सामयिक : निर्विवाद मारक उग्रवादी

Last Updated 17 May 2019 01:38:35 AM IST

प्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ‘डिवाइडर इन चीफ’ करार देने के एकदम उपयुक्त होने का ताजातरीन सबूत तमिलनाडु से आया है।


सामयिक : निर्विवाद मारक उग्रवादी

केसरिया पलटन और उसके धर्म-संस्कृति के नाम पर राजनीति के तरह-तरह के अभियानों से दूर और काफी हद तक अछूते रहे इस दक्षिणी राज्य में भी, मोदी के राज के पांच साल बाद और उससे भी बढ़कर 2019 के आम चुनाव के लिए मोदी-शाह की भाजपा के अभियान के आखिर तक आते-आते, ठीक वही उग्र, बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक भाषा सुनाई देने लगी है, जो पिछले पांच साल में हिंदी पट्टी में और पश्चिमी भारत समेत देश दूसरे कई हिस्सों में, पहले ही आम हो गई थी।
तमिलनाडु सरकार के दुग्ध और डेयरी विकास मंत्री, राजेंद्र बालाजी ने सोमवार को बाकायदा एक बयान जारी कर कहा कि जाने-माने फिल्मकार और राज्य में नयी-नयी बनी पार्टी एमएनएम के संस्थापक, कमल हासन की ‘जीभ काट लेनी चाहिए’! हासन का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने गांधी की प्रतिमा के सामने खड़े होकर, केसरिया पलटन को नागवार यह सच दोहराने की जुर्रत की थी कि, ‘स्वतंत्र भारत का पहला उग्रवादी हिंदू था और उसका नाम नाथूराम गोडसे था। वहीं से इसकी ‘उग्रवाद’ की शुरुआत हुई।’ गोडसे से स्वतंत्र भारत में उग्रवाद/आतंकवाद की शुरुआत होने पर भले बहस हो सकती हो, पर इसका स्वतंत्र भारत का सबसे चर्चित और मारक उग्रवादी हमला होना निर्विवाद है। बहरहाल, गौर करने वाली बात यह है कि इस सचाई का जिक्र करते ही, कमल हासन केसरिया पलटन के तीखे हमले के ही निशाने पर नहीं आ गए हैं, तमिलनाडु में मोदी-शाह की भाजपा की नयी सहयोगी बनी, सत्ताधारी अन्नाद्रमुक के नेताओं ने उनके लिए, अगुआ मारक दस्ते की भूमिका ही संभाल ली है।

इस संदर्भ में यह याद दिलाना भी जरूरी है कि 2019 के आम चुनाव के अपने लंबे प्रचार अभियान में खुद नरेन्द्र मोदी ने यह सरासर बेतुका दावा कर के कि ‘हिंदू आतंकवादी हो ही नहीं सकता है, हजारों साल के इतिहास में हिंदुओं ने कभी हिंसा नहीं की’, गोडसेओं की धार्मिक पहचान के सवाल को बहस के बीच लाकर खड़ा कर दिया है। इसके बाद, उनके यह मांग करने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है कि गोडसे जैसों की धार्मिक पहचान का जिक्र नहीं किया जाना चाहिए या आतंक/उग्रवाद का कोई धर्म नहीं होता है! बेशक, आतंकवाद/ उग्रवाद का कोई धर्म नहीं होता है, लेकिन इसके बावजूद धर्मनिरपेक्ष भारत का प्रधानमंत्री यह साबित करने पर क्यों तुला हुआ है कि एक हिंदू ही हैं, जो आतंकवादी नहीं हो सकते हैं। यानी दूसरे धर्म वाले ही आतंकवादी हो सकते हैं! कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी-शाह की भाजपा के लिए और आमतौर पर संघ परिवार के लिए, कभी भी यह धर्म का आतंकवाद/ उग्रवाद के साथ संबंध होने न होने का अकादमिक सवाल नहीं था।
मोदी के राज के पांच साल में सोचे-समझे तरीके से और एनआइए समेत तमाम सरकारी एजेंसियों और शासन के अधिकारों का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग करते हुए, भगवा आतंक के उस ताने-बाने को बेदाग छुड़वाने की कोशिश की गई है, जिसने नयी सदी के पहले दशक में समझौता ट्रेन विस्फोट समेत, खासतौर पर मुस्लिम उपस्थिति/पूजा स्थलों को निशाना बनाकर किए गए करीब आधा दर्जन आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया था और जिसके तार आगे चलकर, नरेन्द्र दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे स्वतंत्रचेता बुद्धिजीवियों की हत्या से जुड़ जाते हैं।
आरएसएस के लिए इन्हें आतंकवाद के आरोपों से बेदाग साबित कराना कोई इसीलिए जरूरी नहीं था कि इससे हिंदू धर्म की बदनामी होती थी बल्कि इसलिए और भी जरूरी था कि इससे, भारत में खासतौर पर मुसलमानों को आतंकवाद का पर्याय बनाने की उनकी मुहिम में बाधा पड़ती थी, जबकि यह मुहिम धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारत की जगह ‘हिंदू राष्ट्र’ को कायम करने के उनके प्रोजेक्ट का, नयी सदी का सबसे कारगर हथियार है। मोदी ने इस अभियान को कई कदम आगे ले जाते हुए, इस तथ्य को अपने बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक अभियान का महत्त्वपूर्ण हथियार ही बना दिया कि उनकी सरकार से पहले की जांचों में, भगवा आतंकवादी ताने-बाने का सच सामने आया था। इस हिंदुत्ववादी आतंकी ताने-बाने के सरगनाओं में से एक, असीमानंद को समझौता एक्सप्रेस कांड में सबूतों के अभाव में अदालत द्वारा बरी किए जाने के बहाने से प्रधानमंत्री ने, चुनावी प्रचार का एक पैना सांप्रदायिक हथियार ही गढ़ लिया।
खासतौर पर महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार की शुरुआत ही उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को इस आधार पर हिंदू विरोधी ठहराने से की कि उन्होंने, ‘भगवा आतंक’ की बात कहकर हिंदुओं को बदनाम किया था और वह भी अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करने के लिए। इसी के दूसरे हिस्से के तौर पर उन्होंने ‘हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता’ का दावा कर, खुद को और भाजपा-आरएसएस को हिंदुओं का इकलौता हितरक्षक दिखाने की कोशिश की। और फिर आतंकवाद की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर को प्रतिष्ठा के मुकाबले के लिए भोपाल से लोक सभा उम्मीदवार बना दिया। जाहिर है कि मोदी-शाह ही भाजपा के इस खुल्लम-खुल्ला सांप्रदायिक चुनावी खेल का विस्तार, सिर्फ तमिलनाडु तक ही सीमित नहीं रहा है। इस खेल का ऐसा ही विस्तार, प. बंगाल में भी देखा जा सकता है, जहां खुद मोदी और शाह के नेतृत्व में ‘जय श्री राम’ की पुकार को, चुनावी युद्ध घोष बना दिया गया है।
बंगाल में, किसी जमाने में गठबंधन की सहयोगी रही भाजपा और तृणमूल कांग्रेस, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के हथियारों से, प्रकटत: जबर्दस्त लड़ाई का अभिनय करती हुई, वास्तव में एक-दूसरे की मदद ही कर रही हैं। इस तरह वे दोनों आजादी के बाद से सचेत रूप से सांप्रदायिक गोलबंदियों से काफी दूर चले गए इस राज्य में, धर्मनिरपेक्ष राजनीति की ताकतों की जमीन सिकोड़ने की ही कोशिशों में लगी हुई हैं। दूसरी तरफ एनडीए से बाहर की पार्टियों को ही नहीं, खुद एनडीए में शामिल सहयोगी पार्टियों को भी इसका बखूबी एहसास है कि मोदी-शाह की भाजपा चरित्र ही तानाशाहाना है, जो वास्तविक गठबंधन की गुंजाइश ही नहीं छोड़ता है।

राजेंद्र शर्मा


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