मुद्दा : छली गई नदियां भी
अक्सर यह देखा गया है कि नदियों का इस्तेमाल राजनीतिक दल या राजनेता वोट हासिल करने के लिए करते हैं। उनकी मंशा हमेशा से सिर्फ-और सिर्फ वोट हासिल करने की होती है।
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नदियों की दुर्दशा पर किसी भी माननीय का ध्यान नहीं जाता है। चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों, गंगा परिक्रमा करने वाली कांग्रेस की नवनियुक्त महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा हों या दिग्विजय सिंह। मोदी इस मामले में इन दो नेताओं से थोड़ा आगे इस वजह से दिखते हैं क्योंकि इन्होंने गंगा की स्वच्छता को लेकर बजट और अभियान चलाकर बड़ा माहौल बनाया। मगर बाकी के नेता वैचारिक तौर पर कमजोर ही दिखे।
यह जिक्र इस नाते करना जरूरी बन गया क्योंकि प्रियंका गांधी ने भले कुछ दिनों पहले इलाहाबाद से वाराणसी की यात्रा बोट से की, मगर इनकी गंगा परिक्रमा में कहीं भी मां गंगा की दारुण स्थिति को लेकर दो बोल तक नहीं फूटे। वह भी तब जब कांग्रेस की नजर नदियों किनारे और नदियों के दम पर जीवन की नैय्या पार लगाने वाली जातियों पर थी। सौ बात की एक बात-जब नदियां नालों में तब्दील हो जाएंगी, तब पार्टियां राजनीति किसके लिए करेंगी? सो असली मसला नदियों की सफाई, शुद्धता और उसके पूर्ववत रूप और गुण को वापस लाने का है, जिस पर किसी की भी नजरे इनायत नहीं होती। सारी की सारी लीलाएं फकत वोट पाने के लिए की जा रही हैं। ऐसा कहने के पीछे कई वजहें हैं।
हर किसी ने नदियों को छला है और उसके बहाने उस जनता को ठगा है, जिनके जीवन का आधार ही नदियां हैं। मध्य प्रदेश बात करें तो मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी को जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी नदी का दरजा प्राप्त है। एक और खास बात यह भी कि इस नदी के किनारे अकेले मध्य प्रदेश की सौ से ज्यादा सीटें सीधे तौर पर जुड़ी हैं। जब पिछले साल मध्य प्रदेश के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह ने पार्टी से छह महीने की छुट्टी लेकर धर्मपत्नी के साथ 3200 किलोमीटर की धार्मिक यात्रा पर निकल पड़े। इस आशा में कि विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी का राजनीतिक बियाबान खत्म हो और वह सत्तासीन हो सके। हालांकि सिर्फ इस वजह से कांग्रेस मध्य प्रदेश में 15 साल बाद सत्ता में नहीं लौटी, इसकी और भी कई वजहें थीं।
मगर उसके बाद क्या दिग्विजय सिंह ने नर्मदा मैया की सुध ली? नर्मदा नदी की शुद्धता या गंदगी को लेकर कमलनाथ सरकार से कार्रवाई की गुजारिश की? जवाब है नहीं। इसलिए कि यह जल यात्रा उनकी धार्मिक और अराजनैतिक यात्रा होते हुए भी राजनीति के आसपास घूम रही थी। दिग्विजय सिंह, शिवराज सिंह चौहान की नर्मदा परिक्रमा और प्रियंका गांधी वाड्रा का गंगा में स्टीमर सहारे पार्टी की वैतरणी पार लगाने के अपने-अपने गुणा-गणित हैं। मगर नदियों का भारी प्रदूषण, खनन और गाद के चलते बर्बाद होती नदियों की टीस किसी को नहीं है? यह जनता से जुड़े बेहद संवेदनशील मसले हैं, मगर अफसोस प्रियंका ने इन्हें तवज्जो नहीं दी। वह गंगा में स्टीमर के जरिये यात्रा, संवाद, सवाल उठाने और पूजा-पाठ करने तक ही सीमित रहीं।
आश्चर्य की बात यह भी कि इलाहाबाद से आगे बढ़ने के क्रम में प्रियंका की गंगा परिक्रमा की कवरेज करने वाली मीडिया टीम का स्टीमर गाद की वजह से नदी में फंस गया। कम-से-कम इसी बहाने प्रियंका को गंगा के तिल-तिल कर मरने वाली मां गंगा के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करने चाहिए थे। अगर वह कराह रही गंगा को केंद्र में रखकर प्रधानमंत्री पर हमलावर होतीं तो बात ही कुछ और होती, किंतु ऐसा हो न सका; क्योंकि प्रियंका की चतुर सुजान निगाह केवल उन छोटी या अति पिछड़ी जातियों को अपने करीब दिखाना भर था। लिहाजा यह कहने में गुरेज नहीं कि नदियां सिर्फ वोट हासिल करने के हथियार भर हैं; वरना यह कैसे हो सकता कि सरकार को यह जानकारी ही नहीं हो कि उसकी सबसे महत्त्वाकांक्षी परियोजना (नमामि गंगे) के तहत 4 सालों में गंगा कितनी साफ हुई है? यह खुलासा सूचना का अधिकार (आरटीआई) के जरिए हुआ है।
गंगा सफाई के नाम पर अब तक 3800 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन सरकार को यह जानकारी ही नहीं है कि इतने पैसों से चलाई जा रही योजनाओं के जरिए गंगा के लिए कितना काम हुआ है और गंगा कहां और कितनी साफ हो पाई है? ‘नमामि गंगे’ के तहत सरकार ने गोमुख से गंगा सागर तक का जो हिस्सा कवर किया है, वहां काई, गाद और कूड़े के ढेर देखने को मिलेंगे। हालांकि गंगा को लेकर जरूर थोड़ी ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति’ दिखी है, मगर यह बात भी उतनी चुभने वाली है कि गंगा की सहायक नदियों का अतिक्रमण हुआ है। सफाई के नाम पर जितना खर्च हुआ है उसका फायदा कहीं दिख नहीं रहा है।
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