मसूद अजहर : अमेरिका की डिप्लोमेसी

Last Updated 03 Apr 2019 06:04:07 AM IST

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अजहर मसूद पर चौथी बार आए प्रस्ताव पर चीन द्वारा ‘टेक्निकल होल्ड’ लगा दिए जाने के बाद अमेरिका एक बार फिर से प्रस्ताव लाने जा रहा है।


मसूद अजहर : अमेरिका की डिप्लोमेसी

सवाल है कि इस कदम को किस रूप में देखा जाए? इस रूप में कि अमेरिका अजहर और उसकी भारत के खिलाफ होने वाली आतंकी हरकतों को लेकर बेहद बेचैन एवं खफा है? या इसलिए कि चीनी पाले में जा रहे पाकिस्तान को दंड देना चाहता है? अथवा इसलिए कि चीन को सार्वजनिक रूप से इस मुद्दे पर शर्मसार करना चाहता है? या फिर इसलिए कि इस मुद्दे पर चीन के खिलाफ भारत को उकसाना चाहता है? इसी के साथ  प्रश्न यह भी है कि वर्तमान समय में इस मुद्दे पर भारत को क्या करना चाहिए? क्या भारत अजहर पर अपनी चिंताओं को लेकर इस तरह प्रतिबद्ध हो जाए कि चीन के साथ स्थापित द्विपक्षीय संबंधों की बलि देकर भी अजहर की सूचीबद्धता के मसले पर अमेरिका के साथ खड़ा हो जाए या द्विपक्षीय संबंधों को बरकरार रखते हुए अमेरिका के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करे? सवाल यह भी है कि पांचवी बार किया जाने वाला यह प्रयास यूनएनएससी की आशा का प्रतीक है या निराशा का?
जैश-ए-मुहम्मद के मुखिया अजहर मसूद को लेकर जो सूची प्रस्ताव लाया जा रहा है, उसका उद्देश्य उसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करना है। संभव है कि चीन पुन: वीटो करे। तो क्या वास्तव में चीन अनभिज्ञ है कि अजहर अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी है? अजहर पर प्रतिबंध लगाने के लिए कारणों को देखें तो इन्हें कई बार दोहराया जा चुका है, लेकिन फिर भी चीन प्रस्ताव 1267 के तहत वस्तुनिष्ठता और उचित तरीके की बात करता है।

तर्क देता है कि हम वस्तुनिष्ट और सही तरीके से तथ्यों और कार्यवाही के महत्त्वपूर्ण नियमों पर आधारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद समिति के तहत मुद्दे सूचीबद्ध करने पर ध्यान देते हैं, जिसकी स्थापना प्रस्ताव 1267 के तहत की गई थी। लेकिन यह तो दुनिया के साथ-साथ चीन भी जानता है कि जैश-ए-मुहम्मद 2001 में प्रतिबंधित कर दिया गया था, और यूएनएसी ने एक सूची में स्पष्ट किया था कि अजहर इस संगठन का फाउंडर एवं फाइनेंसर है। उसे अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के साथ कार्य करने का दोषी भी माना गया है। 2001 के पश्चात जैश-ए-मुहम्मद और अजहर ने कई आतंकी हमलों की जिम्मेदारी ली है। इन दर्जनों आतंकी हमलों में से एक हमला पुलवामा में हुआ हमला भी है, जिसमें 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले को निशाना बनाया गया था। इसके बाद भी चीन प्रस्ताव 1267 के तहत अजहर की लिस्टिंग के लिए 4 बार वीटो कर चुका है, तो इसका निहितार्थ सामान्य नहीं हो सकता। एक पक्ष तो पाकिस्तान की रक्षा हो सकता है, दूसरा कुछ और ही है। 
       दरअसल, चीन पाकिस्तान में अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है। उसे वहां अपने निवेश, कंपनियों और अपने लोगों के लिए सुरक्षा चाहिए। उसका सीपेक यानी चाइना-पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर, जिसमें रेशम महापथ के हिस्से की सुरक्षा और रेशम महापथ की महत्वाकांक्षा है, उसे ऐसा करने से रोकती है। एक दूसरा पक्ष और भी है। वह है चीनी विवशता। ध्यान रहे कि 1980 में अजहर ने अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं से लड़कर अपने जीवन की शुरुआत की थी। बाद में उसने जैश-ए-मुहम्मद की स्थापना की। वह दौर पाकिस्तान में इस्लामीकरण का था। अफगानिस्तान पूंजीवाद व समाजवाद के द्वंद्व का शिकार था। चीन ने अवसर का फायदा उठाते हुए मुजाहिदीन से संबंध स्थापित किया ताकि शिनजियांग प्रांत के उइगर मुसलमानों का विद्रोह रोका जा सके जहां 1980, 1981, 1985, 1987 और 1990 में चीनी सत्ता विरोधी आंदोलन हो चुके थे। हालांकि उस समय सोवियत संघ चीन के विरुद्ध दिखाई दिया था क्योंकि उसने अफगानिस्तान से उइगर  मुजाहिदीनों को रिहा कर दिया था कि शिनजियांग प्रांत में ये आंदोलन को ताकत प्रदान कर सकें। लेकिन चीन ने तालिबान से संपर्क साध कर इसका निदान तलाशा। यह समीकरण अब तक बना हुआ है। एक अन्य पक्ष है कि अरब सागर में चीन की पहुंच और मध्य एशिया से चीन का संपर्क तथा हिंद महासागर में ‘स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स ट्रैप’ बिना पाकिस्तान के सहयोग के संभव नहीं है। भविष्य में ग्वादर चीन के लिए ‘की स्ट्रैटेजिक सेंटर’ बनने वाला है जहां से वह हिंद महासागर और मध्य एशिया के बीच रणनीतिक संतुलन बनाने में पाकिस्तान का भरपूर प्रयोग करने वाला है। स्वाभाविक है कि चीन पाकिस्तान के मुकाबले भारत के साथ खड़ा नहीं होगा।
      भारत को यही बात ध्यान में रखकर आगे की रणनीति निर्मित करनी चाहिए। ध्यान रखना होगा कि आखिर, चीन ने 2001 के बाद से पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों और चरमपंथी समूहों को यूएनएससी में सूचीबद्ध करने पर सहमति दर्ज क्यों कराई और आतंकी वित्त पोषण के लिए वित्तीय कार्रवाई टास्क फोर्स में ‘ग्रे सूची’ में पाकिस्तान को शामिल करने पर वह सहमत क्यों हुआ? ऐसा तो नहीं है कि चीन पाकिस्तान को लेकर सहयोग और दबाव की रणनीति पर काम कर रहा हो। भारत के पाकिस्तान के नाम पर सौदेबाजी करना चाहता हो। दूसरा पक्ष अमेरिकी सक्रियता संबंधी है। सवाल है कि अमेरिका यूएनएससी में प्रस्ताव लाकर अजहर लिस्ट को सार्वजनिक विषय बनाकर बहस क्यों करना चाहता है? क्या उसका मकसद चीन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बहस के जरिए शर्मसार करना है? अगर ऐसा है, तो क्या इस विषय पर भारत को अमेरिका का साथ देना चाहिए या फिर यह मानकर चलना चाहिए कि अजहर लिस्ट एक अनफिनिस्ड टास्क है, इसलिए भारत को इसे आगे बढ़ाते समय अमेरिकी कदमों में निहित चिंताओं और चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों की आवश्यकताओं के बीच संतुलन साधना होगा।
ध्यान रहे कि अभी ऐसा कोई संकेत नहीं है कि चीन इस विषय पर अपना रुख बदलने को तैयार है। इसलिए विशेषकर अमेरिका की तरफ से की जाने वाली जबरदस्ती या धमकी की स्थिति में वह पुन: लाए गए प्रस्ताव पर भी वीटो कर सकता है। हालांकि नई दिल्ली का नजरिया भी साफ हो गया है यानी वह अजहर लिस्ट पर चीन के साथ मिलकर धैर्य एवं दृढ़ता के साथ आगे बढ़ाना चाहती है, द्विपक्षीय संबंधों की बलि देकर नहीं। अजहर लिस्ट और क्रॉस-बॉर्डर टेररिज्म के मुद्दे पर अमेरिकी प्रयासों को यथाशक्ति समर्थन देना चाहिए लेकिन इस सावधानी के साथ कि यूएनएससी में चीन पर तात्कालिक जीत के लिए बहुत ज्यादा दांव पर न लगाया जाए बल्कि रीयल पॉलिटिक को पहचाना जाए।

रहीस सिंह


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