जल संकट : गहराई से सोचने की जरूरत
लोकसभा चुनाव में व्यस्त देश को आगामी 23 मई को इनके नतीजों के आने के बाद जल संकट से जुड़े सवाल पर गहराई से सोचना होगा।
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भले ही चुनावों में राजनीतिक दलों में वैचारिक मतभेद रहते हैं, पर जल संकट का सामना करने के बिंदु पर तो कोई मतभेद हरगिज नहीं होने चाहिए। देश वास्तव में भीषण जल संकट से गंभीरता से जूझ रहा है। गर्मिंयों में मांग बढ़ने के कारण स्थिति और भी बदतर हो जाती है। एक अनुमान के मुताबिक देश के 60 करोड़ आबादी को आज के दिन भीषण जल संकट का सामना करना पड़ रहा है।
देश के नीति आयोग का तो यहां तक कहना है कि देश के 70 फीसद घरों में साफ पेयजल नहीं मिल रहा है। ये दोनों ही आंकड़ें किसी को डराने के लिए पर्याप्त हैं। इनसे समझा जा सकता है कि देश में जल संकट ने कितना विकराल रूप ले चुका है। पर हैरानी तो यह होती है कि जल संकट इस लोक सभा चुनाव का कोई मुद्दा ही नहीं बना पाया। मोटे तौर पर धरती के नीचे से पानी को बेहतशा तरीके से निकाला जा रहा है। धरती की कोख को बांझ किया जा रहा है। सारा देश जानता है कि कावेरी के जल बंटवारे पर कर्नाटक और तमिलनाडू जानी दुश्मन वन चुके हैं।
इसी तरह से पंजाब और हरियाणा सतलुज-यमुना लिंक नहर के जल के बंटवारे पर लंबे समय से किच-किच कर रहे हैं। छतीसगढ़ और ओडिशा महानदी के जल के बंटवारे के मसले पर एक-दूसरे से खफा हैं। पर दोनों राज्यों का राजनीतिक नेतृत्व कभी मिल बैठकर मसले को सुलझाने की दिशा में बढ़ नहीं रहा है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में भैंसाझार बांध परियोजना से नवीन पटनायक सरकार नाराज है। उसका मानना है कि इस बांध के निर्माण से राज्य के कई इलाकों में सूखे के हालात बनेंगे, पर इस तर्क से छत्तीसगढ़ सरकार सहमत नहीं है। उसका मत है कि वो सिर्फ महानदी का बैक वॉटर रोक रही है। फिलहाल दोनों राज्यों की अपनी दलीलें और दावें हैं। अब नदी जल बंटवारे पर सभी राज्यों को मिल-बैठकर अपने मसलों-विवादों को हल करना चाहिए था ताकि निदयों के जल का बंटवार सही तरह से हो जाए। पर इस सवाल पर भी कोई एक राय बनना तक एक दूर की संभावना ही लगती है। यह तो सर्वविदित है कि भारत में जल का उपयोग कृषि क्षेत्र के लिए बहुत बड़े पैमाने पर होता है। देश में करोड़ों लोग खेती कर रहे हैं। पर हमें यह तो देखना ही होगा कि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में धान की फसल कम-से-कम उगाई जाए। धान की खेती में खूब पानी चाहिए होता है। पंजाब और हरियाणा में भूमिगत जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। पर किसान धान की खेती रोक नहीं रहे हैं। यह कतई सही नहीं माना जा सकता है। इन राज्यों को जमीनी हकीकत को समझ नहीं चाहिए। धान की खेती के लिए बिहार, बंगाल, ओडिशा जैसे राज्य ही मुफीद हैं, जहां पर बहुत सी नदियां हैं तो साफ है कि जल संकट के मूल में अनेकों कारण हैं। उन कारणों के हल मिल वैठकर खोजने होंगे, तभी हम अपने को जल संकट से बचा सकेंगे। हालांकि अभी हमार यहां पर इस मसले पर कोई जागरूकता पैदा नहीं हो पा रही है। और यही उदासीनता आगे चलकर हालात को बदतर करेंगे, इसमें दो मत नहीं है। क्या हम तब नींद से उठेंगे जब हमारे कुछ शहरों और राज्यों में केपटाउन जैसे जैसी स्थिति बन जाएगी? इस सन्दर्भ में मैं केंद्र सरकार के परिवहन और जल संसाधन मंत्री नितीन गडकरी जी के प्रस्ताव से सहमत हूं कि जब पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल पानी के लिए तरस रहे हैं, भारत से निकली सभी नदियों का जल पाकिस्तान जाने से रोक देना चाहिए। यह क्रांतिकारी कदम है, भारत को खुशहाल करने के लिए भी और पाकिस्तान को बिना लड़ाई तबाह करने के लिए भी। अंत में एक सुझाव!
रासायनिक खादों से की जाने वाली खेती में जितने जल की खपत होती है, उसका मात्र दस प्रतिशत जल चाहिए यदि देसी गाय के गोबर, गौमूत्र, बेसन, गुड और मठा को सड़ाकर देसी खाद जल ‘जीवामृत’ बनाकर खेतों को ड्रिप या स्प्रिंकलर से सिंचित किया जाए। इसे कहते हैं आम के आम और गुठलियों के दाम। लागत भी नहीं के बराबर और 90 फीसद जल की बचत। लेकिन शर्त है कि पुट्ठे और झालर वाली साहिवाल, गिर, थारपारकर, कांकरेज, राठी या गंगातीरी जैसी देसी गायों का गोबर और गौमूत्र ही चाहिए क्योंकि, इसी देसी गाय में खासकर सांडऔर बैलों में या दूध नहीं देने वाली गायों के एक ग्राम गोबर में तीन करोड़ से ज्यादा मित्र जीवाणु पाए गए हैं, जो खेतों की उर्वरक शक्ति बढ़ाते रहते हैं और जमीन में नमी बनाए रहते हैं। यह शक्ति विदेशी नस्ल की गायों में नहीं है।
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