विमर्श : लोकतंत्र की खातिर लामबंदी

Last Updated 27 Jan 2019 06:22:50 AM IST

बीती 19 जनवरी को कोलकाता में ममता बनर्जी द्वारा आयोजित रैली में विपक्ष की तेइस पार्टियों ने शिरकत की।


विमर्श : लोकतंत्र की खातिर लामबंदी

इसमें हार्दिक पटेल और जग्नेश मेवाणी जैसे युवा नेता उपस्थित थे तो यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे असंतुष्ट भाजपाई भी। रैली का मकसद था कि 2019 में होने वाले लोक सभा चुनाव में भाजपा को हर हाल में शिकस्त देने के लिए एकजुट हुआ जाए। ज्यादातर भागीदारों ने भाजपा के तानाशाहीपूर्ण रवैये, जन-विरोधी नीतियों के प्रति गुस्से का इजहार किया। विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच खाई पैदा करने के लिए भाजपा की कड़ी आलोचना की। भारत में हिंदू राष्ट्र का एजेंडा थोपने के लिए भाजपा को आड़े हाथ लिया।
विपक्षी दलों में असंतोष को समझा जा सकता है। बीते साढ़े चार साल में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए हिंसा की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, जैसी कि गोमांस के नाम पर भीड़ द्वारा किसी को भी मार डालने के रूप में देखी गई। गिरजाघरों में प्रार्थना सभाओं में धर्म परिवर्तन किए जाने का नाम लेकर हमले किए गए। अनेक ख्यातिप्राप्त नागरिकों ने बढ़ती असहिष्णुता के प्रतिकार-स्वरूप साहित्य, कला, विज्ञान और फिल्म आदि क्षेत्रों में अपने योगदान के लिए मिले पुरस्कार लौटा दिए। सत्ताधारी पार्टी के नेताओं द्वारा घृणा फैलाने की नीयत से दिए गए भाषणों से आमजन हैरत में पड़ गया। जस्टिस लोया के मामले, सरकार की नीतियों के चलते कश्मीर में बढ़ती हिंसा, जीएसटी के दोषपूर्ण कार्यान्वयन, पेट्रोल और अन्य उत्पादों के बढ़ते दामों ने आम लोगों को हलकान कर दिया।

बेशक, नरेन्द्र मोदी सरकार की नीतियों के चलते समाज में बढ़ते असंतोष को लेकर विपक्ष का एकजुट होना सकारात्मक संकेत है, लेकिन धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेले जाने के प्रयासों से जुड़े मुद्दे भी बेहद गंभीर मसला हैं। सवाल महत्त्वपूर्ण है कि क्या मोदी जैसे ताकतवर नेता का कोई  विकल्प हो सकता है? मोदी को जहां कॉरपोरेट जगत का समर्थन हासिल है, तो वहीं आरएसएस और उसके आनुषांगिक संगठनों से भी पूरी मदद मिल रही है। मोदी ने जोरदार प्रचार अभियान के बल पर ईमानदार चौकीदार की छवि बना ली है। लेकिन समाज के बड़े हिस्से को महसूस होने लगा है कि मात्र जुबानी जमा-खर्च से बात नहीं बनती। नतीजे मिलने जरूरी हैं। किसानों के दुखड़े और बढ़ती बेरोजगारी के साथ ही रोजगार के कम होते अवसरों ने समाज में निराशा बढ़ा दी है।
विभिन्न दलों का साथ आना अच्छा संकेत है, लेकिन भाजपा के विरोध में क्या यह कवायद टिकी रह सकेगी? याद आता है 1975 जब इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल और उस दौरान की गई ज्यादतियों के विरोध में विभिन्न विपक्षी पार्टियों ने एक साथ मिलकर जनता पार्टी का गठन किया था। जनता पार्टी ने 1977 में हुए लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को कड़ी शिकस्त दी थी। सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी में बिखराव आरंभ हो गया। जनता पार्टी में हिंदू संप्रदायवादी जनसंघ, समाजवादी और कांग्रेस से टूट कर आने वाले असंतुष्ट शामिल थे।  आपातकाल और वर्षो से चली आ रही कांग्रेस की निरंकुशता का विरोध उनका राजनीतिक एजेंडा था। जनता पार्टी अपना अस्तित्व नहीं बचा सकी क्योंकि उसकी घटक जनसंघ किसी भी स्थिति में अपने मूल संगठन आरएसएस से नाता तोड़ने को तैयार नहीं थी। जनता पार्टी के अन्य घटक भी सत्ता की लड़ाई में नीतिगत मतभेदों से ग्रस्त थे। कांग्रेस के एकछत्र राज ने गठबंधन के युग का सूत्रपात किया। जब जनसंघ से रूपांतरित भाजपा एनडीए के रूप में सत्तारूढ़ हुई और अभी भी अपने सहयोगी दलों के साथ सत्तारूढ़ है, तो इसके सहयोगी दल नीतियों नहीं, बल्कि महज सत्ता में भागीदारी के लिए इसके साथ बने हुए हैं। हालांकि हमने यह भी देखा है कि कार्यक्रमों और नीतियों में अच्छे से समन्वय होने पर गठबंधन भी सफल होते हैं, उनकी सरकार अच्छे से चलती हैं। इंद्र कुमार गुजराल और देवेगौड़ा जब प्रधानमंत्री थे, तब हमने यह देखा कि विभिन्न दल मिलकर सफल सरकार चला सकते हैं। यहां तक कि कांग्रेस ने भी यूपीए एक (2004) तथा यूपीए दो (2009) के रूप में सफल गठबंधन सरकार चलाई। यूपीए के शासनकाल में मनरेगा, खाद्य सुरक्षा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार जैसे कार्यक्रम और नीतियां सफलतापूर्वक क्रियान्वित की गई। उन दिनों तानाशाही के खतरे नहीं थे। मोदी ताकतवर नेता हैं, देश को ऐसे नेता की जरूरत है, और विपक्ष के पास ऐसा ताकतवर नेता नहीं है, जैसे तर्क बेमानी हैं क्योंकि गठबंधनों से भी ऐसे नेता निकल कर सामने आ सकते हैं जो सबको साथ लेकर सरकार चला सकते हैं।
दरअसल, आज विपक्ष की प्रमुख समस्या किसी साझा कार्यक्रम का न होना है। बीते साढ़े चार सालों में देखा गया है कि एनडीए के घटक दल भाजपा के साथ भले ही जुड़े हुए हैं, लेकिन कार्यक्रम भाजपा और उसके मूल संगठन का ही क्रियान्वित किया जा रहा है। यह कार्यक्रम प्रतिगामी है, भारत की बहुलतावादी प्रकृति से मेल नहीं खाता और यह ऐसा कार्यक्रम है जो संविधान को ही बदल देना चाहता है। भाजपा के शासन में न केवल लोगों की आर्थिक परेशानियां बढ़ी हैं, बल्कि इस दौरान समाज में विभाजनकारी शक्तियां भी सक्रिय हुई हैं। विपक्ष को एक कारगर कार्यक्रम बनाकर बढ़ना होगा। ऐसा कार्यक्रम जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्य समाहित हों। जिसमें भारतीय संविधान में निहित मूल्यों और सिद्धांतों का समावेश हो। आज तो स्थिति यह है कि बहुलतावाद, विविधता और स्वतंत्रता के मूल्य तिरोहित हुए जा रहे हैं। इससे देश के समक्ष संकट गहराता जा रहा है। जरूरी है कि विपक्ष भारत राष्ट्र को बनाने वाले ताना-बाना के समक्ष दरपेश खतरे से पार पाने के लिए कोई ठोस कार्यक्रम बनाए। किसानों, युवाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनसे निजात दिलाने का कार्यक्रम विपक्ष को तैयार करना होगा। एक समावेशी समाज की राह प्रशस्त करने वाला कार्यक्रम तैयार करना होगा। समय आ गया है कि तीसरे मोच्रे, जिसकी बात तेलंगाना के मुख्यमंत्री एवं टीआरएस नेता चंद्रशेखर राव ने कही है, के विचार को दरकिनार कर दिया जाए। राव ने गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस मोर्चा बनाने के लिए कुछ नेताओं से मिलने की नाकाम कोशिश की है।
सच तो यह है कि कांग्रेस को छोड़ते हुए भाजपा-विरोधी कोई भी मोर्चा बनता है तो वह नाकाम साबित होगा। कांग्रेस अभी भी लोक सभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। हाल में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में उसने जीत हासिल की हैं। इससे ही पता चल जाता है कि विपक्षी एकता की धुरी यही पार्टी बन सकती है। इसे हाशिये पर धकेलने का प्रयास विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। वैसे भी कांग्रेस अखिल भारतीय संगठन है, समूचे देश में उसका कार्यकर्ता आधार है। हालांकि हाल के वर्षो में यह आधार थोड़ा कमजोर हुआ है। आज लोग भाजपा के शासन से आजिज आ चुके हैं। जरूरी है कि विपक्ष की एकजुटता समावेशी और लोकतांत्रिक हो जैसी कि कोलकाता में हाल में ममता बनर्जी द्वारा बुलाए गए सम्मेलन में देखने को मिली। यही एक विकल्प है, जिसके दम पर विपक्ष सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को कड़ी चुनौती दे सकता है। विपक्ष से अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा? यह सवाल बेमानी है। महत्त्वपूर्ण यह है कि समावेशी समाज, बहुलतावादी मूल्यों को सहेजने और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए विपक्ष पूरी तन्यमता दिखलाए।

राम पुनियानी


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