पुनरावलोकन : मैत्री है लोकतंत्र की आत्मा

Last Updated 14 Apr 2019 07:08:48 AM IST

सत्रहवीं लोक सभा के लिए हो रहे इस चुनाव में अपनी 128वीं जयंती पर लोकतंत्र संबंधी बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर के विचार बहुत प्रासंगिक हैं।


पुनरावलोकन : मैत्री है लोकतंत्र की आत्मा

एक ओर माना जा रहा है कि लोकतंत्र का अर्थ नियमित होने वाले चुनाव और उससे निकलने वाली प्रतिनिधि सरकार है। दूसरी ओर, माना जा रहा है कि लोकतंत्र का अर्थ संविधान सम्मत शासन पद्धति है, जो नेता और दल राज्य के तंत्र पर काबिज होगा, वही उसे परिभाषित करेगा। यही वजह है कि लोकतंत्र का उत्सव माना जाने वाला और लोकतंत्र का नृत्य कहा जाने वाला चुनाव कई बार राजनीतिक दलों का शोर, धनबल और कड़वी बहसों का तांडव जैसा लगता है। इसी से ऊब कर कभी एक साथ लोक सभा और विधानसभा के चुनावों की बात की जाती है, तो कभी गैर-दलीय राजनीतिक व्यवस्था में समाधान देखा जाता है।
डॉ. आम्बेडकर इस समस्या से जूझते हुए अपने जीवन के आखिरी दिनों में कभी ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ में लोकतंत्र के मूल की तलाश करते हैं, तो कभी वॉयस आफ अमेरिका से 20 मई, 1956 को भारत में लोकतंत्र के भविष्य पर अपना संदेश प्रसारित करते हैं। मानते हैं कि लोकतंत्र का दुनिया में कोई एक अर्थ नहीं है। जिसकी जैसी सोच है, वह लोकतंत्र को उस तरीके से देखता है। इसमें सबसे स्थूल सोच तो यही है कि लोकतंत्र एक प्रकार की सरकार है। जिसका अर्थ यही है कि जहां जनता स्वयं अपनी सरकार चुनती है यानी जहां सरकार प्रतिनिधित्व की सरकार है, वहां लोकतंत्र है। इसके लिए वयस्क मताधिकार और निश्चित अवधि पर चुनाव होते रहना जरूरी है। 

भारत ने वह व्यवस्था निर्मिंत कर ली है, और यही कारण है कि हम इसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते हुए इतराते नहीं हैं। हमारा चुनाव आयोग इस प्रणाली को चलाने वाला सबसे विसनीय संस्थान माना जाता है। तमाम राजनीतिशास्त्री इसी प्रणाली का अध्ययन करते हैं, और उन्होंने इसे ही लोकतंत्र की आत्मा मान लिया है। यही वजह है कि राज्य का तंत्र इसे चलाने में अपनी वैधता मानता है, और राजनीतिक दल इसी प्रक्रिया में येन केन प्रकारेण अपनी विजय सुनिश्चित करना चाहते हैं। जनता द्वारा चुनी हुई सरकार लोकतंत्र का साध्य बन गई है, और उस साध्य के लिए कुछ नियमों का पालन करते हुए तमाम तरह के चातुर्य और साधन जायज ठहराए जाते हैं। 
यहां पर बाबा साहेब कहते हैं कि लोकतंत्र एक प्रकार का सामाजिक संगठन है। लोकतंत्र सिर्फ  सरकार से नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक समाज से चलता है, बल्कि लोकतांत्रिक समाज का गठन इसके मूल में है। लोकतांत्रिक समाज के लिए वे दो जरूरी अवयव मानते हैं। एक अवयव है, समाज का वगरे के रूप में स्तरीकरण न होना। दूसरा अवयव है, व्यक्ति और समुदाय द्वारा निरंतर समायोजन करते रहने और एक दूसरे के लिए पारस्परिकता की भावना रखना। इस भावना को एक युवा शायर इस्तेखार अहमद इस तरह व्यक्त करते हैं-बेशक आप बड़े हैं, बड़े रहें, लेकिन इतनी तो जगह दें कि हम भी खड़े रहें।
दूसरे को खड़े होने की जगह देना और उसके हितों की चिंता करना और उसके साथ समायोजन करना लोकतंत्र का मूल है। जो लोग सरकार और समाज को अलग-अलग समझते हैं, और मानते हैं कि चुनाव आयोग के संचालन में सरकार बन गई तो लोकतंत्र कायम रहेगा, वे भूल करते हैं। बाबा साहेब की नजर में सरकार समाज से अलग नहीं है, वह समाज का हिस्सा ही है। सरकार को समाज ने ही बनाया है, और अपने कुछ कामों को संचालित करने  के लिए जिम्मेदारी दी है, क्योंकि वह काम सामुदायिक सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य है। इसीलिए जो लोग सरकार और समाज को अलग-अलग मानते हैं, वे भूल करते हैं। बाबा साहेब की नजर में दूसरी भूल यह न समझ पाना है कि सरकार का काम समाज की इच्छाओं और उद्देश्यों का प्रतिनिधित्व करती है, और वह यह काम तभी कर सकती है, जब उसकी जड़ें जिस समाज में है, वह लोकतांत्रिक है। वह समाज लोकतांत्रिक नहीं है, तो सरकार भले वैधानिक रूप से चुनकर आती रहे वह लोकतांत्रिक नहीं होगी। ऐसा एशिया, अफ्रीका और अरब ही नहीं, अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों में देखा जा सकता है। तुर्की में भी चुनाव होते हैं, और रूस में भी होते हैं। लेकिन वहां का समाज लोकतांत्रिक नहीं है, इसलिए सरकारें लोकतांत्रिक नहीं हो सकतीं। यही हालात दक्षिणी अमेरिका के तमाम देशों में भी हैं। भारत समेत एशिया के तमाम देशों में सरकारों का व्यवहार लोकतांत्रिक नहीं बन पा रहा है, तो उसकी जड़ में यही है।
बाबा साहेब तीसरी गलती इस सोच को मानते हैं कि सरकार अच्छी है या बुरी, लोकतांत्रिक है या अलोकतांत्रिक, यह इस पर निर्भर करता है कि उसे किस तरह की नौकरशाही मिली है। इसलिए महज संयोग नहीं है कि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लुटियन के टीले पर बैठे अफसरों के व्यवहार को लेकर असहजता प्रकट की थी। वास्तव में कोई भी अफसर वही बनेगा, जिस सामाजिक परिवेश में उसका प्रशिक्षण होगा। ऐसा नहीं है कि सिर्फ  अफसर हो जाने से कोई लोकतांत्रिक हो जाएगा।
बाबा साहेब, जिन्हें समता के योद्धा के रूप में जाना जाता है, और यह भी कहा जाता है कि वे अपने उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता के आंदोलन से किनारा किए हुए थे, के लिए स्वतंत्रता किसी एक वर्ग के लिए नहीं, समाज के सभी वगरे के लिए जरूरी थी। इसीलिए वे स्वतंत्रता के संघर्ष की बजाय समता के संघर्ष में ज्यादा जोर से जुटे थे। समता और स्वतंत्रता के इस झगड़े में उनका संदेश तब बहुत बड़ा हो जाता है, जब कहते हैं कि समता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों को जो मूल्य साधे हुए वह है बंधुत्व। यहां वे फ्रांसीसी क्रांति को याद करते हुए कहते हैं कि उससे निकले ‘फ्रेटरनिटी’ के लिए सही प्रयोग भगवान बुद्ध द्वारा दिया गया शब्द ‘मैत्री’ है, क्योंकि बिना मैत्री के लिए स्वतंत्रता समता को समाप्त कर देगी और समता स्वतंत्रता को।
यहीं पर बाबा साहेब और महात्मा गांधी एक साथ लोकतंत्र के आधार स्तंभ के रूप में खड़े दिखते हैं। गांधी इसी प्रेम को प्राणी जगत को बांधने वाली गुरु त्वाकषर्ण शक्ति मानते हैं। जो लोग महात्मा गांधी और बाबा साहेब को एक दूसरे का शत्रु मानते हैं, वे दरअसल लोकतंत्र की मैत्री भावना में यकीन नहीं रखते। वे तो वास्तव में एक कालखंड में विचरण करने वाले महावीर और बुद्ध हैं, जो एक ही तरह का संदेश दे रहे हैं। इसलिए मौजूदा चुनाव से अगर मैत्री निकलती है, तो मानना चाहिए कि चुनाव अपनी सही उद्देश्य के लिए संपन्न हुए वरना उसके लिए नये सिरे से प्रयास करना चाहिए।

अरुण त्रिपाठी


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