स्वास्थ्य तंत्र सचेत नहीं

Last Updated 07 Jun 2019 06:39:25 AM IST

केरल में 23 वर्षीय युवक में निपाह वायरस की पुष्टि और 311 लोगों को इस वायरस के संक्रमण से ग्रसित होने के अंदेशे के चलते उन्हें निगरानी में रखे जाने के मामले से एक बार फिर साबित हुआ है कि संक्रमणों को लेकर हमारा स्वास्थ्य तंत्र सचेत नहीं है और इसका सिस्टम खामियों से भरा है।


स्वास्थ्य तंत्र सचेत नहीं

यही वजह है कि अक्सर किसी संहारक संक्रमण की मौजूदगी की खबर मिलते ही देश में पैनिक की स्थिति बन जाती है और सरकारी महकमों की सांसें फूलने लगती हैं। पर इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि तमाम संक्रमणों से जूझते रहने के बावजूद देश में उनसे लड़ने वाले कारगर टीकों के विकास की कोई ठोस नीति नहीं है।
वैसे तो हमारे देश में बच्चों को कई तरह की बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण के अहम कार्यक्रम- इंद्रधनुष से गरीब तबके को काफी लाभ हो रहा है, लेकिन फ्लू, सार्स, मलेरिया, निपाह आदि कई संक्रामक बीमारियों से बचाव में कारगर टीकों (वैक्सीन) की कम उपलब्धता या उनकी वैक्सीन ही नहीं होना एक बड़ा सवाल है। निपाह के मामले में वैक्सीन का न होना ऐसी ही एक समस्या है। मोटे तौर पर 20 साल पहले इसके संक्रमण यानी निपाह के वायरस के प्रसार के संकेत मिल गए थे, लेकिन दुनिया में अभी तक इसके लिए विकसित किए गए टीके का इंसानों पर परीक्षण नहीं हुआ है। असल में, बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां और उनके कई हितैषी संगठन किसी संक्रामक बीमारी से बचाव में कारगर वैक्सीन के निर्माण में तब तक कोई रु चि नहीं दिखाते, जब तक कि उसमें उन्हें अरबों डॉलर का बिजनेस न दिखे। इसके लिए वे बच्चों और लोगों की जान की परवाह तक नहीं करते। ऐसा एक उदाहरण करीब पांच साल पहले भारत में भी दिखा था। देश के राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में जिस पेंटावेलेंट वैक्सीन को शामिल किया था, उसके इस्तेमाल से मार्च, 2014 में केरल में कुछ बच्चों की मौत हुई थी। इससे पहले वियतनाम, भूटान, श्रीलंका व पाकिस्तान में बच्चों की मौत के समाचार मिल चुके थे।

उल्लेखनीय बात यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश में पेंटावेलेंट वैक्सीन के इस्तेमाल पर रोक लगी हुई थी। ऐसे में सवाल उठा कि भारत में पेंटावेलेंट वैक्सीन कैसे और क्यों आ गई? पता चला कि पेंटावेलेंट की बजाय देश के टीकाकरण कार्यक्रम में डीपीटी वैक्सीन लंबे समय से प्रयोग में लाई जा रही थी। यह वैक्सीन बेहद सस्ती थी और इसे लेकर कोई विरोध नहीं था। लेकिन कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने दवा कंपनियों के साथ मिलकर भारत और अन्य देशों से आग्रह किया कि वे डीपीटी में दो वैक्सीन- हेपेटाइटिस बी और हिब को भी जोड़ दें। इस तरह नये कंबीनेशन के वैक्सीन (डीपीटी प्लस हिब प्लस हेप बी) को पेंटावेलेंट वैक्सीन का नाम दिया गया। इसके पीछे एक विशेषज्ञ ने ताइवान के आंकड़ों का भारत के संदर्भ में इस्तेमाल किया और बीमारी हेपेटाइटिस बी से होने वाली मौतों को 50 गुना बढ़ाकर पेश किया। यही नहीं, पेंटावेलेंट विवाद की गहराई से जांच होने पर एक और हकीकत भी सामने आई। पता चला कि वर्ष 2007-08 में सार्वजनिक क्षेत्र की डीपीटी इकाइयों का उत्पादन एक अनुचित आदेश से रोका गया था। पेंटावेलेंट के इस्तेमाल से भारत के केरल, वियतनाम और भूटान में कुछ बच्चों की मौत हुई, तो अदालतों ने यह सवाल उठाया कि जिन वैक्सीनों का उपयोग विकसित देश खुद नहीं करते, उन्हें भारत जैसे विकासशील देशों में क्यों बेचते हैं और इसके लिए षड्यंत्र करते हैं। असल में पेंटावेलेंट के विवाद और अब निपाह वायरस की वापसी ने वैक्सीन क्षेत्र में जरूरी सुधार की ओर भी ध्यान दिलाया है।
इन मुद्दों ने साफ किया है कि जिन वैक्सीनों का निर्माण देश में ही हो सकता है, उन्हें लंबे समय तक विदेशों से कई गुना ज्यादा दामों पर मंगाया जाता रहा है। विदेशी वैक्सीन कितनी महंगी पड़ती है, यह बात रोटा वायरस के स्वदेश में विकसित टीके से साबित हो चुकी है। देश में एक कंपनी (भारत बायोटेक) ने सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम के तहत एड्स की रोकथाम के लिए इस्तेमाल होने वाली इस वैक्सीन का वर्ष 2013 में विकास कर लिया था। इसकी एक डोज करीब 1 डॉलर में पड़ने लगी, जबकि विदेशी फार्मा कंपनियां इस तरह की उपयोगी वैक्सीन की कीमत 300 डॉलर प्रति डोज के हिसाब से वसूल रही थीं। अच्छा होगा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मार्केटिंग के तौर-तरीकों में मीनमेख निकालने या पेटेंट नियमों की आड़ में होने वाली बेईमानी का रोना रोने की बजाय हमारा देश रिसर्च में ताकत लगाए और हमारे संगठन व प्रयोगशालाएं एक दूसरे के साथ मिलकर काम करें।

अभिषेक कुमार


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