मूल्यांकन : आडवाणी का मान टिकट से न नापें

Last Updated 24 Mar 2019 07:00:59 AM IST

लालकृष्ण आडवाणी का राजनीति से संन्यास लेना भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में एक युग का समाप्त होना है, क्योंकि उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।


मूल्यांकन : आडवाणी का मान टिकट से न नापें

भाजपा का अचानक इतना विस्तार हुआ कि नए लोगों को जिम्मेवारी देने के लिए पुनर्गठन की आवश्यकता पैदा हो गई थी। लेकिन  व्यावहारिक स्तर पर तो वे कई साल पहले राजनीति से किनारा कर चुके थे। तब से वे एक वरिठ सलाहकार की ही भूमिका  में थे। इसलिए उनका अहमदाबाद से इस बार चुनाव न लड़ने का फैसला वास्तविकता को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करना ही है। भाजपा के जन्म से ही दल को एक विकट दलदल से निकालने में लाल कृष्ण आडवाणी का योगदान अटल बिहारी वाजपेयी से कम नहीं रहा है। आपातकाल के पश्चात जनसंघ के जनता पार्टी में विलय और उससे पैदा होने वाली उठापटक और आरोप-प्रत्यारोप के बीच से दल का साबूत निकलकर आना आसान काम नहीं था। उस दौर में आडवाणी अटल बिहारी वाजपेयी के सारथी के रूप में ही सामने आए थे। भाजपा को अलग पहचान दिलाने में जितनी भूमिका अटल जी की रही थी, उतनी ही आडवाणी जी की मानी जानी चाहिए ।

दोनों नेता अलग स्वभाव के थे, एक मनमौजी तो दूसरा गंभीर और संयत, लेकिन यही भिन्नता उनकी चिरस्थाई मित्रता का रहस्य भी था। जहां अटल जी जल्दबाजी कर सकते थे, वहां आडवाणी उन्हें सावधान करते। लेकिन हैरानी की बात है कि जीवन के अंतिम चरण में आडवाणी का वह सतर्कता वाले कवच अभेध्य नहीं रहा, वे उस विशेषता को खोने लगे और न तो उतने सक्रिय रहे और न ही उतने सतर्क जितनी कि भाजपा के लाखों कार्यकर्ताओं को बांधने के लिए आवश्यक थी। लगता है कि अटल जी के बीमार होने के पशचात वे असहज से महसूस करने लगे थे, पार्टी में यह असहजता अकेलेपन का भाव भी पैदा करने लगी। ऐसे माहौल में पाकिस्तान की वह घटना हो गई, जिसके कारण एक ऐसी गलतफहमी पैदा हो गई कि आडवाणी ने पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया। दरअसल, उन्होंने स्वतंत्रता के पशचात दिये गए जिन्ना  के भाषण का ही उल्लेख किया था, जिसमें उन्होंने अपने देशवासियों से कहा था कि अब हिंदू-मुसलमान का भेद भुला कर आपसी सहमति के साथ रहें। ये बातें आडवाणी ने एक प्राचीन मंदिर के सुधार के संदर्भ में कही थीं। तथ्यात्मक रूप में इस कथन में कोई भूल भले न रही हो, लेकिन समय और परिस्थिति के कारण से इसका गलत अर्थ निकल सकता था। वही हुआ। आडवाणी को पसंद न करने वालों ने इसका अतिरंजित उपयोग किया जैसे कि आडवाणी अचानक पाक-परस्त बन गए थे। कहा यह भी गया कि भाजपा के अंदरुनी हलकों में इस बात भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री की दावेदारी में आड़े आ गई। हालांकि भाजपा ने उन्हें एक चुनाव में इसका मौका देते हुए कमान उन्हें सौंपी भी थी। अगर वह तब जीत गए होते तो प्रधानमंत्री भी बन सकते थे। पर यह नहीं होना था, समय ने यही साबित किया।
 जिन्ना प्रकरण के बाद भी अक्सर यह कहा जाता रहा है कि आडवाणी को भाजपा ने जानबूझ कर आगे आने नहीं दिया और उन्हें उस नेतृत्व से वंचित कर दिया जिसके वे स्वाभाविक तौर पर हकदार थे। सवाल उठता है कि किसने उन्हें ऐतिहासिक अवसर से वंचित किया! भाजपा कांग्रेस की तरह कोई खानदानी दल नहीं है, जिसका आदेश दल में चलता हो। किसी भी राजनैतिक दल में सर्वोच्च नेता के पद पर किसी को थोपा नहीं जा सकता है, थोपा हुआ नेतृत्व बहुत समय तक नहीं चल सकता। आधुनिक लोकशाही में नेतृत्व पहले कार्यकर्ता फिर आम जनता में लोकप्रियता के आधार पर ही विकसित हो सकता है। या तो नेता लोक के मानस को अपने अनुकूल बनाता है या लोक के अनुकूल स्वयं बन जाता है। पहले प्रकार के नेता चिरस्थाई होते हैं और दूसरे तरह का नेतृत्व सामयिक लहरों पर सवार हो कर स्थापित होता है। लेकिन अक्सर राजनीतिक नेतृत्व के विकास में दोनों बातें काम करती हैं। नरेन्द्र मोदी कुछ तो अपने व्यक्तित्व के कारण और कुछ देश के वातावरण से पैदा हुई मांग के कारण छा गए। न उन्हें कोई अहमदाबाद से उठा कर दिल्ली में स्थापित कर सकता था और न ही कोई दिल्ली आने से रोक सकता था।
लालकृष्ण आडवाणी ने कई दशक के योगदान में जो कुछ अपनी पार्टी को और अपने देश को दिया, उसे उनको कुछ कथित गलतियों के कारण नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन यह भी नहीं भूला जा सकता है कि हर काम में उमर की एक भूमिका होती ही है और यह केवल आडवाणी के बारे में ही सच नहीं है, हर लोकप्रिय नेता के बारे में भी सच है। कहें तो यह बात मानव जीवन की प्रकृति पर लागू होती है। इसलिए भी हमारे देश में समाज के संचालन के लिए व्यक्ति के वय के मुताबिक आश्रमों की जो व्यवस्था बनाई थी, उसमें संन्यास और वानप्रस्थ आश्रमों के माध्यमों से यही समझाने का प्रयास किया गया था कि उमर के हर पड़ाव पर मनुष्य की भूमिका बदल जाती है। हालांकि बदले हुए हालात में, बदली भूमिका में भी उसका महत्त्व कम नहीं होता है। आडवाणी अहमदाबाद से कई बार चुने जा चुके हैं और यह उम्मीद है कि वे अगर फिर से खड़े हो जाएं तो फिर चुने जाएंगे। लेकिन इस उमर में दिल्ली बैठ कर गुजरात के चुनाव क्षेत्र का ध्यान रखना आसान नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शायद इसी बात को ध्यान में रख कर यह चाहा था कि सत्तर साल से अधिक आयु के व्यक्ति को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। संभवतया आज के हालात में शायद यह नियम एकदम लागू नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस नियम के पीछे भाव तो यही रहा होगा कि नेतृत्वकर्ता की उमर और हालात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
भाजपा को अगर विकासमान रहना है तो अपने कार्यकर्ताओं के लिए एक अनुशासन बनाना होगा, जिसमें आनेवाली पीढ़ी के लिए आगे का रास्ता बंद रहे।
हर पांच साल के बाद देश की राजनीति में युवकों की एक नई पौध आएगी और राजनितिक दलों के दरवाजों को खटखटाना आरम्भ करेंगी। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहेगी। यदि राजनैतिक दलों को लम्बी दूरी तक सक्रिय रहना है तो कार्यकर्ताओं के नीचे से ऊपर जाने की प्रक्रिया को अपनाना ही होगा। वरन हर बार यही शिकायतें उठती रहेंगी कि बुजुर्गों को सम्मान नहीं दिया जा रहा है और सम्मान को वे लोक सभा या विधान सभा के टिकट से ही तराजू से नापेंगे। आडवाणी के इस प्रसंग में ही यह कहना आवश्यक होगा कि हमारे राजनैतिक दलों में अभी भी वास्तविक लोकतंत्र का अभाव है। दल और सरकार के बीच रिश्ते आज भी स्पष्ट नहीं है। संगठन वास्तव में जनता का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन हमारी व्यवस्था में सत्ता केवल सरकार ही होती है। अगर संगठन में जनता की सही आवाज परिलक्षित हो तो यही पर उन वयोवृद्ध नेताओं के अनुभव का सही उपयोग होगा। कुछ लोगों की शिकायत है, आडवाणी को परामर्शदात्री परिषद का सदस्य बनाने के बाद भी भाजपा ने उनका कोई विशेष उपयोग नहीं किया। ऐसा कोई अवसर किसी को नहीं दिखा, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी वरिष्ठता या अनुभवी पकी दृष्टि का कोई उपयोग किया हो। कहने वाले तो दावे से कहते हैं कि ऐसा एक भी अवसर नहीं मिला, जिससे कि इसकी पुष्टि होती है। अलबत्ता, नरेन्द्र मोदी के अभिवादन की फोटो सार्वजनिक की जाती रही है, जिसके फ्रेम के रेशे-रेशे से सम्मान दमकता लगता था। लेकिन त्रिपुरा में शपथग्रहण समारोह का एक चित्र भी लोगों के जेहन में है। तो इस व्यवहार का भी वही कारण है कि संगठन अब भी एक गैर सरकारी नौकरशाही की तरह ही है, जिसका काम वास्तविक में सलाह कम देना है और अधिक सुनना है। आडवाणी के बहाने अगर दल और सरकार के बीच के संबंधों में तालमेल पैदा हो जाए तो यह एक सार्थक कदम होगा।

जवाहरलाल कौल


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