जनता का ‘मूड’ बताते टीवी शो

Last Updated 14 Apr 2019 07:06:18 AM IST

ज्यों-ज्यों खबर चैनल ‘फील्ड रिपोर्टिंग’ करने लगे हैं, त्यों-त्यों एक नए किस्म की पब्लिक दिखलाई देने लगी है। यह काम हिंदी चैनल बेहतरीन तरीके से करते हैं।


जनता का ‘मूड’ बताते टीवी शो

वे सीधे किसी छोटे शहर में पहुंचकर। मंच बनाकर वहां बुलाई पब्लिक से बात करने लगते हैं। पब्लिक में कुछ स्थानीय नेता, कुछ भद्र पुरु ष स्त्रियां और कुछ युवा-युवतियां होते हैं। खबर चैनल विभिन्न संसदीय क्षेत्रों की जनता का ‘मूड’ टटोलना चाहते हैं। उनके रिपोर्टर कुछ स्टॉक सवाल करते हैं, जैसे कि आप किसे वोट देंगे? किसके काम से संतुष्ट हैं? विकास हुआ कि नहीं? रोजगार मिला है कि नहीं? आप पहली बार के वोटर हैं किसे पीएम देखना चाहते हैं?
इन पब्लिक बहसों में पब्लिक के कुछ नए व्यवहार भी प्रसारित होते हैं, जैसे कि बहस में आमंत्रित हर व्यक्ति चाहता है कि रिपोर्टर उससे सवाल अवश्य करे। और ज्यों ही कैमरा आता है, वह व्यक्ति जोर-जोर से बोलने लगता है और कोई ऐसी चुटीली बात कहता है कि ताली पड़ जाय! सभी पंद्रह सेकिंड के हीरो बनना चाहते हैं।
कैमरा देखते ही लोग व्यग्र हो उठते हैं। हर बंदा बोलना कुछ चाहता है। ज्यों-ज्यों कैमरा बुलवाता है त्यों-त्यों दो पक्ष होते जाते हैं एक ‘सत्ता पक्ष’। दूसरा ‘उसका विपक्ष’। हर जगह पब्लिक बंटी हुई दिखती है। कुछ सत्ता का पक्ष लेने वाले होते तो कुछ सत्ता की आलोचना करने वाले होते हैं और रिपोर्टरों को दोनों ही तरह के विचारों को संतुलित करके देना पड़ता है।

यही मालूम पड़ता है कि पब्लिक की भाषा बदल गई है। वह उसी भाषा में बात करती है जिसमें चैनल बात करते दिखते हैं। कुछ कहते हैं कि ‘सत्तर साल’ में कुछ नहीं हुआ। जो हुआ सो पांच साल में हुआ है। भारत की इज्जत बढ़ी है। सुरक्षा बढ़ी है। पाकिस्तान डरता है। हम विशक्ति बने हैं और कांग्रेस सबसे भ्रष्ट पार्टी है, वह देश के टुकड़े-टुकड़े चाहती है.. इसके जबाव में लोग कहते हैं कि पांच साल में इन्होंने सिर्फ  झूठ बोला। काम कुछ नहीं किया। न कालाधन लाए। न हर एक को पंद्रह लाख दिए। न हर साल दो करोड़ रोजगार दिए। नोटबंदी ने बिजनेस बर्बाद किया और विकास कहां हुआ? सड़कों के गढ्ढे देखो? बिजली कहां है? लिंचिंग है एनकाउंटर हैं। सांप्रदायिकता बढ़ी है। युवाओं को नौकरियां नहीं हैं।
स्पष्ट है कि पब्लिक ने हिंदी चैनलों में जो भाषा सुनी है वे उसी में बोलती है। लेकिन खास बात यह है कि यह जनता इन बातों को जब बोलती है तो बेधड़क बोलती है। दलित बोलते हैं तो दो टूक बोलते हैं जैसे कि एक शो में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वाल्मीकि ने कहा कि हमारी झाडू तक इनने छीन ली, हम तो गठबंधन को ही वोट देंगे बहन जी पीएम बनेंगी। ऐसे ही बहुत से मुसलमान भी खुलकर बोलते दिखते हैं कि उन पर क्या गुजर रही है, हिंदू मुसलमानों में दूरियां बढ़ाई गई हैं, आपसदारी कम हुई है।
लेकिन बहुत से लोग कैमरों में एकदम सावधान होकर बोलते हैं। कुछ शायरी करने लगते हैं। कुछ कविताएं सुनाने लगते हैं। कई लोग शुरु आत गुस्से से करते हैं, लेकिन अंत में एक खास नाम का नारा लगाने लगते हैं। यहां एक दूसरे की टांग खिचाई भी खूब दिखती है, इस तरह लोग मनोरंजन भी करते हैं। एक बड़ी बात यह साफ होती है कि लोग ‘गठबंधन’ और ‘सत्ता’ के बीच सीधा फर्क समझते हैं यानी कि उनकी राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है।
हम कह सकते हैं कि इस बार हिंदी क्षेत्रों की शहरी जनता एकदम विभाजित है। ऐसा 2014 में नहीं था। तब कांग्रेस-विरोध की लहर थी। अब गठबंधन और कांग्रेस के पक्ष में बोलने वाले लोग जमकर बोलते हैं। कई तो कहते हैं कि चुनाव के बाद सब विपक्षी एक हो जाएंगे और नया पीएम चुन लेंगे। इससे साफ है कि वर्तमान सत्ता के प्रति नाराजी बढ़ी है।
ये शहरी छोटे नगरों और कस्बों की ‘जनता’ की बात है। ग्रामीण हिंदी जनता के पास कैमरे कम  ही जाते हैं लेकिन जब जाते हैं तो वहां भी इसी तरह की बोलीबानी में बातें सुनाई पड़ती हैं। ऐसी फील्ड चर्चाएं कराने वाले हिंदी चैनल प्रमाण है कि आम शहरी और ग्रामीण हिंदी जनता की राजनीतिक चेतना बढ़ी है। इसे दलों की अपेक्षा हिंदी चैनलों ने संभव किया है। लोग हिंदी चैनलों को देखकर अपने विचार बनाते हैं और उसी भाषा में बोलते हैं, जिनमें चैनल बोलते हैं।
जनता की यह तीखी राजनीतिक सजगता ही दलों को असमंजस में डाले हुए है कि इस जनता को अब बहकाया नहीं जासकता। पता नहीं अपनी नाराजगी किस पर निकाले और किसे चुने?  सबसे बड़ी बात ये कि लोग अब अपनी नाराजगी जताने लगे हैं और यह नाराजगी बहुत कुछ कहती है।

सुधीश पचौरी


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