मीडिया : चोर ओैर चौकीदार

Last Updated 24 Mar 2019 06:55:50 AM IST

‘चौकीदार चोर है’और उसके जवाब में अब आया ‘मैं भी चौकीदार हूं’-मीडिया द्वारा सबसे अधिक बजाए गए मुहावरे हैं।


मीडिया : चोर ओैर चौकीदार

इनको लेकर सोशल मीडिया पर अनगिनतन चुटकुले और मजाक बने हैं, और उन सबने  मिलकर  समकालीन राजनीति  के शब्द-समर में मनोरंजन के नये-नये क्षण पैदा किए हैं। पहले मीडिया में एक ही ‘सेवक’ नजर आते थे। फिर सेवक चौकीदार हो गए। बहुत दिनों तक सेवक और चौकीदार पर्याय की तरह बजते रहे। तब तक राफेल चरचा में आ गया। उसके बाद विपक्ष का ध्यान  ‘चौकीदार’ शब्द की ओर गया और राहुल-सृजित ‘चौकीदार चोर है’ जैसा मनोरंजक मुहावरा मीडिया ने  लपक लिया।
राफेल डील की बात जितनी छिपाई गई उतनी ही जिज्ञासा बढ़ी कि अंदर की बात क्या है? और   देखते-देखते ‘चौकीदार चोर है’ जैसा मारक मुहावरा हिट हो गया। राहुल जहां जाते ‘चोरी’ के बारे में बताते और कहते कि ‘चौकीदार चोर है’ और लेग ताली बजाने लगते और फिर तो हाल यह हो गया कि इधर राहुल बोलते ‘चौकीदार’ और उधर से आवाज आती ‘चोर है’! यह पुराने पॉपुलर मुहावरे ‘गली-गली में चोर है, कांग्रेस नेता चोर हैं’ का कांगेसी-जवाब था। इसमें व्यंग्य था। यह चिपकता था। इससे पहले उनके भाषण जनता से कनेक्ट नहीं करते थे। चुनाव के दिनों में इसकी काट जरूरी हो गई और कहा जाने लगा कि ‘क्योंकि चौकीदार चौकन्ना है, इसलिए चोर डरते हैं..ये चौकीदार उनको छोड़ने वाला नहीं है, लेकिन ‘चौकीदार चोर है’ की चोट कसकती रही।

इसके आगे ‘मैं भी चौकीदार हूं’ वाली मीडिया-मुहिम चलाई गई। भाजपा के नेता अपने ट्विटर हैंडल पर अपने नाम के आगे चौकीदार लिखने लगे और देखते-देखते ‘मैं भी चौकीदार हूं’ की आक्रामक मुहिम के आगे ‘चौकीदार चोर है’ की हवा निकलती दिखी। टीवी की एक बहस में एक सेक्युलर पत्रकार तक ने कह दिया कि अब ‘गाली देना’ बंद करना चाहिए यानी ‘चौकीदार चोर है’ कहना बंद कर देना चाहिए। जब बालाकोट हो गया तो देश की ‘सुरक्षा’ के आइडिया ने जोर पकड़ा और सुरक्षा के तर्क मीडिया में इस तरह चलने लगे : राष्ट्रीय सुरक्षा जरूरी। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक मजबूत राष्ट्र जरूरी और इसके लिए ‘मजबूर सरकार’ की जगह ‘मजबूत सरकार’ जरूरी और मजबूत सरकार के लिए मजबूत नेता जरूरी।
‘मैं भी चौकीदार हूं’ इसी क्रम में फिट हुआ और देखते-देखते ‘चौकीदार चोर है’ मीडिया के ‘फोकस’ से बाहर हो गया। यह एक मुहावरे से दूसरे मुहावरे की सर्जिकल स्ट्राइक करने जैसा रहा। यह भाजपा के आकामक प्रचार से मेल खाता लगा। ‘चौकीदार चोर है’ के जवाब में ‘मैं भी चौकीदार हूं’ आक्रामक रूपक बना। ‘चौकीदार चोर है’-शिकायती वाक्य रहा जबकि ‘मैं भी चौकीदार हूं’ प्रत्याक्रमणकारी वाक्य रहा जो चौकीदार के सीमित अर्थ को असीम कर उसमें ‘अर्थव्याप्ति’ पैदा करता था। इस मुहावरे के जरिए चौकीदार शब्द का आदर्शीकरण किया गया। इस आदर्शीकरण में ‘सचमुच के चौकीदारों’ की तकलीफों की सुनवाई की कोई जगह नहीं दिखती। उनके सेवा भाव का आदर्शीकरण किया जाता है, लेकिन उनकी तकलीफों  को फील तक नहीं किया जाता। समकालीन राजनीति के इस रूपक-युद्ध की समस्या ही यह है कि न तो ‘चौकीदार चोर है’ कहने वाले को असली चौकीदार से मतलब है न ‘मैं भी चौकीदार हूं’ कहने वालों को। 
लेकिन‘चौकीदार’ और ‘चोर’ के रूपक और प्रतिरूपक गढ़ने वाले ये नहीं समझ सके कि हर रूपक की कुछ अंदरूनी बंदिशें और कैदें होती हैं, और वे पलटवार भी करते हैं, जिनके बारे में उनका इस्तेमाल करने वाले नहीं जानते और इसीलिए हर रूपकबाज उनकी कैद में फंस जाता है। इस रूपक का डकिंस्ट्रक्शन करके ही ‘चौकीदार चोर है’ या ‘मैं भी चौकीदार हूं’ के  रूपक-प्रतिरूपक की अंदरूनी  गांठ को खोला जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि ‘चौकीदार चोर है’ तो चौकीदार का क्या भरोसा? और अगर ‘सब चौकीदार हैं’ तो फिर उनके बीच कोई चोर कैसे हो सकता है? यानी चौकीदार के रहते चोर नहीं हो सकता। अगर चोर है तो चौकीदार भी जरूरी है, और अगर चौकीदार है, तो चेर भी जरूर है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इस तरह ‘चौकीदार’ को हमेशा एक चोर चाहिए और चोर को हमेशा चौकीदार।
इस तर्क से ‘चोर’ और ‘चौकीदार’ दोनों एक दूसरे के लिए जरूरी हो उठते हैं। एक के लिए चौकीदार ही चोर है, दूसरे के लिए चोर ही चौकीदार है। अगर ऐसा है तो ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ की बात करना अपने आप में शुद्ध ‘लफ्फाजी’ है।

सुधीश पचौरी


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