पुण्यतिथि : यूं ही नहीं कोई बन जाता ‘विद्यार्थी’

Last Updated 25 Mar 2019 06:52:20 AM IST

गणेश शंकर विद्यार्थी का भारतीय पत्रकारिता में होना एक ऐसी कालजयी घटना थी, कि उसकी आभा से उपजे मायने आज भी उतने ही सजीव और प्रभावी हैं।


पुण्यतिथि : यूं ही नहीं कोई बन जाता ‘विद्यार्थी’

गणेशजी के न रह जाने के 88 बरस बाद भी आज ऐसा लगता है, कि मानों पत्रकारों और पत्रकारिता में समसामयिक सुधार के लिए हमें उनकी कार्यशालाओं की जरूरत है। ऐसे में ये स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी समय की सीमाओं से परे आज भी हमारे लिए कितने जरूरी हैं और हम उनके कितने अधिक जरूरतमंद? हालांकि ये बात अलग है कि 88 बरस पहले वो 25 मार्च, 1931 को कानपुर में हुए सांप्रदायिक दंगे के चलते काल के गाल में समा गए, लेकिन उनकी शहादत ने जो अमरता हासिल की है, उससे युगों-युगों तक खासतौर पर हिंदी पत्रकारिता को संजीवनी मिलती रहेगी।

समझने वाली बात यह है, कि हिंदी पत्रकारिता की स्पष्टवादिता और निडरता के जो पैमाने गणेशजी ने गढ़े थे, उसके अंश मात्र को आज के संपादकों का छू पाना निपट सपना है, कइयों के लिए तो ये सपना भी मयस्सर नहीं है। इसका सबसे ताजा उदाहरण हमें बीते हफ्ते नई दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में हुए एक सेमिनार में स्पष्ट रूप से देखने को मिला जिसका विषय था- ‘हिन्दी पत्रकारिता का क्या यह दब्बू युग है?’ इस आयोजन में एक प्रगतिशील न्यूज एंकर ने हिंदी के कई चर्चित अखबारों की बखिया उधेड़ते हुए ये आरोप लगाया कि बिना रिपोर्टरों के मनगढंत ढंग से खबरों की तिजारत का माहौल हिंदी पत्रकारिता में धड़ल्ले से चल रहा है। इसके अलावा इसी मंच पर बतौर वक्ता पधारे एक ख्यातिलब्ध लेखक ने पहले तो मीडिया को दुत्कारा और फिर उसे याद दिलाया कि मीडिया और साहित्य कभी सहचर हुआ करते थे और आज के पत्रकारों को पढ़ने की आदत भी नहीं है।

इन संदर्भों से ये समझ में आता है, कि जहां गणेश जी ने भारतवर्ष में स्पष्टवादिता और निडरता की पत्रकारिता के बीज बोए थे, उसके बरक्स अब कहीं-न-कहीं पत्रकारिता का दब्बूपन या कहें कि कायरता वाला दौर चल पड़ा है। तभी तो ऐसे विषयों पर संगोष्ठियों की जरूरत पड़ती है। बहरहाल, विद्यार्थी जी के बारे में बड़ा स्पष्ट है कि उनको साहित्य में बड़ा रस मिलता था। 40 की उम्र में स्वर्गवास के 3-4 मास पहले जबकि वह हरदोई जेल में थे, उन्होंने बर्नार्ड-शॉ, अपटन, सिन्क्लेयर आदि विदेशी लेखकों की अनेक पुस्तकें एवं श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय का ‘प्रिय प्रवास’ मांगकर पढ़ा था। जेल में उन्होंने खूब अध्ययन किया, सैकड़ों पुस्तकें पढ़ डालीं। शेली, स्टुअर्ड मिल, स्पेन्शर, रूसो, मोपासां, रस्किन, कारलाइस, टॉलस्टाय, थोरो, शेक्सपीयर, टेनीसन, ब्राउनिंग, आनातोले फ्रांसिस, बालजक और एचजी वेल्स आदि विदेश के सभी प्रमुख राजनीतिक और साहित्य के लेखकों की पुस्तकें उन्होंने पढ़ी थीं और जो नई निकलती थी, मंगाकर पढ़ते थे। दुखद है कि ज्यादातर मीडिया हाउसेज को अन्य संसाधनों की तुलना में एक अदद औसत लाइब्रेरी की जरूरत भी नहीं सूझती।

हालांकि कुछ पत्रकार और संपादक इसके अपवाद जरूर होंगे। आज जब हम गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रृद्धांजलि दे रहे हैं, तब हमें उनकी शहादत को भी जरूर स्मरण कर लेना चाहिए, कि कैसे 1931-32 के राजनैतिक संकट के समय उन्होंने परहित और शांति की कामना के लिए प्रयास करते हुए प्राण न्योछावर कर दिए। इस खबर से संपूर्ण देश के सक्रिय क्रांतिकारियों में कोलाहल मच गया था। लेकिन आज आलम यह है कि कुछ संपादक इतने निर्वेद में जीते हैं कि उन्हें संवेदना मशीनी उत्पाद सी लगने लगी है। इसका परिणाम पत्रकारिता पर स्याह किन्तु परिलक्षित होता है। यद्यपि विद्यार्थी जी पत्रकार के दायित्व को भलीभांति अनुभव करते थे और निभाते भी थे। किसानों, मजदूरों, देश की गरीब जनता के आर्तनाद ने उन्हें अपनी ओर चुंबक की तरह खींच लिया था। अंग्रेजों की नौकरशाही के विरुद्ध आवाज बुलंद करने के लिए वे आजीवन कमर कसे रहे।

उन दिनों वे पत्रकारिता के भविष्य से इतने व्यथित थे कि उन्होंने कहा- ‘इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन ही से वे निकलते हैं। धन ही के आधार पर चलते हैं और बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना करते हैं। अभी यहां पूरा अंधकार भी नहीं हुआ है, किन्तु लक्षण वैसे ही हैं। कुछ ही दिन पश्चात यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जाएंगे और उनमें काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे। व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा, अन्याय के विरु द्ध डट जाने और न्याय के लिए आदतों को भुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल खींची हुई लकीर पर चलना।

अमित राजपूत


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment