वैश्विकी : दोहरी चुनौती के मुहाने

Last Updated 24 Mar 2019 06:52:54 AM IST

घरेलू राजनीति और विदेश नीति का देश के आम चुनाव पर इससे अधिक शायद ही पहले कभी देखा गया हो।




वैश्विकी : दोहरी चुनौती के मुहाने

पुलवामा हमले और उसके बाद बालाकोट एयर-स्ट्राइक भारत-पाकिस्तान के बीच केवल छिट-पुट संघर्ष नहीं था, बल्कि बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ने की स्थिति पैदा हो गई थी। अमेरिका, सऊदी अरब, रूस और चीन की ओर से पाकिस्तान पर डाले गए भारी दबाव का ही नतीजा था कि युद्ध का खतरा भले ही टल गया, लेकिन भारत और पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंध पटरी से पूरी तरह उतर गए। इस बीच, भारत में आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष का पूरा ध्यान चुनाव गतिविधियों में लग गया।
पुलवामा हमले के बाद पंजाब के सिख यात्रियों के लिए पाकिस्तान स्थित करतारपुर साहिब जाने के लिए प्रस्तावित कॉरिडोर की वार्ता पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार संपन्न हुई। बेशक, यह मोदी सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। साथ ही, इससे यह साबित होता है कि दोनों देशों के बीच जो भौगोलिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध सूत्र हैं, उन्हें तोड़ा नहीं जा सकता। पाकिस्तान दिवस के अवसर पर भी ऐसा ही देखने को मिला। दोनों देशों ने जहां एक ओर सद्भावना प्रदर्शित की वहीं आपसी वैमनस्य भी दिखाई दिया। भारत ने नई दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग द्वारा आयोजित स्वागत समारोह का विरोध किया और बीते शनिवार को इस्लामाबाद में आयोजित रस्मी परेड में भाग लेने के लिए किसी राजनयिक को नहीं भेजा। कहना न होगा कि भारत की ओर से बहिष्कार की यह कार्रवाई असामान्य थी। तनाव और तल्खी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान दिवस पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को भेजे शुभकामना संदेश में आतंकवाद और हिंसा से मुक्त माहौल में दोनों देशों में शांति, समृद्धि और खुशहाली की कामना की। जवाब में इमरान खान ने अपना आभार जताने के साथ ही कश्मीर का राग अलापा। उन्होंने कश्मीर को द्विपक्षीय संबंधों में केंद्रीय मुद्दा बताया लेकिन हिंसा और आतंकी वारदात के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया। जाहिर है कि इमरान खान पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई की ओर से लिखी गई इबारत ही दोहरा रहे थे।

लोक सभा चुनाव संपन्न होने के बाद नई सरकार द्विपक्षीय संबंधों पर ठंडे दिल दिमाग से विचार कर सकती है। चुनाव से पहले के राजनीतिक दबाव से राजनीतिक नेतृत्व मुक्त रहेगा और ऐसे में कुछ कठिन फैसले कर सकेगा। संयोग से रूस और चीन के प्रभुत्व वाले शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक जून में आयोजित होने जा रही है। इसमें प्रधानमंत्री मोदी और इमरान खान सहित विभिन्न सदस्य देशों के शीर्ष नेता भाग लेंगे। नरेन्द्र मोदी यदि दोबारा सत्ता में आते हैं, तो उनके लिए इमरान से मिलने और द्विपक्षीय संबंधों को फिर से पटरी पर लाने का वह एक अवसर होगा। गौरतलब है कि भारत की तरह ही एससीओ का भी आतंकवाद को लेकर कड़ा रुख है। इस संगठन के सदस्य देशों के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वे आतंकवाद, उग्रवाद और अलगाववाद को किसी तरह का समर्थन न दें।
आतंकवाद के खिलाफ एससीओ का अपना एक तंत्र है। भारत इस तंत्र को सक्रिय बनाने के लिए रूस और चीन के साथ मिलकर काम कर सकता है। वास्तव में यह संगठन आतंकवाद के बारे में भारत की चिंताओं को दूर करने का प्रभावी मंच साबित हो सकता है। चूंकि द्विपक्षीय मामलों से यह संगठन अपने आपको अगल रखता है, इसलिए भारत-पाकिस्तान के आपसी हितों को सामान्य बनाने में इसकी कोई सीधी भूमिका नहीं है, लेकिन इस संगठन में इन दोनों देशों की भागीदारी और इसके तहत संयुक्त सैनिक अभ्यास तथा आतंकवाद विरोधी संघर्ष भविष्य में द्विपक्षीय वार्ता का आधार बन सकता है। दोबारा जनादेश हासिल करने की स्थिति में नरेन्द्र मोदी में आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति प्रकट करने का अवसर होगा।
गौरतलब है कि भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद के मुद्दे द्विपक्षीय अवश्य हैं, लेकिन युद्ध के हालात इन्हें अंतरराष्ट्रीय आयाम देते हैं। पिछले महीने का घटनाक्रम इस बात को साबित करता है। भारत के लिए आने वाले दिनों में दोहरी चुनौती है। एक ओर इसे अपनी रक्षा तैयारियों को अपराजेय बनाना है, वहीं अपनी कूटनीति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अति सक्रिय करना है, ताकि अपने पक्ष में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को एकजुट किया जा सके।

डॉ. दिलीप चौबे


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