मीडिया : ध्रुवीकरण और मीडिया

Last Updated 21 Apr 2019 12:40:45 AM IST

एक पूर्व मुख्यमंत्री ने एक संसदीय क्षेत्र की रैली में अपील की कि सारे मुसलमानों को एकजुट होकर वोट देकर गठबंधन को सफल बनाना चाहिए।


मीडिया : ध्रुवीकरण और मीडिया

इस अपील को आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन  करने वाला बताते हुए  चुनाव आयोग से जब शिकायत की गई है, तो आयोग ने उसका संज्ञान लिया और उसने उक्त पूर्व मुख्यमंत्री को दो दिन के लिए प्रचार करने से रोक दिया। ऐसे ही, एक मौजूदा सीएम ने एक रैली में ‘उनके अली हमारे बजरंग बली’ कहा तो इसे भी मीडिया ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाला माना। जब आयोग से कहा गया कि यह आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है, तो आयोग ने उनको तीन दिन के लिए प्रचार से विरत कर दिया। एक राज्य के एक बड़े नेता ने कहा कि लोग सत्रह साल में नहीं पहचान पाए, मैंने सत्रह दिन में उनकी चड्डी के रंग को पहचान लिया..जब इस घोर सेक्सिस्ट भाषा की शिकायत की गई तो आयोग ने इस नेता को तीन दिन के लिए प्रचार करने से मना कर दिया। एक मंत्री ने अपने भाषण में कहा कि जो वोट नहीं देंगे तो उनका काम नहीं होगा। जब इसे आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन मानकर आयोग से शिकायत की गई तो आयोग ने मंत्री को दो दिन के लिए प्रचार से विरत कर दिया।

लेकिन इससे क्या होता है? दो-तीन दिन के बाद  यही सब फिर शुरू हो सकता है। पिछले पांच सालों में ऐसी हेट स्पीच देने वालों का एक मनोविज्ञान और  एक पैटर्न भी प्रकट हुआ है। कितनी ही ‘हेट स्पीचें’ सिर्फ इसलिए दी जाती हैं ताकि मीडिया उनको उठाए और समाज का घृणामूलक धार्मिंक ध्रुवीकरण बढ़ता चले। कई नेता तो इस तरह की स्पीच में ऐसे माहिर हैं कि जब भी बोलते हैं, ऐसी भाषा बोलते हैं। घृणा के ऐसे व्यापारी जानते हैं कि चुनाव आयोग के पास ऐसे कड़े दंड विधान नहीं हैं कि वह कड़ा दंड दे सके। एक बहस में एक प्रवक्ता ने सही कहा कि अगर आयोग ऐसी भाषा वाले को चुनाव के लिए अवैध करार दे दे तो अगले ही पल सब ठीक हो जाए लेकिन आयोग के पास समुचित दंडात्मक अधिकार कहां है?
ऐसी स्थिति में हमारा मानना है कि अगर मीडिया ऐसे बयानों को दिन रात न बजाए, ऐसे निंदनीय बयानों पर चरचा या बहसें न कराकर उनको इज्जत न बख्शे तो बहुत-सी ‘हेट स्पीचें’ अपनी मौत आप मर जाएं। लेकिन मीडिया ऐसा क्यों करेगा? पिछले पांच बरसों में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा ऐसी ध्रुवीकरणवादी भाषा को जाने-अनजाने स्वयं प्रसारित करता रहता है। मीडिया में आकर हेट स्पीच हजार गुना बड़ी हो जाती है। अगर मीडिया ऐसी घृणा भाषा को अधिक लिफ्ट न दे तो हेट स्पीचों के उस्ताद शायद कुछ हतोत्साहित हों। जिस तरह किसी हत्याकांड को, किसी लाश को मीडिया सीधे नहीं दिखाता है, उसे धुंधला करके दिखाता है, उसी तरह अगर मीडिया ऐसी हेट स्पीचों को पूरे-पूरे दिन न बजाए यानी कि बहुत लिफ्ट न दे तो बहुत-सी ‘हेट स्पीचें’ अपने आप मर जाएं। मीडिया कह सकता है कि नेताओं द्वारा जो बोला जाता है, उसे दिखाना उसका काम है ताकि ऐसा बोलने वाले की आलोचना हो, वो अपने कहे पर शर्मिदा हो और अगली बार ऐसी भाषा बोलने से पहले सौ बार सोचे। लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता, बल्कि उल्टा ही होता दिखाई देता है।
पिछले पांच बरसों के दौरान मीडिया ने ऐसी हर ‘हेट स्पीच’ और ऐसी हर घृणा भाषा को बड़ी खबर बनाया है। हालांकि,यह भी सच है कि कई बार मीडिया ने ऐसी भाषा की आलोचना की है, लेकिन जब चैनल- चरचाओं में आए दिन एक ओर दो-तीन मुसलमान और दूसरी ओर दो-तीन हिंदूवादी-हिंदुत्ववादी बिठा लिए जाते हैं, और आध घंटे से एक घंटे की बहसों में ऐसी तू तू मैं मैं की या कहें कि कराई जाती है, तो घृणा की भाषा का उपयोग करने वाले शर्मिदा महसूस करने की जगह और अधिक रु तबेदार दिखने लगते हैं। ऐसी हर बहस सेक्युलर जगह को खत्म करती जाती है।
धार्मिंक नेता और प्रवक्ता भी पूरे चतुर सुजान हैं। वे मीडिया में अपनी प्रेजेंस के मानी खूब अच्छे से समझते हैं। वे पूरे समय अपनी धार्मिंक कंस्टीट्वेंसीज को संबोधित करते रहते हैं। इस प्रक्रिया में घृणामूलक भाषा और विचार न केवल अधिक पापूलर होते हैं, बल्कि मीडिया में आए दिन आ आकर नये किस्म की वैधता को भी प्राप्त करते हैं। 
अफसोस की बात यह है कि एकाध को छोड़ हमारे एंकरों और रिपोर्टरों ने ऐसी हेट स्पीचों को कायदे से ‘क्रिटीकली’ निपटाने के तरीके नहीं सोचे। इन दिनों वह धार्मिंक प्रवक्ताओं के लिए चुनौती नहीं बनता, बल्कि उनका मंच बन जाता है। बेहतर हो कि मीडिया अपनी ‘सेक्युलर’ भाषा को फिर से खोजे और ध्रुवीकरण करने वाली भाषा का मंच न बने।

सुधीश पचौरी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment