राजनीति : चुनावी नाव भी तो पार लगे

Last Updated 25 Mar 2019 06:55:40 AM IST

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की गंगा नदी में की गई तीन दिवसीय नाव यात्रा को मीडिया में जितनी सुर्खियां मिलीं, उसके आधार पर निष्कर्ष निकालें तो ऐसा लगेगा मानो पूरे क्षेत्र का राजनीतिक मानस उन्होंने बदल दिया है।


राजनीति : चुनावी नाव भी तो पार लगे

तीन दिनों तक टीवी चैनलों में सबसे ज्यादा समय इस एक कार्यक्रम ने लिया तो इसका ठोस असर भी होना चाहिए। कोई भी इस बहुविज्ञापित यात्रा के बाद वहां जाकर जमीनी हकीकत आसानी से समझ सकता है।

कहा गया कि गंगा यात्रा के दौरान प्रियंका समाज के उन समूहों से संपर्क करने में सफल हुई जो राजनीति में प्राय: उपेक्षित रहे हैं। विशेषकर केवट, निषाद जैसी जातियां। प्रियंका ने निर्धारित कार्यक्रमों के परे भी लोगों के बीच जाकर मिलतीं रहीं। प्रश्न है कि क्या इस बहुप्रचारित और अतिविज्ञापित यात्रा से ऐसे संदेश निकलें, जिनसे माना जाए कि प्रियंका वाकई उस क्षेत्र में और वहां के माध्यम से राज्य व देश के दूसरे भागों में कांग्रेस के संदर्भ में सकारात्मक संदेश देने में सफल रहीं?

इस यात्रा के माध्यम से चुनाव अभियान के कई उद्देश्य नजर आ रहे थे। राजनीतिक पार्टयिां चुनाव प्रचार के लिए कुछ नया करने की कोशिश कर रहीं हैं। 2013-14 में नरेन्द्र मोदी ने ऐसे कई नये प्रयोग किए थे। पिछले पांच सालों में हुए विधानसभा चुनावों में भी ऐसे प्रयोग हुए। नाव से गंगा यात्रा इसी कड़ी में कुछ नया करने की ही कोशिश थी। कांग्रेस को लगा कि नये किस्म की यात्रा लोगों के और मीडिया के लिए भी ज्यादा आकषर्ण का कारण बन सकता है। एक हद तक ऐसा हुआ भी। इस दौरान उनके कुछ वक्तव्य खास चर्चा में रहे। मसलन, भाजपा 70 साल की बात करना बंद करे..हर चीज की एक एक्सपायरी डेट होती है..उन्होंने पांच साल में क्या किया यह बताए..अपना हिसाब दे..चौकीदार तो अमीरों के होते हैं..राहुल को सत्ता का लोभ नहीं है, वो आपके लिए काम कर रहे हैं..मैंने जब देखा कि देश की हालत खराब हो रही है तो घर से निकली..अगर मोदी जी की 56 इंच की छाती है तो वायदे पूरे क्यों नहीं किए.. सरकार का रिपोर्ट कार्ड अच्छा है लेकिन जमीन पर कुछ नहीं दिखता..। विपक्षी नेता के तौर पर ये सब बातें अस्वाभाविक नहीं हैं।

परंतु इसमें ऐसा क्या है जिसे विशेष कहा जा सके? ये सब सामान्य बातें हैं। अगर वो कहतीं हैं कि 70 साल को एक्सपायर मान लीजिए तो उनको भी पं. नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी की चर्चा बंद कर देनी चाहिए। अगर आप चर्चा करेंगी तो फिर दूसरे भी अपने तरीके से करेंगे। पांच वर्ष का हिसाब देने में पिछली सरकारों से तुलना भी होगी। साफ लग रहा है कि 2014 में पराजय और 2017 विधानसभा चुनाव की दुर्दशा के बाद कांग्रेस को उत्तर प्रदेश को लेकर जितनी गहराई से अपनी नीति और रणनीति पर विचार कर योजना बनानी चाहिए वैसा नहीं हुआ। कांग्रेस तदर्थ नीति और रणनीति के तहत काम कर रही है। इस यात्रा का एक उद्देश्य भगवाधारी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और हिन्दुत्व का प्रतीक कहे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सामना करने के लिए स्वयं को निष्ठावान हिंदू साबित करना नजर आया। 

प्रयागराज में गंगा पूजा के बाद मिर्जापुर में मां विंध्यवासिनी का दर्शन पूजा, सीतामढ़ी में सीता समाहित स्थल की पूजा, भदोही में शीतला माता के दर्शन फिर बूढ़ेनाथ मंदिर में पूजा आदि का क्या उद्देश्य हो सकता है? मंगलवार को लाल साड़ी और विंध्याचल पूजा के बाद देवी की चुनरी ओढ़े, चंदन किए मीडिया के सामने आकर अपनी निष्ठावान हिंदू की छवि ही तो पेश कर रहीं थी। वस्तुत: यात्रा के दौरान जितना संभव हुआ वह छोटे-बड़े मंदिरों में गई। हालांकि इसके साथ उन्होंने ख्वाजा जनाब इस्माइल चिश्ती की दरगाह और दरगाह चुनार पर पर चादर भी चढ़ाई। तो हिंदुओं के लिए बिल्कुल धर्मनिष्ठ और मुसलमानों के लिए सेक्युलर का संदेश देने की कोशिश थी। इसके पूर्व जनेऊधारी ब्राह्मण हिंदू से शुरुआत कर राहुल गांधी मंदिर दर्शन, मानसरोवर यात्रा से गोत्र बताने एवं स्वयं को शिवभक्त कहने की एक लंबी दौर लगा चुके हैं। तीन राज्यों के चुनाव में सफलता भी मिली है। तो कांग्रेस को यह रणनीति सही लग रही है। किंतु क्या प्रियंका की हिंदूनिष्ठ छवि वाली नाव यात्रा वाकई उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी नाव पार कराने में सफल होगी?

प्रियंका की यात्रा में छह लोक सभा क्षेत्र आते हैं। इनमें से केवल वाराणसी में 2004 में कांग्रेस को विजय मिली थी। 1984 के बाद कोई सीट कांग्रेस नहीं जीत सकी है। वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी को उनकी यात्रा से कोई चुनौती मिल सकती है क्या? तो चुनाव प्रक्रिया आरंभ हो जाने के बीच इस तरह के कार्यक्रम का औचित्य क्या हो सकता है? ऐसी यात्रा थोड़ा कौतूहल अवश्य जगाती हैं। ये वोट में थोड़ा जुड़ाव कर सकती हैं, मूल वोट पैदा नहीं कर सकतीं। पार्टी का ठोस और प्रभावी जनाधार हो, सत्ता के खिलाफ  व्यापक जनअसंतोष हो, या सत्तासीन पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ किसी तरह का वातावरण हो, सत्तासीन घटक के विरु द्ध मतदान करने वालों के सामने एक ही विकल्प हों तो ऐसी यात्राएं योगदान कर सकतीं हैं। इनमें से कोई कारक लागू नहीं होता। केंद्र एवं प्रदेश की सत्ता के खिलाफ बड़ा असंतोष दिखता नहीं है। दूसरे, जब भाजपा विरोधी मतदाताओं के सामने बसपा, सपा और रालोद का सशक्त गठबंधन मौजूद है तो वो कांग्रेस को वोट क्यों देंगे?

कांग्रेस की त्रासदी है कि उसने 2014 के बाद अपना जनाधार बढ़ाने और पार्टी ईकाई को मजबूत करने पर फोकस किया ही नहीं। अगर उसका जनाधार होता तो बसपा सपा इस तरह उसको अपमानित नहीं करते। प्रियंका को उन क्षेत्रों में नौकाविहार कराया गया, जहां कांग्रेस के लिए कुछ दिख नहीं रहा। गैर जाटव और गैर यादव जाति को फोकस करने में समस्या नहीं है, पर उन जातियों का भी समीकरण भाजपा ने साधा हुआ है, जिसे तोड़ने के लिए नाव यात्रा अभियान अपर्याप्त है। वैसे भी प्रियंका ने अहमदबाद के कांग्रेस अधिवेशन में अपने करीब आठ मिनट के भाषण से अब तक जो कुछ बोला है, उससे यह साफ हो गया है कि पार्टी जिस ऐतिहासिक भूमिका की उम्मीद उनसे कर रही है उसके अनुरूप उनकी आंतरिक तैयारी न के बराबर है। जाहरि है, अपनी भूमिका के अनुरूप उन्हें पहले स्वयं को तैयार करना होगा।

अवधेश कुमार


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