आम चुनाव : अटल जैसी जीत की उम्मीद
किसी नेता के खिलाफ सभी पार्टियों का एकजुट होकर खड़ा होना भारतीय राजनीति में नया तो नहीं है। जिस प्रकार से देश की लगभग सभी बड़ी पार्टियों ने मिलकर महागठबंधन बनाया है, वैसा 1971 और 2004 में हो चुका है।
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1971 में देश की कुछ बड़ी पार्टियों ने मिलकर इंदिरा गांधी के खिलाफ महागठबंधन बनाया, जो असफल रहा। इस महागठबंधन में कांग्रेस के इंदिरा गांधी खेमे से निकले मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में इंडियन नेशनल कांग्रेस (ओ), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जन संघ हिस्सा थे। 2004 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता आम जनता में चरम पर थी, कांग्रेस पार्टी ने चुनाव में जाने से पहले महागठबंधन की नीति अपनाई। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त विपक्ष नहीं बन सका। लेकिन कांग्रेस ने राज्य स्तर पर कई गठबंधन किए।
इसके आकलन में एक वजह जो मुख्य रूप से निकल कर आती है, वह है इस समय क्षेत्रीय पार्टियों के जनप्रिय नेताओं का साथ होना। 1971 के महागठबंधन में इंदिरा गांधी के सामने किसी बड़े चेहरे या कहें तो लोकप्रिय नेता का न होना गठबंधन के असफल होने की वजह बनी। और दूसरी वजह यह बनी कि इस गठबंधन को असफल करने के लिए इंदिरा गांधी ने क्षेत्रीय पार्टियों को अपने पाले में लिया, जो कि अंत में कांग्रेस (आर) की सरकार बनाने में मददगार रहा। अब बात आती है 2019 के महागठबंधन की। 1971 और 2004 के चुनाव की तरह ही किसी जनप्रिय नेता के खिलाफ पूरा विपक्ष एक महागठबंधन बना रहा है। देखने में यह ऐसा ही लग रहा है कि सभी विपक्षी पार्टियों ने मिलकर एक गठबंधन बना लिया है। यह गठबंधन भी बड़ा ही अजीब किस्म का है क्योंकि इसका कोई नेता तो दूर, संयोजक तक नहीं है। दर्जनों भर क्षेत्रीय पार्टियों से मिलकर बना यह महागठबंधन देखा जाए तो गठबंधन है ही नहीं। यह एक हाइब्रिड गठबंधन है जो कि चुनाव के बाद ही अपना असर दिखा पाएगा। यहां इस उम्मीद में कुछ पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं कि वह किंगमेकर बनेंगी और कुछ इस उम्मीद में कि वह खुद किंग बनेंगे, जिसमें अंत में ऊहापोह और हंगामा तो निश्चित ही है।
अगर 2004 और 2019 के चुनाव की तुलना की जाए तो सबसे पहला बिंदु निकल कर आता है, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी का जनता के बीच में लोकप्रिय होना, और भाजपा की तुलना में इन नेताओं का लगातार अधिक लोकप्रिय रहना। वाजपेयी 2004 का चुनाव ‘स्थिर और स्थायी’ सरकार के कार्ड पर लड़ रहे थे। लगभग यही स्थिति इस वक्त नरेन्द्र मोदी के साथ है। ‘अच्छे दिन’ के नारे से शुरू हुई नरेन्द्र मोदी की सरकार इस वक्त वाजपेयी सरकार की तरह ही ‘स्थायी और मजबूत’ सरकार का नारा दे रही है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या 2004 के चुनाव का परिणाम कांग्रेस फिर से दोहरा पाएगी? संभवत: नहीं। 2004 की तुलना में एक तो इस वक्त कोई पूर्ण रूप से गठबंधन नहीं है और दूसरा यह कि 2004 में कांग्रेस ने जिन पार्टियों के साथ गठबंधन किया था उसमें कुछ पार्टियों के पास बड़े चेहरे थे, जो अपने क्षेत्र में जनप्रिय थे और लोक सभा चुनाव को राष्ट्रीय तौर पर नहीं तो क्षेत्रीय तौर पर प्रभावित कर सकते थे। लेकिन इस वक्त पूरे विपक्ष में छोड़िये खुद कांग्रेस में कोई बड़ा और लोकप्रिय चेहरा नहीं है। प्रियंका गांधी के चेहरे पर कितना चुनाव लड़ा जा सकता है और यह कितना असर दिखायेगा, इसका जवाब आने में अभी समय लगेगा।
1971 और 2019 के चुनावी समीकरण की तुलना यहां ज्यादा सटीक बैठती है। इसकी कई वजह हैं। पहली यह कि 1971 के चुनाव की तरह ही यह चुनाव भी सिर्फ एक चेहरे पर लड़ा जा रहा है, फर्क बस इतना है कि तब इंदिरा गांधी थी और अब नरेन्द्र मोदी और यह दोनों ही चेहरे काफी जनप्रिय रहे हैं। दूसरी वजह है कि आने वाले चुनावों में 1971 के चुनाव की तरह ही गठबंधन तो है लेकिन कोई बड़ा और जनप्रिय चेहरा अभी भी नहीं है जो साफ़ दिखता है कि क्यों यह ‘गठबंधन’ एक बड़े चेहरे के न होने की वजह से हार का सामना कर सकता है। तीसरी और अंतिम वजह यह है कि इंदिरा गांधी की तरह ही मोदी क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों से गठजोड़ कर रहे हैं। अगर देखा जाए तो 2014 में मोदी लहर होने के बावजूद भाजपा ने 2009 के मुकाबले कम सीटों पर चुनाव लड़ा था। अगर भाजपा यहां भी अपने साथी पार्टियों को ज्यादा सीटें देकर चुनाव से पहले एक मजबूत गठबंधन की तरफ बढ़ती है तो भाजपा को इसका फायदा मिलना लाज़मी है। अब देखना यह है कि मोदी कौन से चुनाव की याद दिलवाएंगे। हार वाजपेयी वाली या इंदिरा वाली जीत।
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