मीडिया : एक आक्रोश को बनाते हुए

Last Updated 17 Feb 2019 07:27:23 AM IST

बदला बदला बदला..हर चैनल पर बदले की मांग हो रही है। एंकर उन सबसे नाराज होने उठते हैं जो जरा सी भी नरमी की बात करते हैं। शोक, गुस्से और बदले की स्पर्धा है।


मीडिया : एक आक्रोश को बनाते हुए

एक चैनल जोशीला शीषर्क लगाता है : आतंक का अंत तुरंत! आतंक न हुआ सिर दर्द हुआ। एक चैनल पर एक नेता कह जाता है : पाकिस्तान के चार टुकड़े होने चाहिए! मसूद की मौत मांग रहा है देश। बदला बदला बदला बदला।
हम न भूलेंगे न माफ करेंगे। एक चैनल लाइन लगाता है : पाकिस्तान का खेल खत्म कीजिए। एक बार फिर हिंदी चैनलों से उसी तरह की वीरता बरस रही है, जिस तरह की उरी के हमले के बाद बरसी थी। उरी के बाद सर्जिकल स्टाइक की गई थी, इस बार क्या सर्जिकल टू की जाएगी? एक चैनल पूछता है कि कब की जाएगी सर्जिकल टू। देश मांगता है सर्जिकल टू।
सैंतीस जवानों के शवों को लेकर आने वाले ताबूत तिरंगे में लिपटे आ रहे हैं। राजनाथ सिंह एक ताबूत को कंधा देते हैं। एंकर इसी पर निहाल हो उठते हैं। दर्शक का मन उन परिवारों के दुख के बारे में सोचने लगता है। वे किसी के पति, किसी के बेटे, किसी के पिता रहे। एक पिता कहता है, वह दूसरा बेटा भी कुर्बान कर सकता है देश पर। एक औरत कहती है कि अब हमारा क्या होगा हमारे बच्चों का क्या होगा? एक और कहता है पाकिस्तान को कड़ा सबक कब सिखाएंगे कि वह कभी ऐसा न कर सके। मासूमियत देख कलेजा मुंह को आता है। अपने घरों में सुरक्षित बैठे हम एक नए युद्धोन्माद का शो देख रहे हैं। एक उग्रतावादी एंकर एक सेनाधिकारी से पूछता है कितनी देर में ये खेल खत्म हो सकता है? सेनाधिकारी कहता है कि आप इमोशनल हो रहे हैं लोग दस-बीस दिन बाद भूल जाएंगे।  एंकर जवाब में कहता है : मैं नहीं भूलूंगा! शोक, क्रोध और बदले को लेकर होती रिपोर्टिंग और चर्चाओं का स्तर एकदम पर्सनल और नाटकीय है।

एंकरों की सबसे बड़ी समस्या है कि वे इस घटना को किस तरह सबसे उत्तेजक भाषा में परिभाषित करें कि दूसरे चैनलों से आगे रहें। लोग उनके चैनल को ही देखें..ऐसा कोई शब्द दिया जाय जिससे एक बार में ही पाकिस्तान की सारी करतूतें खुल जाएं और बदला लेने की इच्छा बल बलवती होती रहे क्योंकि ऐसे सीनों को वही बिकने योग्य शो में बदलती है।
एक एंकर कहता है : यह कायराना हमला है। एक एंकर भड़काने की भाषा को लगातार बोलने के बाद कहती है कि हम नहीं कहेंगे कि कब बदला लिया जाय। क्रोध अपनी जगह हो सकता है, लेकिन नागरिकों को परेशानी न हो..दूसरा एंकर जोर से कहता है नहीं यह सिर्फ फिदाईन हमला नहीं है बल्कि ‘एक्ट ऑफ वार’ है। तीसरा कहता है कि सेना को खुली छूट दे दी गई है..। पाकिस्तान पर हमेशा ही हमले को आतुर रहने वाला एक अफसर कहता रहता है एक चैनल पर कि मैं तो कहता हूं कब तक आप सहते रहेंगे। कब ‘मुंहतोड़’ जवाब देंगे। एक अफसर इस कदर जोश में आ जाता है कि कह उठता है कि अगर मुझे आज भी कह दिया जाय तो मैं अंदर जाकर ये.ये कर आउंगा..। शहीदों के पार्थिव अवशेष सैनिकों के घरों में पहुंचने लगे हैं। एक चैनल पर शहीद का भाई गुस्से में कहता है मुझे आर्मी में भेज दो। कहीं भी लगा दो। मैं बदला लेकर आउंगा।
एक एंकर को एक समझदार-सा सैन्य-अफसर समझाता है कि कब क्या होगा? कहां होगा? कैसे होगा? ये बातें टीवी पर नहीं की जाती हैं। आप शो कर रहे हो तो ध्यान रखो कि ऐसी बातें ऐसे खुले आम नहीं की जातीं और जहां तक सेना को ‘फ्री हैंड’ देने की बात है तो वो एक मुहावरा है। सेना जब कुछ करती है तो किसी नेता से आदेश लेने नहीं जाती। वह जो उचित समझती है कर गुजरती है क्योंकि वह जहां होती है वहां नेता नहीं होते..उसे यह हक पहले से ही होता है। हमें यहां बहुत सी बातें नहीं करनी चाहिए। लोग कुछ दिन यही करेंगे फिर भूल जाएंगे।
एक नया वीर एंकर कहता है मैं नहीं भूलूंगा..। यह नाटकीयता की हद है! सूट पहनकर जुल्फें झटकाने में कैसी शूरता? युद्ध,शोक, क्रोध और बदले का शो एक चीज है और साक्षात शोक, क्रोध और बदला दूसरी चीज! एंकरों को बार्डर पर जाकर नहीं लड़ना उनको तो लड़ाई का शो बेचना है। उसे जितने उत्तेजक बनाएंगे उतना ही बिकेगा! आक्रोश का ऐसा शो एक ओर सैनिकों और उनके आहत परिवारों के क्षोभ को विरेचित करता है, वहीं दूसरी ओर अंधराष्ट्रवाद को एक विचारधारा में बदलता है, जिसके बीच जरा-सी आत्मालोचना ‘अपराध’ बन जाती है।

सुधीश पचौरी


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