देशभक्ति’ का दौरा जब भी पड़ता है, ऐसे ही पड़ता है। यहां देशभक्ति भी ‘स्पर्धात्मक’ होती है। हर चैनल अपनी देशभक्ति को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता-बजाता है। अपनी टीआरपी कमाना चाहता है कि जब वह चैनल ‘देशभक्ति’ को बजा रहा है तो मैं क्यों न उससे भी अधिक जोर से अपनी ‘देशभक्ति’ बजाऊं। यों हम सब अपने देश से उतना ही प्यार करते हैं, जितना कोई ‘हल्लाबाज देशभक्त’ करता है। लेकिन जब से देश में ‘अंध राष्ट्रवाद’ की बयार बही है, तब से अपने एंकर और रिपोर्टर जब चाहे तब अपने को न केवल ‘राष्ट्र’ का अवतार बना लेते हैं और ‘नेशन वांट्स टू नो’ पूछने लगते हैं, और बल्कि अपने से असहमत को सीधे राष्ट्र विरोधी कहने लगते हैं। यह अधिकार उनको किसने दिया है? हम मानते हैं कि एंकर भी उतने ही देशभक्त हो सकते हैं जितना कि कोई और। लेकिन सच्चे देशभक्त अपनी देशभक्ति को पूरे दिन बजाते नहीं फिरते, उसे तमाशा नहीं बनाते फिरते।
तो भी कई एंकर अपनी देशभक्ति को अपनी आस्तीनों पर ही पहने रहते हैं जैसे उनसे बड़ा देशभक्त और राष्ट्रभक्त दूसरा कोई नहीं। देशभक्ति की खबर देना उनका काम है, उनका अहसान नहीं। अगर हमारी सेना जीत दर्ज करती है तो उसकी खबर देना उनका काम है, कोई अहसान नहीं है। लेकिन वे अपनी देशभक्ति को अहसान की तरह दिखाते हैं। माफ कीजिए, देशभक्ति एक पवित्र और उच्च मानवीय भाव है। अहसान करने जैसा ‘लेन-देन’ करने वाला वाला भाव नहीं। सच्चे देशभक्त अपनी देशभक्ति का तमाशा नहीं दिखाया करते। क्या भगत सिंह ने देशभक्ति को अपनी आस्तीनों पर पहना? क्या गांधी ने अपनी देशभक्ति की कभी ऐंठ दिखाई जैसी कि आज के एंकर दिखाते हैं?
आज के संदर्भ में चैनलों की इस तुरंता देशभक्ति का असली नमूना देखना हो तो वर्ल्ड कप के दौरान आने वाले उस विज्ञापन को देखें जिसकी कैच लाइन है :‘लहराएंगे तिरंगा फिर एक बार’..यही गाना आगे कहता है कि यह सिर्फ ‘एक टीम नहीं सवा सौ करोड़ लोगों की टीम है..’। जानते हैं कि इस विज्ञापन की ‘देशभक्ति’ का प्रायोजक कौन है? यह है एक पान मसाला कंपनी! देशभक्ति न हुई, पान मसाला हो गई।
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