मीडिया : मीडिया की ‘संकेत-सिद्धांतिकी’

Last Updated 06 Jan 2019 07:03:07 AM IST

इन दिनों के खबर चैनलों को देखकर देवानंद की फिल्म ‘सीआइडी’ (1956) का वह गाना याद आता रहत है, जो रफी की आवाज में कहता है:- ‘आंखों ही आंखों में इशारा हो गया/बैठे बैठे जीने का सहारा हो गया’।


मीडिया : मीडिया की ‘संकेत-सिद्धांतिकी’

हिंदी फिल्मों में इशारा या संकेत महत्त्वपूर्ण क्रिया है, न जाने कितने गानों में इशारे ने कमाल किया है। आप कश्मीर की कली (1964) में आशा भौंसले का गाया वो गाना भी याद कर सकते हैं, जिसमें आशा कहती हैं:-‘इशारों इशारों में दिल लेने वाले/बता ये हुनर तूने सीखा कहां से?’। इसी तरह फिल्म ‘धर्मा’ (1973) की कव्वाली भी याद आ रही है जो कहती है:-‘इशारों को अगर समझो राज को राज रहने दो’। आप याद करते जाएं तो आपको एक से एक ‘इशारे’ या ‘संकेत’ याद आते रहेंगे और आप इसे ‘मुहब्बत का कलात्मक व्यापार’ मात्रा मानेंगे।
लेकिन, ध्यान से देखें तो ये गाने मुहब्बत की पूरी ‘संकेत सिद्धांतिकी (नज थियरी) है। यह ‘संकेत  थियरी’ जब तक प्यार-मुहब्बत के इलाके में काम करती रही तब तक इसे ‘नोबेल’ नहीं मिला लेकिन ज्यों ही ‘र्रिचड थैलर’ नामक अर्थशास्त्री ने इसे सामाजिक-आर्थिक व्यवहार में होते दिखाया त्यों ही उसे ‘नोबेल’ मिल गया।  इसे ‘नज थियरी’ कहा गया। ‘नज’ अंग्रेजी का शब्द है, जिसका अर्थ है ‘टहोका मारना’ ‘कोहनी मारना’ ‘आंखों ही आखों’ में इशारा करना। ‘कुहनी मारना’ या ‘टहोकना’, ‘व्यावहारात्मक अर्थशास्त्र’ में बड़े काम आता है। उसे ‘विज्ञापनों’ में काम करते देखा जा सकता है। किसी वक्त में खास तरह से ‘कुहनी मारकर’ यानी ‘इशारा करके’ यानी दूसरे को इशारे में समझा कर ‘अपनी लाइन’ पर लाने का नाम है ‘नज’ या ‘संकेत सिद्धांतिकी। यह ‘दूसरों के मन को बिना जताए खास दिशा में ‘फेरने’ के काम आती है। इसे खबर चैनलों की मंदिर संबंधी इन दिनों की रिपोटरे में अच्छी तरह से देखा जा सकता है। इन दिनों खबर चैनल अक्सर अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर कार्यक्रम देते रहते हैं। लोगों से आये दिन पूछते रहते हैं कि :
-साढ़े चार साल में मंदिर क्यों नहीं बना?

-अब कौन बना सकता है मंदिर?
-अब न बना तो कब बनेगा?
-मंदिर बनाने के लिए अध्यादेश या कानून लाया जाना चाहिए कि नहीं?
-आप लोग मंदिर क्यों नहीं बनवाते?
इनके जवाबों को ‘जनभावना’ की तरह दिखाया जाता है। इसी बीच यह भी ‘मनवाया’ जाने लगा है कि मंदिर का अब कोई विरोध नहीं करता। ये देखिए अयोध्या में पत्थर तराशे जा रहे हैं। ये देखिए, दिन-रात काम चल रहा है। तब कौन अटका रहा है मंदिर निर्माण को? मंदिर तो बनाया ही जाना है। अब नहीं बना तो आगे कब बनेगा? यानी अब उसका बनना न केवल ‘निर्विरोध’ है, बल्कि ‘निश्चित’ है। कई खबर चैनलों ने ऐसी सर्वानुमति-सी बना डाली है कि कोई दूसरा स्वर सुनाई नहीं पड़ता जबकि मीडिया वाले अच्छी तरह जानते हैं कि मंदिर की जमीन के ‘मालिकाना हक’ का केस बड़ी अदालत के अधीन है। उसने दस जनवरी से इस केस की सुनवाई की बात की है।
क्या यह खबर चैनलों का काम है कि मंदिर के निर्माण का आग्रह करें? उसे नित्य का मुद्दा बनाएं। जवाब में मीडिया कह सकता है कि मीडिया की डय़ूटी है कि ‘ज्वलंत मुद्दों’ पर चरचा कराता रहे। लेकिन जब मामला अदालत के अधीन हो तब मंदिर बनाने के लिए उसका किसी हिंदुत्ववादी के मुहावरे में अनुकूल वातावरण बनाना कहां तक उचित कहा जा सकता है?
यही नहीं कुछ रिपोर्टर तो लोगों से यह भी पूछने लगते हैं कि आप 2019 में किसे वोट देंगे और जब वे ‘सही’ जवाब पा जाते हैं, तो आगे बढ़ते हैं। इस तरह मंदिर को एक खास दल की जीत के साथ नत्थी करते रहते हैं। ये हैं नये राजनीतिक इशारे! अगर कोई टोकता है कि आप मंदिर के मुद्दे को गोद क्यों ले रहे हैं, तो जवाब मिलता है कि 2019 के चुनाव में मंदिर एक ज्वलंत मुद्दा है। इसीलिए हम उसके बारे में बता रहे हैं। इस तरह यह नये किस्म की ‘नज पत्रकारिता’ है, यानी ‘संकेतवादी पत्रकारिता’ है।
पिछले दो-तीन महीने में मीडिया ने मंदिर बनाने के लिए और मंदिरवादियों के पक्ष में वोट देने की एक नई सर्वानमुति-सी बना दी है। यद्यपि अभी अदालत में केस की सुनवाई बाकी है। कितने दिन चलेगी। कोई नहीं बता सकता लेकिन मंदिर निर्माण की राजनीति करने वालों और चैनलों  की भाषा कोई फर्क नहीं रह गया है। जो भाषा किसी ‘हिंदुत्ववादी’ की  है, वही भाषा कई एंकरों और रिपोर्टरों की है।
आज हम मीडिया में ‘नज थियरी’ की कुछ ‘प्रैक्टिस’ होते देख रहे हैं। 2019 के चुनावों तक हम ऐसी और कई प्रैक्टिसें देखेंगे।

सुधीश पचौरी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment