वैश्विकी : बेमिसाल जीत की जिम्मेदारी
बांग्लादेश में हाल के राष्ट्रीय चुनाव में शेख हसीना की तीसरी जीत दक्षिण एशिया या सार्क देशों के शासकों के लिए एक बड़ी सीख है।
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शेख हसीना के सिवाय सार्क देशों का कोई भी शासक लगातार तीन बार चुनाव नहीं जीत पाया है। मनमोहन सिंह दो बार चुनाव जीत सके हैं, जबकि पाकिस्तान और मालदीव में कई बार सैनिक तख्तापलट हो चुका है। श्रीलंका राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, और नेपाल में लंबे समय से राजनीतिक अस्थिरता के बाद अब जाकर शांति और स्थिरता आई है। बांग्लादेश भी एक दशक पहले तक राजनीतिक अस्थिरता, जिहादी खतरे और सैनिक तख्तापलट की आशंका से जूझने के बाद आज अस्थिरता के सागर में स्थायित्व के द्वीप के रूप में उभरा है। रेगिस्तान में नखलिस्तान के चमत्कार का श्रेय शेख हसीना के नेतृत्व के साथ-साथ पड़ोसी देश भारत की भूमिका को दिया जाना चाहिए।
शेख हसीना ने विदेश नीति के मोच्रे पर अपने देश की भू-रणनीतिक अवस्थिति का पूरा फायदा उठाते हुए भारत ही नहीं, बल्कि चीन और रूस के साथ भी विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक दृष्टि से लाभकारी संबंधों की स्थापना की। उनकी कूटनीति की सफलता का ही नतीजा है कि बांग्लादेश के चुनाव में धांधली और जोर-जबरदस्ती का आरोप लगाने वाले अमेरिका और यूरोपीय देश हसीना को अंतत: समर्थन देने पर मजबूर हुए हैं।
शेख हसीना की सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान जिस तरह से दो बड़े खतरों का सामना किया उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने सबसे पहले जमात-ए-इस्लामी और मुस्लिम लीग जैसे कट्टरपंथी संगठनों के साथ-साथ जिहादी मनोवृत्ति वाले लोगों पर काबू पाने का प्रयास किया। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान इन संगठनों से जुड़े लोगों ने पाकिस्तानी सेना का सहयोग किया था। सैनिक शासक जनरल जिया उर रहमान ने मुक्ति संग्राम के अपराधियों का अपने शासन के दौरान पुर्नवास किया था, और उनकी पत्नी खालिदा जिया ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल तक किया। शेख हसीना ने इनके खिलाफ विशेष रूप से युद्ध अपराध प्राधिकरण गठित किया जिसमें उनके विरुद्ध सुनवाई हुई और अपराधी घोषित होने पर उन्हें फांसी पर लटकाया गया। हसीना की सरकार के सामने दूसरा संकट तब आया जब पिछले वर्ष म्यांमार के रखाइन प्रांत में वहां के सैनिकों की कार्रवाई के बाद करीब पांच लाख रोहिंग्या भागकर बांग्लादेश की सीमा में दाखिल हुए। इनमें जिहादी तत्व भी थे, जो कट्टर आतंकी संगठनों के सदस्य थे। इनसे निपटना हसीना के लिए बड़ी चुनौती थी। लेकिन उन्होंने हिम्मत और करुणा के साथ रोहिंग्या मुस्लिमों को अपने यहां शरण देकर इस विराट चुनौती का सामना किया। इस मानवीय कार्य के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से उन्हें प्रशस्ति भी मिली।
हसीना के कार्यकाल के कुछ श्याम पक्ष भी हैं। राष्ट्रीय चुनावों के दौरान चुनाव आयोग की निष्पक्षता और सरकार की मंशा पर भी सवाल खड़े किए गए। सरकार पर विरोधी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में बंद करने के भी आरोप लगे हैं। लेकिन उनके नेतृत्व में देश की अर्थव्यवस्था को मिली मजबूती के कारण ये सभी आरोप पृष्ठभूमि में चले गए। चुनावों में हसीना के नेतृत्व वाले अवामी लीग गठबंधन ने सदन की 299 सीटों में से 288 सीटें यानी 96 फीसद सीटें जीतकर विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया। आने वाले दिनों में इतना प्रचंड बहुमत लोकतंत्र के लिए समस्या पैदा कर सकता है क्योंकि द्विदलीय व्यवस्था बाला बांग्लादेश एकदलीय शासन की ओर बढ़ रहा है, जिसके अपने गुण-दोष हैं।
अगर शेख हसीना को अपनी लोकप्रियता बनाए रखनी है, तो उन्हें सबसे पहले विपक्षी दलों द्वारा लगाए गए चुनाव में धांधली के आरोपों की निष्पक्ष जांच करानी चाहिए। दूसरे, विभिन्न सामाजिक समूहों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए कोई बड़ी पहलकदमी करनी होगी। लेकिन इस सद्प्रयास में उन्हें सतर्क भी रहना पड़ेगा कि कट्टरपंथी और जिहादी तत्व सिर न उठा पाएं। इतना विराट बहुमत सत्ता को निरंकुश बना सकता है, इसलिए इस ओर उन्हें आंखें नहीं मूंदनी चाहिए। शेख हसीना को ऐसी सरकार चलानी होगी जो कानून का शासन, नागरिकों के बुनियादी अधिकारों और विपक्ष का सम्मान कर सके। उनकी सत्ता में वापसी भारत के हित में है।
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