दृष्टिकोण : राफेल का राग दरबार

Last Updated 06 Jan 2019 07:06:56 AM IST

देश में जारी बहसों में हिंदी कथाकार श्रीलाल शुक्ल के मशहूर उपन्यास राग दरबारी की याद बरबस आ जाती है।


दृष्टिकोण : राफेल का राग दरबार

खासकर राफेल विमान सौदे पर मचे घमासान में तो तर्क-वितर्क फंतासियों की होड़ जैसा लगता है। आरोप जस के तस हैं। जवाब भी सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक में समां बांध चुके हैं, लेकिन उनसे कुछ साफ तो हुआ नहीं, रहस्य और गहरा गया। यह जरूर हुआ कि रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने संसद में लगभग ढाई घंटे बोलने का रिकॉर्ड बना दिया। यह संसद में बजट भाषणों के इतर अब तक का सबसे लंबा भाषण है। लेकिन सुर्खियां सिर्फ  ये बनीं कि बोफोर्स कांग्रेस का ले डूबा, राफेल एनडीए को नई उड़ान देगा। नया सौदा क्यों हुआ, किस दाम पर हुआ, क्यों सार्वजनिक उपक्रम हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के बदले रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट पार्टनर बनाया गया, ये सारे सवाल पहले की तरह खड़े रह गए। कांग्रेस भी तो यही सवाल खड़े कर रही है। मगर दलीलें सिर्फ  इसके इर्द-गिर्द घूम रही हैं कि दाल में काला नहीं, पूरी दाल ही काली है।

इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि यह सब दो-तीन महीने बाद होने वाले आम चुनावों के मद्देनजर है। चुनावों के लिए मुद्दों को धारदार करना और अपने-अपने तरीके से उसे पेश करने में भी कोई बुराई नहीं है, मगर मुद्दों को लाजवाब छोड़ देना और सिर्फ  उसे तूम झूठे-तुम झूठे के स्तर पर ले जाना रहस्य को और गहरा कर जाता है। दलीलें भी ऐसी हैं कि राग दरबारी के पात्रों की याद आ जाती है। सवाल यह था कि 126 विमानों के बदले अचानक 36 विमान खरीदने का फैसला कैसे और क्यों लिया गया? जवाब आया, 126 में 18 विमान ही एकदम तैयार हालत में पूरी शस्त्रय-व्यवस्था से लैस आने वाले थे, बाकी तो एचएएल में बनाए जाने थे लेकिन तात्कालिकता के मद्देनजर इसके दोगुना विमान लाने का फैसला किया गया। इस तरह मामला 126 का नहीं 18 के मुकाबले 36 का है। सवाल था कि कीमत कैसे बढ़ी तो जवाब था, कुल जोड़ेंगे तो 9 फीसद कम दाम साबित होगा। लेकिन क्या जोड़ेंगे और कैसे जोड़ेंगे, यह जवाब नदारद था। इसी तरह सवाल था कि एचएएल की जगह ऑफसेट पार्टनर एकदम नई-नवेली कंपनी को क्यों बनाया गया और इसका फैसला कैसे किया गया। जवाब था, एचएएल को तो कांग्रेस अगुआई वाली पूर्व यूपीए सरकार ने ही परियोजनाओं से खाली कर रखा था, एनडीए सरकार ने तो आकर उसे कई नई परियोजनाएं मुहैया कराई और ऑफसेट पार्टनर तय तो राफेल की कंपनी दस्सां ने किया। इस तरह ऐसे अनेक सवाल हैं,  जिनके जवाब में दूसरे सवाल ही खड़े किए गए यानी सरकार और विपक्ष, दोनों तरफ से सिर्फ  सवाल ही सवाल हैं।
सामान्य तर्क तो यही कहता है कि जब सवाल ही सवाल हावी हो जाएं तो मुकम्मल जांच की ओर बढ़ना चाहिए। फिर, रक्षा सौदे लंबे समय से विवाद की वजह बनते रहे हैं, इसलिए भी तर्क तो यही कहता है कि मुकम्मल जांच कर ली जाए तो सरकार पर उठ रहे सवालों का जवाब भी मिल जाएगा और देशहित में उसके फैसलों पर भी अधिक भरोसा कायम हो जाएगा। लेकिन इसके बदले तकरे की गुगली का सहारा लिया जा रहा है। मसलन, रक्षा मंत्री ने 2014 के फरवरी महीने में पूर्व रक्षा मंत्री के एक बयान का जिक्र किया कि पैसा कहां है। उस समय एके एंटनी ने राफेल सौदे पर फैसला हो जाने के बावजूद अमल में देरी के सवाल पर यह जवाब दिया था। शायद उनका आशय यह था कि पिछले साल के बजट की अवधि समाप्त हुई और अब नये बजट के आवंटन से ही सौदा आगे बढ़ाया जा सकता है। लेकिन मौजूदा रक्षा मंत्री ने इसे इस रूप में पेश किया कि मामला मनी का था, इसलिए सौदा लटका रहा। यह हल्के-फुल्के तंज के लिए तो हो सकता है, मगर गंभीर राजनैतिक बहस ऐसे नहीं होनी चाहिए थी। इसी तरह कांग्रेस की ओर से भी बहस के दौरान कागजी जहाज उड़ाना, गंभीरता को कम करता है।
दरअसल, मामला कहीं और फंसा हुआ है, जिसकी ओर उंगली नहीं उठ रही है। यह दलील तो यूपीए सरकार के दौरान भी उदारीकरण और निजीकरण के पैरोकार देते रहे हैं कि धीरे-धीरे सार्वजनिक उद्यमों को समेटना है। रक्षा उत्पादन में भी निजी क्षेत्र को प्रश्रय देना है। लेकिन राफेल मामले में फर्क यह है कि एक खास उद्योगपति को तरजीह दी गई और बिल्कुल शून्य से उसे कंपनी कायम करने में मदद दी गई है। अन्ना आंदोलन के दौरान यह मामला क्रोनी कैपटिलज्म या याराना पूंजीवाद की तरह उठा था। लेकिन वह बहस आगे नहीं बढ़ पाई। उस आंदोलन से उभरी आम आदमी पार्टी भी उस मुद्दे को आगे नहीं बढ़ा पाई। मसलन, याराना पूंजीवाद के बरक्स होना क्या चाहिए? क्या सार्वजनिक उद्यमों को मजबूत किया जाना चाहिए? या फिर इसके कोई और तरीके निकालने चाहिए?
यह बहस आगे बढ़ पाती, उसके पहले ही नरेंद्र मोदी के केंद्रीय राजनीति में अवतरण के साथ गुजरात मॉडल की चर्चाएं शुरू हो गई। गुजरात मॉडल भी मोटे तौर पर उसी याराना पूंजीवाद का एक रूप था, जिसकी चर्चाएं यूपीए सरकार के दौरान उभरी थीं। दरअसल, हमारे देश में मुट्ठी भर घराने ही पूंजीवाद या यहां तक कि निजी क्षेत्र के औद्योगिकीकरण का पर्याय रहे हैं। तो, सार्वजनिक क्षेत्र के बदले निजीकरण को प्रश्रय देने का नतीजा अंतत: यही होना है। इस दौर में कई स्टार्टअप का यही हश्र हो रहा है कि अंतत: वे बड़ी पूंजी के हवाले हो जाते हैं। हाल में फ्लीपकार्ट का उदाहरण सामने है। कई संभावनाशील स्टार्टअप विदेशी बड़ी पूंजी के हवाले होते जा रहे हैं।
फिर, मोदी सरकार ने तो आते ही लगभग ऐलान कर दिया था कि वह विकास के उसी रास्ते चलेगी। यहां तक कि कृषि संकट से पार पाने के लिए वह जो फसल बीमा लेकर आई, उससे भी ज्यादा लाभ कंपनियों को ही हो रहा है। ये आंकड़े भी आ चुके हैं कि कैसे फसल बीमा के लाभ कंपनियों को दस हजार करोड़ रु पये तक हो गए जबकि किसानों को उसका खास लाभ नहीं मिला। किसानों में फसल बीमा कराने का उत्साह भी शायद इसी वजह से घट गया है। तो, सवाल बड़ा है कि क्या निजीकरण और कारोबारी सहूलियत देने की प्रक्रिया ही बड़ा संकट पैदा कर रही है। लेकिन इस सवाल पर कोई बहस नहीं करना चाहता है। मौजूदा एनडीए सरकार के दौरान हुआ शायद यह है कि इस नीति पर आक्रामक ढंग से आगे बढ़ा गया है। आक्रामक ढंग से आगे बढ़ना सारे चेक ऐंड बैलेंस को दरकिनार किए बिना संभव नहीं है। राफेल मामले में यही हुआ है। लेकिन कहना ही होगा कि इसका एक सूत्र आज की राजनैतिक व्यवस्था की ओर भी जाता है।
यह राजनैतिक व्यवस्था चुनाव जीतने के लिए बड़ी पूंजी पर आधारित होती गई है। इसे अब पॉलिटिकल इकोनॉमी कहा जाता है। इसका प्रमाण इस सरकार द्वारा जारी किया गया इलेक्शथन बांड है, जिसमें कोई भी कंपनी बिना किसी पूछताछ के निवेश कर सकती है, और राजनैतिक पार्टयिों को चंदा दे सकती है। पिछले साल सबसे अधिक लगभग 80 फीसद चंदा भाजपा को ही मिला है। इसी चंदे के जरिए चुनाव प्रबंधन होता है, जो सत्ता में पहुंचने के लिए जरूरी है। ऐसे में यह भी एक बड़ी वजह बनता जा रहा है कि याराना पूंजीवाद को प्रश्रय दिया जाए क्योंकि अपने पाले के पूंजीपतियों से ही चंदे हासिल करना मुफीद हो सकता है। इसलिए अब समय आ गया है कि नव-पूंजीवाद को प्रश्रय देने वाली नीतियों पर विचार किया जाए।

हरिमोहन मिश्र


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