डिजिटलाइजेशन : लोकतंत्र पर खतरा!

Last Updated 19 Apr 2019 06:44:28 AM IST

पांच सिविल सोसाइटी संगठनों के संयुक्त मंच ने पिछले ही दिनों एक संयुक्त अपील जारी की। अपील पर दो सौ से ज्यादा जानी-मानी हस्तियों ने दस्तखत हैं।


डिजिटलाइजेशन : लोकतंत्र पर खतरा!

यह संयुक्त कॉमन कॉज, कांस्टीटय़ूशनल कंडक्ट ग्रुप, फ्री सॉफ्टवेयर मूवमेंट ऑफ इंडिया, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स और इंटरनैट फ्रीडम फाउंडेशन की ओर से जारी की गई है। इसमें खास तौर पर उस खतरे की ओर ध्यान केंद्रित किया गया है जो सोशल मीडिया तथा डिजिटल प्लेटफार्मो से हमारे जनतंत्र के लिए पैदा गया है। 
याद रहे कि फिलहाल, चुनाव खचरे के मामले में एक ही सीमा लागू है-उम्मीदवार के खर्च की सीमा। चूंकि पार्टयिों के खर्च पर कोई सीमा ही नहीं लगाई गई है, इस रास्ते का इस्तेमाल कर राजनीतिक पार्टियों तथा खास तौर पर सत्ताधारी पार्टी द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफार्मो पर बेतहाशा पैसा बहाया जा रहा है। अनुमान लगाया गया है कि 2014 के संसदीय चुनाव में 30,000 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किए गए थे। इस चुनाव में खर्च का आंकड़ा इससे दोगुना हो जाने का अनुमान है। दुनिया का यह सबसे महंगा चुनाव होगा। चुनावी बांड की व्यवस्था शुरू कर मोदी सरकार ने बड़े कारोबारियों के लिए इसका भी रास्ता खोल दिया है कि राजनीतिक पार्टियों को बेहिसाब तथा अनाम स्त्रोतों वाले चंदे दें। इस तरह भ्रष्टाचार को ही आधिकारिक रूप से वैध बना दिया गया है। अपील में यह भी रेखांकित किया गया है कि गूगल, फेसबुक तथा ट्विटर जैसे इजारेदाराना डिजिटल प्लेटफार्मो से भारत में जनतंत्र के लिए कैसा खतरा पैदा हो गया है और इसलिए इन डिजिटल मंचों के कामकाज पर नजदीकी निगाह रखने की जरूरत है। अपील में दर्ज किया गया कि डिजिटल प्लेटफार्मो से आने वाला खतरा, उनकी इस सामथ्र्य से जुड़ा हुआ है कि वे बड़े पैमाने पर जनता के व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं और इस तरह चुनावों को भी प्रभावित कर सकते हैं।

स्वतंत्र शोधार्थियों ने इन प्लेटफार्मो के प्रभाव का विश्लेषण किया है, और उनका निष्कर्ष है कि इन प्लेटफार्मो के जरिए लोगों को जो परोसा जाता है, मिसाल के तौर पर वे अपने फेसबुक पेजों पर या गूगल सर्च के जरिए जो कुछ देखते हैं, उसे थोड़ा सा घुमाने भर के  जरिए चुनाव नतीजों में महत्त्वपूर्ण बदलाव लाया जा सकता है। गूगल की ऑटोसजेशन तथा ऑटोकंपलीट सुविधाएं भी ऐसे बारीक औजार हैं, जिनके जरिए उपयोक्ताओं को प्रभावित किया जा सकता है, और गूगल जिस ओर मोड़ना चाहे, उन्हें मोड़ सकता है। अनिर्णीत मतदाताओं का 20 फीसद दोलन या कुल मतदाताओं के 4-5 फीसद का मन बदलना, पहली नजर में छोटा बदलाव लग सकता है, लेकिन इतने बदलाव से ही हमारे देश की जैसी, जो सबसे आगे आए सब ले जाए पर आधारित चुनाव व्यवस्था में, कोई राजनीतिक पार्टी झाडूमार जीत हासिल कर सकती है। इसलिए जिस पार्टी के पास पैसे की ताकत है, इन डिजिटल प्लेटफार्मो का सहारा लेकर आराम से बड़े पैमाने पर मतदाताओं को अपने पक्ष में मोड़ सकती है क्योंकि हमारे यहां राजीतिक पार्टियों के चुनाव खर्च पर तो कोई सीमा लगाई ही नहीं गई है। धन बल के इस्तेमाल के संदर्भ में इस अपील में, ‘फेक न्यूज’ का और खासतौर पर व्हाट्सएप प्लेटफार्म के जरिए फैलाई जाती फेक न्यूज का भी मुद्दा उठाया गया है। जैसाकि अब आम जानकारी में आ चुका है, भाजपा के आईटी सेल द्वारा संचालित व्हाट्सएप ग्रुपों की विशाल संख्या का इस्तेमाल कर सांप्रदायिक हिंसा तथा भीड़ द्वारा हमलों व हत्याओं को भड़काया जाता रहा है। जहां इनमें से कुछ ग्रुप तो आधिकारिक रूप से भाजपा द्वारा संचालित हैं, इनके अलावा विशाल संख्या में भाजपा के ऐसे ‘अनौपचारिक’ गुप भी चल रहे हैं, जो आज देश में फेक न्यूज के सबसे बड़े वाहक बने हुए हैं। लोग भूले नहीं हैं कि किस तरह मुजफ्फरनगर के दंगों की पूर्व-संध्या में झूठी तस्वीरों के साथ भड़काऊ व्हाट्सएप संदेश बड़े पैमाने पर फैलाए गए थे और दंगों के बाद उनके जरिए ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा किया गया था, इसका नतीजा 2014 के चुनाव में देखने को मिला था।
बेशक, ट्रंप के चुनाव से संबंधित अपने कैंब्रिज एनालिटिका कांड और ब्रेक्जिट जनमत संग्रह में अपनी भूमिका के चलते, फेसबुक ने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए काफी कुख्याति अर्जित कर ली है, सचाई यह है कि मतदाताओं को प्रभावित करने के मामले में गूगल की भूमिका, उससे भी बड़ी न सही, उसकी जितनी तो हो ही सकती है। आज हमारे देश में 30 करोड़ से ज्यादा स्मार्टफोन उपभोक्ता हैं। उनके लिए गूगल तथा फेसबुक की एल्गोरिद्मों से ही तय होता है कि वे अपनी फेसबुक फीड्स में और गूगल सचरे में क्या देखेंगे या अपनी यूटय़ूब फीड्स में, गूगल पर, व्हाट्सएप मैसेजिंग में तथा फेसबुक पर क्या देखेंगे? गूगल, फेसबुक तथा इसी तरह के अन्य प्लेटफार्म, कमाई के लिए इस धंधे में हैं, और वास्तव में इतनी भारी कमाई करने के लिए इस धंधे में है, जितनी कमाई को किसी भी समाज में अश्लील रूप से ज्यादा ही कहा जाएगा। उनका व्यापार मॉडल, ज्यादा से ज्यादा कमाई की भूख से ही संचालित है। आज के डिजिटल युग में पैसे का इस्तेमाल कर, इस तरह के डिजिटल प्लेटफार्मो के जरिए दौलत वालों की आवाज को कई गुना बढ़ाया जाता है। एल्गोरिद्म और डिजिटल प्लेटफार्मो पर उपलब्ध हमारे डॉटा का योग, सिर्फ हम तक पहुंचने वाले संदेश को ही बहुगुणित नहीं करता है, वह लक्षित एडवरटाइजिंग नाम की परिघटना का भी रास्ता बनाता है। वे जान लेते हैं कि आबादी के किस हिस्से में कौन सा संदेश ज्यादा असर करेगा। जनतांत्रिक व्यवस्था में हम मानकर चलते हैं कि हम स्वतंत्र नागरिक हैं, जिनके अपने-अपने विचार हैं।
हमारी यह आत्मछवि, किसी ऐसे आबादी के समूह के अंश की छवि से बिल्कुल अलग है, जिसे लक्षित विज्ञापनों के जरिए प्रभावित किया जा सकता है। लेकिन, आखिरकार विज्ञापनों के जरिए लोगों को खास उत्पादों को ही खरीदने के लिए तैयार किया जाता है। इसी उपयोग के चलते तो विज्ञापन उद्योग आज इतना बड़ा उद्योग बन गया है। तब राजनीति के मामले में भी ऐसा ही क्यों नहीं किया जा सकता है? वास्तव में डिजिटल मीडिया प्लेटफार्मो के हाथ यही बड़ा कारोबार लग गया है। राजनीतिक विज्ञापनों का कारोबार अब एक बड़ा करोबार है और विज्ञापनों के जरिए मतदाताओं को पार्टियों तथा उम्मीदवारों को उसी तरह से बेचा जा सकता है, जैसे ग्राहकों को दूसरी चीजें बेची जाती हैं। यह राजनीतिक विज्ञापन का धंधा कारगर है, इसमें भी अचरज की कोई बात नहीं है।

प्रबीर पुरकायस्थ


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