मायावती का धोबीपाट
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की बेमेल खिचड़ी का वही हश्र हुआ, जिसकी अपेक्षा थी।
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एक गठबंधन जो विचारधारा, नीतियों, नेतृत्व और कार्यक्रमों पर बिना किसी आम सहमति के बना हो और जिसके निर्माण में जमीनी कार्यकर्ताओं के विचारों को कोई तरजीह न दी गई हो, उसका तो यही अंजाम होना था। इस बात पर जरूर आश्चर्य होता है कि अखिलेश यादव इतने नवसिखुये निकले।
अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव को अखाड़े और राजनीति दोनों में उनके धोबीपाट-दांव के लिए जाना जाता था, पर 2019 के लोक सभा चुनाव में तो मायावती ने अखिलेश को उसी धोबीपाट-दांव का शिकार बना डाला और अखिलेश उफ तक न कर सके। ऊपर से मायावती ने उन पर यह तोहमत मढ़ दी कि वे ‘यादवों’ के वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं करा पाए। यह तो ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली कहावत चरितार्थ करता है क्योंकि यदि ऐसा है तो मायावती को 10 सीटें कैसे मिल गई, जबकि 2014 में उनके पास एक भी सीट नहीं थी? अखिलेश तो अपने परिवार की सीटें भी नहीं बचा पाए क्योंकि जहां दलितों को ‘हाथी’ नहीं मिला, वहां वे ‘साइकिल’ को रौंद कर मोदी की ओर मुड़ गए। अखिलेश इतने सदमे में लगते हैं कि उन्होंने मायावती के दावे का प्रतिकार भी नहीं किया वरन परिणामों को अपने गठबंधन-प्रयोग की विफलता के रूप में ही स्वीकार कर लिया। अखिलेश द्वारा वर्तमान लोक सभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन और उसके पूर्व 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में सपा-कांग्रेस गठबंधन करना इस बात का द्योतक है कि सपा को राजनीतिक सहारे की जरूरत महसूस हो रही है। ये प्रयोग यह भी इंगित करते हैं कि पार्टी में आत्मविश्वास की कमी आ गई है, लेकिन अभिलाषा में नहीं।
2017 में राहुल के साथ 300 सीटें जीतने और 2019 में भाजपा को धूल चटाने का दावा करने वाले अखिलेश शायद यह कहावत भूल गए कि ‘आधी तज सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे’। राजनीति में महत्त्वाकांक्षा रखना ठीक है पर उसके लिए वांछित आचरण भी तो करना पड़ेगा। सत्ता का रास्ता जनता के दरवाजे से जाता है, बंद एसी कमरों में राजनीति करने से नहीं। इसी के साथ-साथ पार्टी नेतृत्व को अपनी छवि को लेकर भी सतर्क रहना चाहिए। अखिलेश यादव ने इन दोनों ही पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया। सत्ता के अंदर या सत्ता के बाहर उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे जनता उनसे जुड़ सके। साथ ही सत्ता से वंचित होने पर जिस प्रकार अपने निवास को छोड़ने के विवाद में उनकी छवि धूमिल हुई उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जब वे 2012 में सत्ता में आये तो उनके बारे में लोगों की राय अच्छी थी और लगा कि शायद संगठन और कार्यकर्ताओं के स्तर पर सपा की जो आपराधिक छवि बन गई थी उस पर लगाम लगेगी। पर अनुभवहीनता और पार्टी में ‘अनेक मुख्यमंत्री’ होने के कारण वैसा न हो सका, लेकिन अखिलेश के पास समय है। दूसरों की बैसाखी पकड़ने की बजाय उनको अपनी पार्टी के जनाधार बढ़ाने पर बल देना चाहिए। इस समय राजनीति का ‘मोदी-मॉडल’ बेहद उपयोगी है। एक मॉडल, जिसमें ईमानदार, प्रतिबद्ध, सकारात्मक और समावेशी राजनीति कर नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी भाजपा को अप्रत्याशित सफलता दिलाई है।
उन्होंने मुस्लिम-विरोधी और सांप्रदायिक होने के आरोपों को अपनी समावेशी विकासात्मक नीतियों से ध्वस्त कर दिया है। आज दलितों, पिछड़ों, मुस्लिमों और गरीबों को भी लग रहा है कि विकास ही सबसे बड़ा ‘सेकुलरिज्म’ है अन्यथा एक-दो राज्यों में नहीं, लगभग 17-18 राज्यों में भाजपा 50 फीसद से ज्यादा वोट कैसे प्राप्त कर लेती? ऐसा रिकॉर्ड तो कभी कांग्रेस का भी नहीं रहा, तब भी नहीं जब देश में ‘कांग्रेस-सिस्टम’ हुआ करता था। इससे स्पष्ट है कि 1984 में मात्र दो सीटों से 2019 में 300 से ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी ने कुछ तो ऐसा किया होगा कि जनता का विश्वास जीता होगा। अखिलेश द्वारा इसे अन्य किसी तरह से परिभाषित करना स्वयं को केवल मुगालते में रखने जैसा होगा। गठबंधन का प्रयोग ‘शार्ट-कट-पॉलिटिक्स’ है, मगर जो प्रधानमंत्री मोदी ने किया वह ‘लांग-टर्म-पॉलिटिक्स’ है, जिसका असर काफी समय तक भारतीय राजनीति में दिखेगा। आज उसे केवल ‘ब्राह्मण-बनिया-शहरी’ पार्टी कह कर दरकिनार नहीं किया जा सकता। इधर, कुछ दशकों से भारतीय राजनीति अपनी राह से भटक गई है, जिससे आपराधिक किस्म के लोग राजनीतिक संस्थाओं पर काबिज होते जा रहे हैं, लेकिन आम आदमी की अभिलाषाओं का क्या होगा? बिना पैसे वालों और गरीबों का राजनीति में प्रवेश कैसे होगा?
क्या अखिलेश कोई ऐसा प्रयोग करने की सोच सकते हैं, जिसमें इन प्रश्नों के उत्तर मिल सकें? मायावती और बसपा का तो भविष्य उज्जवल नहीं लगता। जिस दिन मायावती राजनीतिक पटल से ओझल हुई, उसी दिन बसपा का अवसान हो जाएगा क्योंकि उनकी राजनीति में विचारधारा का पुट नहीं, केवल जाति का आधार है। लेकिन अखिलेश के पास समाजवादी विचारधारा की एक परंपरा है, जिसे वे और उनकी पार्टी भूल गई है। आज उन डॉ. लोहिया को कोई जानता तक नहीं, जिनके सिद्धांतों पर पार्टी चलने का दम भरती रही है। जब विचारधारा ही नहीं रही तो उसके इर्द-गिर्द कोई संगठन कैसे खड़ा हो सकता है? और बिना संगठन के जनसंपर्क कैसे होगा और चुनाव कैसे जीते जा सकेंगे? कन्नौज से डिंपल यादव, बदायूं से धर्मेन्द्र यादव और फिरोजाबाद से अक्षय यादव की हार क्या संकेत देती है? यदि सपा की मुरादाबाद, रामपुर और संभल की सीटें हटा दी जाएं, जिनसे मुस्लिम प्रत्याशी जीते, तो सपा की हालत और बदतर होती।
ज्यादातर क्षेत्रीय दल जातीय समीकरण के आधार पर खड़े होते हैं, लेकिन क्षेत्रीय अस्मिताएं तभी परवान चढ़ती हैं, जब राष्ट्रीय दल उनकी अनदेखी करते हैं। ये अस्मिताएं स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के साथ थीं, तब कांग्रेस का बोलबाला था। जब कांग्रेस ने उनकी अनदेखी की तो वे कांग्रेस से विमुख हो कर क्षेत्रीय दलों में प्रविष्ट हो गई। आज वही क्षेत्रीय अस्मिताएं भाजपा की और मुड़ रही हैं। यदि एक बार भाजपा में उनको वांछित ‘स्पेस’ और सम्मान मिल गया तो फिर ऐसी अस्मिताओं के भाजपा से विमुख होने का कोई कारण नहीं बचेगा और तब सपा, बसपा या अन्य किसी भी क्षेत्रीय दल को ‘भाजपा-सिस्टम’ के ‘सेटेलाइट’ के रूप में ही स्वयं को परिभाषित करना पड़ेगा। इसलिए अखिलेश के पास समय ज्यादा होते हुए भी अवसर कम हो गए हैं और यदि बहुत शीघ्र उन्होंने अपनी राजनीतिक रणनीतियों में गंभीर सुधार नहीं किया तो राजनीतिक हाशिये पर आने में उनको देर नहीं लगेगी।
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