स्त्री : सौन्दर्य के पैमाने
बसपा प्रमुख मायावती को लेकर की गयी अनर्गल टिप्पणी आहत करने वाली है। भाजपा नेता सविता सिंह ने अपने स्त्री होने के मान को तो खोया ही, जो वास्तव में न नर हैं, न नारी, उनकी भी तौहीन की।
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नारि ना मोहे नारि के रूपा, को चरित्रार्थ करने वाली सविता की दोयम दज्रे की टिप्पणी पर विवाद भी हुआ। राजनीतिक दबाव के चलते उन्हें क्षमा मांगनी पड़ी। सच यही है कि औरतों को पुरुषवादी नजरिये से देखने से स्त्री भी मुक्त नहीं है। स्त्री की देहयष्टि को लेकर तय पैमाने पुरुषों की देन हैं। पुरुषों द्वारा स्त्री सौन्दर्य के प्रतिमान खूब रस ले-लेकर स्थापित किये गये हैं। स्वयं स्त्रियों के दिमाग में यह गहरे बिठाया गया है कि उन्हें खूबसूरत नजर आना है। यह विचार किये बगैर कि वे सुन्दर नजर आने को क्यों लालायित हैं? वह अपनी-अपनी आर्थिक हैसियत के अनुरूप बनती-संवरती रहती हैं। वाकई पुरुषों की नजर में उसे खूबसूरत दिखना है या वे अन्य स्त्रियों की बनिस्बत अधिक आकषर्क लगने को लालायित रहती हैं। पारंपरिक रूप से इन तय पैमानों में खुद को साबित करने को वह बेताब रहती हैं। सुन्दर बनने या आकषर्क नजर आने के अपने इस लोभ के पीछे की मंशा पर वह स्वयं कभी विचार नहीं करना चाहतीं।
इस बात से कतई मुखालफत नहीं होनी चाहिए कि प्रकृति ने आकार, प्रकार, रंग, नस्ल, स्वाद को लेकर विविधताएं को जन्मा है। बात फलों की हो, फूलों या अनाज की। विविधताओं के मूल कारण जैविक होते हैं। लेकिन जब बात स्त्री की आती है तो विविधताओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। खासकर जब बात अपने देश की हो तो यह मानसिकता रुग्णता में तब्दील हो जाती है। सौन्दर्य के प्रतिमान किसने और कब गढ़े, यह कहना मुश्किल है। लेकिन स्त्री के आकषर्क नजर आने की जरूरत और उसके प्रस्तुतिकरण पर निरंतर काम होता रहा है। सामाजिक, नैतिक व पारिवारिक दबावों ने उसे कभी गहरे सोचने का मौका भी नहीं दिया। अनायास ही उसने खुद को प्रस्तुतिकरण की चीज ज्यादा मान लिया।
अमूमन औरतें बनाव-श्रृंगार को आत्मसंतुष्टि से जोड़ने की भूल कर बैठती हैं। वे त्वचा को गोरा करने या झुर्रियां छिपाने वाली क्रीमें लगाएं या बालों को तरह-तरह के रंगों से रंगें। भड़कीले रंगों से होंठों को आकार दें या गालों का गुलाबीपन बढ़ाएं, इसके पीछे पुरुषों को आकृष्ट करने और उन्हें अपने मोहपाश में बांधे रखने का मोह ज्यादा होता है। पुरुषों के लिए सजने-संवरने, उनको संतुष्ट करने और अपने आगोश की गिरफ्त में बनाये रखने के टोटकों के तौर पर जारी इन पैमानों ने स्त्री का भला नहीं किया है। पुरुषवादी मानसिकता और उसकी जरूरतों से मुिक्त का अहसास ही इससे पिंड छुड़वा सकता है। सीरत और सूरत को लेकर प्रचलित मुहावरों को जीवन में भी उतारना होगा।
आकषर्क नजर आना मनुष्य का स्वाभाविक गुण या भाव है। सौन्दर्य उत्पादों के प्रचलन से पूर्व ही प्रसाधनों के रूप में प्राकृतिक चीजों का प्रयोग प्रचुरता से किया जाता था। दुनिया भर में बाजारवाद व प्रचारतन्त्र ने अपनी पकड़ तेजी से बढ़ाई है। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़ में उत्पाद को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। मनोविज्ञान मानता है कि निरंतर दिखाये/सुनाये जाने वाले विचार मन में गहरे छाप छोड़ते हैं। अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन के स्क्रीन पर निरंतर गोरी, चमकदार, दागहीन त्वचा के विज्ञापन हमारी अंतर्चेतना पर छाप बनाते रहते हैं। पुरुषों को आकषिर्त करने में सौन्दर्य प्रसाधन महारथी साबित आते हैं। स्त्री इस जाल में आसानी से उलझ जाती है। वह जो नहीं है, वही नजर आने की लालसा में विचारहीनता के साथ पेश आती रहती है।
सुपर मॉडल नाओमी कैम्पबेल, मीडिया मुगल ओपरा विन्फ्रे, टेनिस स्टार सेरेना विलियम ने तमाम ेत सुन्दरियों को पछाड़ कर शीर्ष स्थान प्राप्त किया। इतना ही नहीं, इन्होंने सौन्दर्य के नये प्रतिमान गढ़ने में भी सफलता पायी। लैंकिग विभेद, नस्लवादी उपेक्षा, यौन प्रताड़ना और काया को लेकर किये गये खतरनाक किस्म के तंजों को दरकिनार करते हुए, नाओमी, ओपरा और सेरेना ने अपने तई सौन्दर्य की इबारतें रचीं। हालांकि मायावती का कद इतना ऊंचा हो चुका है, जहां इस तरह की वाहियात टिप्पणी का उनकी शख्सियत पर कोई विपरीत असर नहीं होना है। पर इस बहाने जरूरत उस सोच को खारिज करने की है, जिसने स्त्री को मानसिक गुलामी में कैद रखा है। सौन्दर्य के पैमाने अब स्त्री को स्वयं गढ़ने होंगे। जो उसकी मेधा, प्रतिभा और प्रखरता के आईने बन सकें।
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