पुनरावलोकन : तो क्यों फुस्स हो गया प्रज्ञा बम!

Last Updated 21 Apr 2019 12:44:32 AM IST

भोपाल से भाजपा प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा के श्राप से बहादुर पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे का अंत हुआ हो या नहीं पर उनकी तरह के आरोपी और विवादास्पद नेता को एक बार में मध्य प्रदेश जैसे महत्त्वपूर्ण राज्य, जहां अभी तक सांप्रदायिकता बड़ा मुद्दा नहीं थी, की राजधानी से चुनाव में उतारने के फैसले का एक परिणाम तो पार्टी को दूसरे दिन ही मिल गया।


पुनरावलोकन : तो क्यों फुस्स हो गया प्रज्ञा बम!

काफी सारे लोगों की जान लेने वाले मालेगांव विस्फोट कांड समेत आतंकवाद की कई घटनाओं में आरोपी रही इस महिला नेता को बरसों जेल में रहने के बाद जमानत पर बाहर लाकर भाजपा ने एक नया दांव तो खेला था, पर यह खेल कितना जोखिम भरा है, यह भी समझ आ गया। साध्वी प्रज्ञा ने उस बहादुर पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे को लेकर जो बयान दिया उससे पार्टी सकते में है, और उसे झट से इस बयान से खुद को अलग करने के अलावा कुछ और नहीं सूझा। और पार्टी ने यह समझदारी भी दिखाई कि साध्वी जी से भी माफी मंगवाई। और लौह महिला बताई जाने वाली उम्मीदवार का जब चुनाव शुरू होने के पहले ही चरण का यह हाल है, तो भाजपा को अपना भोपाल दुर्ग बचाने की इस मुहिम का क्या हाल होगा सहज समझा जा सकता है।

सचमुच में भोपाल, इन्दौर और कई ऐसी सीटें हैं, जिन्हें भाजपा ने अपने दुर्ग में बदल लिया है। जमाने से वहां सीधे मुकाबले के बावजूद कांग्रेस कहीं लड़ाई में नहीं आती। और जब पंद्रह साल के शासन के बाद भाजपा विधानसभा चुनाव हारी तब भी लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को उम्मीदवार ढूंढने में दिक्कत आई। शिवराज सिंह की लोकप्रियता काफी थी पर भाजपा और राजनैतिक पंडितों के लिए मोदी की लोकप्रियता से उसकी तुलना नहीं की जा सकती। इसलिए यह प्रचार हुआ कि भोपाल, इन्दौर और विदिशा जैसी सीटों के लिए कांग्रेस को उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं। यह खबर भी आई कि एक दशक के चुनावी संन्यास से वापस लौट रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को ‘निपटाने’ के लिए प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व पर हावी कांग्रेसी नेताओं ने उनसे भोपाल या इन्दौर में से किसी एक सीट को चुनने का विकल्प दिया। उनका इलाका राजगढ़ है।
अब इन चर्चाओं के पीछे न जाएं तो भी यह सही है कि विधानसभा चुनाव से पहले एक लंबी नर्मदा यात्रा और फिर विधानसभा चुनाव में सीधा हिस्सा न लेने के बावजूद खूब मेहनत से भाजपा को हराने में भूमिका निभाने वाले दिग्विजय सिंह ने भोपाल से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में परचा दाखिल किया तो लोगों को यह बहुत सामान्य नहीं लगा। कमलनाथ, सिंधिया और दिग्विजय सिंह के तीन खेमों में बंटी कांग्रेसी राजनीति में इस बार बेहतर तालमेल दिखा तभी भाजपा हारी। पर बाकी दो के मुकाबले दिग्विजय की यह स्थिति चुनौतीपूर्ण ही मानी गई।
दिग्विजय सिर्फ  मध्य प्रदेश वाले नेता ही नहीं थे। कांग्रेस महासचिव होने के चलते लंबे समय तक कांग्रेस में सक्रिय थे और राहुल गांधी के सबसे नजदीकी सलाहकार समेत कांग्रेस के रणनीतिकार भी माने जाते थे। और जब मालेगांव से लेकर बाटला एनकाउंटर तक पर वे एक स्पष्ट मुसलमान समर्थक लाइन लेते थे तो भाजपा के लोगों के मामले को सांप्रदायिक रंग देने में सुविधा हो जाती थी। पर संघ परिवार, भाजपा और शिव सेना पर हमला करने में वे कांग्रेस की तरफ से अगुआ थे। और कई बार उनके बयान और काम इतने एकतरफा और विवादास्पद भी हुए कि कांग्रेस को उनके बयान या काम से पल्ला झाड़ना पड़ा, आज साध्वी के बयान से भाजपा के पल्ला झाड़ने की तरह। उन पर भाजपा का मददगार होने का आरोप भी लगा लेकिन कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार उनसे नजदीकी बनाए रहे। पर जब गोवा में ज्यादा विधायक जीतने के बावजूद कांग्रेस की सरकार नहीं बनी और भाजपा ने सरकार बना ली तो दिग्विजय सिंह का पत्ता कट गया क्योंकि वही गुजरात के प्रभारी महासचिव थे। उसके बाद नर्मदा यात्रा, जो हिंदू छवि बनाने के साथ जनसंपर्क का जबरदस्त अभियान थी, और फिर विधानसभा चुनाव और अब मुश्किल सीट से चुनाव।
सो, सांप्रदायिकता की राजनीति से ऊबे काफी लोगों को तब कुछ ‘मजा’ आया जब भाजपा ने उनके मुकाबले साध्वी प्रज्ञा को उतारा। दिग्विजय जानबूझकर सांप्रदायिक मसलों में उल्टा लाइन लेते रहे थे, यह बात सिर्फ  अटकल का विषय नहीं है। लगा कि सेर को सवा सेर मिल गया। और यह देखना होगा कि दिग्विजय का लंबा राजनैतिक कॅरियर और मध्य प्रदेश तथा भोपाल के लोगों से सीधा संपर्क काम आएगा या साध्वी और उनके पीछे के संघ परिवार और भाजपा के लोगों का काम लाभ देगा। इस हिसाब से साध्वी के श्राप वाला बयान देने के पहले तक भोपाल का चुनाव पर्याप्त दिलचस्प लगने लगा था। और साध्वी को उम्मीदवार बनाते हुए भाजपा चाहे जो सफाई दे पर उनकी सक्रियता भी हिंदू समाज को बहुत शांतिपूर्ण ढंग से मदद करने वाली तो नहीं ही रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के असंख्य नामधारी संगठनों में से एक में (और अब अचानक भाजपा में आगमन) उनकी सक्रियता और त्याग-तपस्या हिंदू महिलाओं की किस तरह की उन्नति के लिए थी, यह बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि वही सक्रियता मालेगांव ब्लास्ट की दिशा में गई। अब वे कहें कि कुछ अधिकारी उनको फंसाने की कोशिश कर रहे थे (जबकि पिछले पांच साल से भाजपा की सरकार रही है) तो हम एक बार में कैसे भरोसा कर सकते हैं क्योंकि करकरे और दूसरे जांच अधिकारी कुछ और कह रहे थे, वकील रोहिणी सोलियान तो उल्टे दबाव का आरोप लगाकर बाहर हुई थीं। पर यह तो तथ्य है कि साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी भाजपा शासन में ही 2008 में हुई थी-संघ के ही एक कार्यकर्ता की मौत के सिलसिले में।
पर इस बयान ने सिर्फ  ‘मजा’ किरकिरा नहीं किया, हमारी राजनीति और चुनावी राजनीति के इस तरह के बदलाव के खतरों के प्रति भी हमारा ध्यान खींचा और सावधान किया। आज उत्तर प्रदेश में भले ही एक बयान के लिए मायावती को भी सजा मिल गई हो पर मुख्यमंत्री के पद पर बैठे साध्वी जैसे ही योगी आदित्यनाथ जो कमाल कर रहे हैं, वह किसी खतरे से कम नहीं है। मुस्लिम लीग के झंडे को पाकिस्तानी झंडा बताना, हरे रंग को वायरस बोलना, अली बनाम बजरंग बली और बैन लगने पर कैमरों की टीम के साथ बजरंग बली मंदिरों का दौरा करना समेत ऐसे अनेक काम किए हैं, जो अशोभनीय हैं। और अगर उनके काम या सांसदों के काम के आधार पर चुनाव हो तो उत्तर प्रदेश में भाजपा शून्य हो जाए जबकि लोगों ने बिना नेता का नाम जाने भाजपा को अपार बहुमत दिया था। तब मोदी जी के नाम पर वोट पड़ा था, आज भी मोदी नाम के सहारे ही सारे उम्मीदवार चुनावी वैतरणी पार करने की उम्मीद कर रहे हैं। साध्वी प्रज्ञा भी मैदान में हैं तो शिवराज और मोदी के नाम पर। भारी बहुमत की सरकार सीधे हाथ में आ जाने पर अच्छा काम करने की जगह जो काम अभी योगी जी करते दिख रहे हैं, वही साध्वियों और स्वामियों ने संसद और सरकार में जाकर किया है, और वही भोपाल की साध्वी भी कर सकती हैं, अगर वे संसद में आ गई तो। और इसका नतीजा मोदी जी की चुनाव रणनीति में लोगों का ध्यान भटकाने भर के काम आ रहा है, वरना यह सब गले का बोझ ही बना हुआ है। पर मोदी जी यह समझें तब तो। शायद उनको इनकी उपयोगिता हमारी गिनती से ज्यादा लगती होगी।

अरविन्द मोहन


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