आम चुनाव : खर्च का रिकार्ड बनेगा

Last Updated 19 Mar 2019 06:56:15 AM IST

चुनाव में सबसे ज्यादा ‘काला धन’ दान के रूप में व्यवहार में आता है। इस बार भी ऐसा ही है। 17वीं लोक सभा का चुनावी दंगल हिंदुस्तानी लोकतंत्र के इतिहास का ही नहीं, बल्कि विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास का भी सबसे खर्चीला चुनाव होने जा रहा है।


आम चुनाव : खर्च का रिकार्ड बनेगा

अनुमान है कि इस चुनाव में करीब 55 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे। ऐसा हुआ तो यह खर्च मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा। अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव में प्रचार पर कुल 650 करोड़ अमेरिकी डॉलर खर्च हुए थे, यानी 46 हजार करोड़ रुपये। इसकी तुलना में हमारे यहां पिछली लोक सभा चुनाव में पांच करोड़ अमेरिकी डॉलर यानी पैंतीस हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे।
अब राजनीतिक दलों का एक ही मकसद होता है, किसी सूरत में चुनाव जीतना। वामदलों को अपवाद मानें तो राज्य और केंद्र का प्रत्येक दल चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाता है। इसलिए इलेक्शन का खर्चीला होना देश का सबसे चिंतनीय मुद्दा बन गया है। इसे सभी राजनीतिक दल भी स्वीकारते हैं। लेकिन जब खर्च पर नियंत्रण और पारदर्शिता की बात उठती है तो सभी दल बगले झांकने लगते हैं। कोई भी खर्च का सही ब्योरा चुनाव आयोग को नहीं देता। चुनावों में खर्च को लेकर पारदर्शिता की मांग काफी समय से उठ रही है, लेकिन इसके लिए राजनीतिक दल तैयार नहीं हैं। सूचना के अधिकार कानून के तहत लोग जब चुनाव आयोग से चुनावी खर्च का हिसाब मांगते हैं तो उसके पास भी सही-सही ब्योरा नहीं होता। वैसे देश में हर वक्त चुनाव होते ही रहते हैं, पंचायत से लेकर लोक सभा तक के चुनाव में प्रतिवर्ष अरबों-खरबों का धन खर्च किया जाता है। अगर इसमें उम्मीदवारों द्वारा किये जाने वाले भारी-भरकम निजी खर्च की राशि को जोड़ें तो वह सब मिलाकर लगभग एक पंचवर्षीय योजना की कुल राशि के बराबर हो जाती है।

चुनावी खचरे पर आकलन करने वाली अमेरिकी कंपनी ‘कारनीज एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस थिंक टैंक’ की ताजा रिपोर्ट का दावा है कि भारत के इस आम चुनाव में खर्च के सभी पूर्व रिकॉर्ड धराशायी हो जाएंगे। खर्च का जो मोटा आकलन लगाया है, उसके मुताबिक मौजूदा मनरेगा और किसान सम्मान निधि के बजट क्रमश: 60 हजार करोड़ व 35 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा रकम 17वीं लोक सभा चुनाव में भारत के सियासी सभी दल खर्च करने वाले हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने चुनावी बांड की व्यवस्था तो की है, लेकिन चुनाव में जीतने की लालसा में उसका पालन कहां हो पाता है।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का सव्रे बताता है कि इस बार चुनाव में सभी दलों करीब 30 हजार करोड़ रुपये का बजट अखबार, टीवी, सोशल मीडिया पर खर्च करेंगे। आखिर इतना पैसा आता कहां से है! पैसों के आने जरिया क्या है? दरअसल, यह धन रसूख वाले लोगों द्वारा दिया चंदा में दिया गया धन होता है, जिसका हिसाब लिखित तौर पर नहीं होता है। यह धन गुपचुप तरीके से आता है। ज्यादातर दानदाता ऐसे होते हैं, जो अपनी पहचान जाहिर नहीं करते। इसलिए खर्च का वास्तविक आंकड़ा जुटा पाना बहुत कठिन है। जाहिर है कि दान का धन ही काला धन के रूप में देश की अर्थव्यवस्था में शामिल हो जाता है। हुकूमत बनने के बाद वही दानदाता किसी न किसी रूप में बाद में वसूल करते हैं।
मौजूदा सियासत धन-बल पर टिकी है। बिना पैसे की सियासत अब कोई नहीं कर सकता। ग्राम प्रधान के चुनाव तक में अधिकतर उम्मीदवार एक-एक करोड़ खर्चा करते हैं। निगम पाषर्द और विधायक पद के चुनाव में तीन से 15 करोड़ तक खर्च किए जाते हैं। इन खचरें के बाद भला कोई ईमानदार उम्मीदवार कैसे सस्ते चुनाव लड़ने की उम्मीद कर सकता है! आज तो राज्य सभा का सदस्य बनने के लिए प्रत्याशी सौ-दो सौ करोड़ तक खर्चा कर देते हैं तो ऐसे देश में सियासत में ईमानदारी ढूंढ़ना मुश्किल हो गया है। एक जमाना था, जब सीमित संसाधनों से भी चुनाव जीत जाते थे। तब चुनाव जीतने के बाद उम्मीदवारों का मुख्य उद्देश्य जनसेवा होता था। लेकिन अब सियासत अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और प्रभाव बढ़ाने के लिए ही की जाती है। चुनाव जीतने के बाद उम्मीदवार सबसे पहले चुनाव पर हुए खर्च की वसूली करता है। उसके बाद ही जनसेवा की सोचता है। दरअसल, यहीं से ही राजनीति के कलुषित होने की शुरुआत हो जाती है। चुनाव सुधारों को लेकर नए सिरे से गंभीरता से विचार करना होगा। चुनाव के वक्त रसूख वालों द्वारा दिए जाने वाले चंदे पर आयोग को पैनी नजर रखनी होगी, क्योंकि यही धन सही मायनों में काला धन होता है।

रमेश ठाकुर


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment