वामपंथ : कन्हैया से जगती आस

Last Updated 15 Apr 2019 06:11:42 AM IST

सालों पहले सोवियत संघ के विघटन के बाद एक बुजुर्ग वामपंथी को व्याकुल देखा था। जब प्रतिमान ढहते हैं तो सपने देखने की उम्मीद भी टूटती है।


वामपंथ : कन्हैया से जगती आस

एकाध हफ्ते से बेगूसराय में भाकपा के कन्हैया कुमार को चुनाव प्रचार करते देखने से उस बुजुर्ग की याद हो आई। अगर वह जीवित होते तो निश्चित ही नये सपने देखने की हिम्मत करते। कन्हैया सपने देखने की ताकत देता है। ऐसा सपना, जिनमें जातिवाद-संप्रदायवाद की बू न हो। कॉरपोरेट घरानों की घुसपैठ न हो। समाज के गरीब-गुरबे के हक की बात हो। भारतीय वामपंथ में युवा ऊर्जा की आस। यह बताने में क्या है कि वह बुजुर्ग हमारे पिताजी थे और आज उनकी तरफ से हम कन्हैया को देखकर, वैसे ही सपने देखने की हिम्मत जुटा रहे हैं।
चूंकि सालों-साल वामपंथ अप्रासंगिक मान लिया गया है।

कम्युनिस्ट पार्टयिों की चूलें पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा में भी हिल चुकी हैं। केरल मात्र एक राज्य बचा है, जिसकी आलोचना करने वाले भी कम नहीं। यूं भी वहां लगभग हर पांच साल बाद सरकार विरोधी लहर आती है। इतनी विफलताओं के बाद कम्युनिस्ट नेताओं की छवि भी आम लोगों के दिलो-दिमाग में हल्की पड़ने लगी है। आर्थिक उदारीकरण के अट्ठाइस साल बाद साम्यवाद की ध्वनि कमजोर हो गई। नक्कारखाने में गूंज अधिनायकवाद की है।

व्यक्ति पूजा ने उस विचारधारा को भी किनारे कर दिया है, जिसने व्यक्ति को पूजनीय बनाने वाली जमीन तैयार की थी। पर तूती तो मिठास और माधुर्य से भरी होती है। कन्हैया उसी तूती का एहसास करते हैं। आम लोगों के बीच, आम लोगों जैसे। कहते हैं, राजनीति को पेशा नहीं बनाऊंगा। पेशा तो पढ़ाना ही होगा। कम-से-कम चार घंटे पेशे के लिए-बाकी पार्टी और राजनीति के लिए।

यह दुखद ही है कि कन्हैया से पहले किसी समकालीन वामपंथी नेता को देखकर ऐसे सपने देखने की हिम्मत नहीं हुई। माकपा, और भाकपा, दोनों में कद्दावर नेता मौजूद हैं। बुजुर्ग ही नहीं, युवा भी हैं। एम बी राजेश जैसे नेता को न्यूज पैनल्स में मुंहफट एंकरों से लोहा लेते देखना अच्छा लगता है। पी. के. बीजू दस सालों से अपना सिक्का आलत्तूर में जमाए हुए हैं। जनता के बीच उनकी पैठ मजबूत है। इस बीच रिताब्रता बनर्जी जैसे नेताओं के विवाद निराश भी करते हैं। माकपा दो साल पहले उन्हें पार्टी से निष्कासित कर चुकी है।  भाकपा के पास लोक सभा में सिर्फ  एक चेहरा है, 68 साल के सी के जयदेवन का। राज्य सभा में डी. राजा और बिनॉय विस्वम जैसे नेता भी साठ के पार हैं।

ऐसे में कन्हैया का युवा चेहरा तसल्ली देता है-इस बात कि भारत में कम्युनिज्म सिर्फ  प्रौढ़ लोगों की स्मृतियों में नहीं बसता। युवाओं की सोच में भी जिंदा है। वह पीढ़ी अब जा चुकी है, जिस पीढ़ी के वामपंथी नेता सपने जगाते थे। इंद्रजीत गुप्ता, एबी वर्धन, हरकिशन सिंह सुरजीत, सोमनाथ चटर्जी, भूपेश गुप्ता, गीता मुखर्जी..एक साथी ने कन्हैया में एबी वर्धन का अक्स देखा था। वर्धन और सुरजीत, लोकतांत्रिक परिवर्तनों को समझते थे। कन्हैया ने जेएनयू प्रकरण और जेल यात्रा के बाद एक टीवी इंटरव्यू में कहा था-दुश्मन बदल चुके हैं। इसीलिए अब साथी भी बदलने होंगे। कन्हैया का बयान वर्धन और सुरजीत के ट्रेडिशन को आगे ले जाने वाला था। वह नीले और हरे रंग के साथ लाल रंग को मिलाना चाहते थे। बाद में पा. रंजीत की फिल्म ‘काला’ के क्लाइमेक्स में इन तीनों रंगों को एक साथ देखकर एक नई ताजगी आई थी।

कन्हैया के भरोसे सपने देखना मुमकिन हुआ है। उनके बारे में शिव सेना के संजय राऊत कह चुके हैं कि कन्हैया को हराया जाना चाहिए। चाहे इसके लिए ईवीएम से छेड़छाड़ ही क्यों न करनी पड़े? यूं कन्हैया जीत-हार को लेकर मस्त हैं। कह चुके हैं कि जीतेंगे, जब लहर भाजपा विरोधी होगी। इसीलिए विरोधियों के खिलाफ बयानबाजी करने की बजाय वे सामाजिक न्याय की बात करते हैं। संयत और सधी हुई मुद्रा में, और तर्क की दृढ़ता के साथ। देश को कॉरपोरेट हिंदुत्व अभिलाषा जिस तरह सांप्रदायिक पूंजीवाद की तरफ धकेल रही है, उस समय कन्हैया आदर्शवाद को एक मौका देने की बात करते हैं।

आज का दौर ऐसे वक्ताओं का है, जो मजमा लगाना जानते हैं। कुछ ऐसी वक्तृत्व कला, जिसमें श्रोता सम्मोहित होकर अपनी सोचने-समझने की क्षमता भी खो देते हैं। कन्हैया इसका एंटी थीसिस हैं। वह कुछ अप्रिय प्रश्न करते हैं, प्रश्नों की अपेक्षा करते हैं और उनका स्वागत भी। यह नये दौर का वामपंथ है जिसे बुजुर्ग वामपंथियों की ही, दूसरी विचारधारओं को भी समझना चाहिए। बाकी, विचारधारा हमेशा व्यक्ति से बड़ी होती है। कन्हैया को भी यह हमेशा याद रखना चाहिए। कहीं उनका व्यक्तित्व, उनकी विचारधारा पर हावी न हो जाए। इस बीच हम वामपंथ की लालिमा दोबारा राष्ट्रीय पटल पर फैलने के सपने देखने लगते हैं।

माशा


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