बतंगड़ बेतुक : स्वप्नावतरित भये हनुमन्ता

Last Updated 06 Jan 2019 06:55:54 AM IST

जतिविहीन, अन्यायविहीन, विषमताविहीन समाज का सपना वह सपना है, जिसे मैं तब से देखता आ रहा हूं जब से होश संभाला है।


बतंगड़ बेतुक : स्वप्नावतरित भये हनुमन्ता

कभी लगता है मेरा यह निराकार सपना कभी न कभी साकार होगा, कभी लगता है यह सपना निराधार था और निराधार ही रहेगा। फिर जब अजाति हनुमान पर जातीय दावेदारी तेज हुई तो लगा मेरे सपने की प्रजाति ही कुजाति थी। जब हनुमान बा-जाति हो रहे थे तो मेरे सपने की क्या औकात जो बे-जाति हो जाए। तो उस रात अपने अंग-भंग-बदरंग सपने के संग निद्रानिमग हुआ तो यकायक एक प्रखर तेज, किंचित चिंतित मुख, महाकाय, महामूरत अवतरित हो गई। इस प्रभमान के दर्शन से हतप्रभ मैं करबद्ध हो गया, मेरा मस्तक नत हो गया, वाणी विल हो गई। कंपित स्वर में पूछा-‘प्रभु, आप कौन?’

वे व्यग्रता से बोले-‘मैं जो हूं सो हूं। मैं अपनी जाति के किसी जातिवान भक्त की तलाश में निकला हूं।’ मेरे मुखारबिंद की प्रश्नाकुलता को उन्होंने भांप लिया होगा। वे पुन: बोले-‘मैं ब्रामण हनुमान हूं।’ मैंने कहा-‘प्रभु, मैं तो ब्रामण नहीं हूं।’ वे बोले-‘मैं क्षत्रिय हनुमान हूं।’ मैंने कहा-‘मैं क्षत्रिय भी नहीं हूं।’ उन्होंने एक गहरी दृष्टि मुझ पर डाली और बोले-‘मैं दलित, बनवासी, आदिवासी हनुमान हूं।’ मैंने कहा-‘प्रभु, मैं तो इनमें से भी कोई नहीं हूं।’ वे थोड़ा मुस्कुराए और बोले-‘मैं जाट हनुमान हूं।’ मैंने कहा-‘मैं तो जाट भी नहीं हूं, कायस्थ भी नहीं हूं, बनिया भी नहीं हूं, और हां, यादव भी नहीं हूं।’ उन्होंने कहा- ‘अगर मैं कहूं कि रहमान, सलमान की तर्ज पर हनुमान में लगे ‘मान’ की वजह से मैं मुसलमान हनुमान हूं तो..?’ ‘तो मैं कहूंगा कि मैं मुसलमान भी नहीं हूं। मैं तो खुद को एक इंसान समझता हूं और कोशिश करता हूं कि इंसान ही बना रहूं’, मैंने विनम्रता से कहा। वे सहास बोले-‘असल में मैं पवनपुत्र रामभक्त हनुमान हूं। मैं तो तेरी परीक्षा ले रहा था। तू ही मेरा सच्चा भक्त है।’ मैंने सशंक कहा- ‘लेकिन प्रभु, मैं तो जातिविहीन, धर्मविहीन, पूजा-पाठविहीन घनघोर नास्तिक हूं। मैं आपका भक्त कैसे हो गया जबकि मैंने न तो कभी आपके मंदिर में शीश नवाया, न कभी आपको भोग लगाया, न कभी आपसे कुछ मांगा, न कभी आपके नाम का जयकारा लगाया और न कभी आपका चालीसा गाया?’ पवनपुत्र के मुख की आभा दिप उठी, वे विहंसकर बोले-‘सुन भक्त, जैसे मेरी कोई जाति नहीं है तेरी भी कोई जाति नहीं है, जातिविहीनता मेरी भी जाति है तेरी भी जाति है, मेरा भी कोई स्वार्थ नहीं है तेरा भी कोई स्वार्थ नहीं हैं, इसीलिए तो तू मेरा सच्चा भक्त है, इसीलिए मैं तेरे पास आया हूं..’ तभी मेरी दृष्टि उनके पृष्ठभाग की ओर घूमी और मैं सशंकित हो गया। उन्होंने मेरी शंका भांप ली और बोले -‘तो तू मेरी पूंछ तलाश रहा है? शंका मत कर। मैं रामभक्त हनुमान ही हूं। दरअसल, इधर मेरी देह पर जाति के इतने दाग-धब्बे लगाए गए थे कि उन्हें मिटाते-मिटाते मेरी पूंछ मिट गई है। तो तू सुन, मैं तुझसे कुछ कहना चाहता हूं। तुझसे अपना एक काम कराना चाहता हूं।’
अब मैं नि:शंक उनके मुखमंडल को ताक रहा था। तब उनकी वाणी प्रस्फुटित हुई-
मैं रामभक्त हनुमान, देता हूं उपदेश गुन
देकर पूरा ध्यान, मेरे आखर शब्द सुन
नेता यहां दनुज अवतारा, इनसे दुखी सकल संसारा
सत्ता हेतु समस्त वितंडा, झूठ दंभ भ्रमजाल अखंडा
ये जब अपनी जिवा खोलें, जन-मन में घातक विष घोलें
करि कुचक्र खडय़ंत्र रचावहिं, शांति विनाशहिं आग लगावहिं
घृणा और विद्वेष प्रचारें, ठौर-ठौर सद्भाव बिगारें
जाति-धरम के नाम लड़ावें, निज स्वारथ परवान चढ़ावें
इनकी जाति कुटिल बहुरंगी, रचै कुचक्र कुमति की संगी
खोटे करम विचार कुचाली, नेता शब्द कियो इन गाली
भक्ति आस्था ओढ़कर, रचें महज पाखंड
मिले क्षमा नहिं राम से, इनके पाप प्रचंड

हनुमत वाणी सुनते-सुनते मेरे मन में एक जिज्ञासा कुलबुलाने लगी। मैंने पूछा-‘हे भक्त-श्रेष्ठ, आपका उपदेश तो बाबा तुलसीदास की दौहा-चौपाई शैली में है, ऐसा क्यों?’ वे बोले-‘सुन भक्त, तुलसी मेरा छोटा भाई है। हम दोनों के बीच भक्त-भक्त-भ्रातृत्व संबंध है।’ ‘यह क्या हुआ?’ मैंने पूछा। ‘अरे भई, मैं भी रामभक्त हूं, तुलसी भी रामभक्त है तो हम लोग भक्त-भक्त भाई हुए कि नहीं।’ मैंने कहा-‘मगर प्रभु, आप त्रेता युग में हुए और बाबा तुलसीदास द्वापर युग पार कर कलियुग में हुए। भाइयों में काल का इतना अंतर?’ वे बोले-‘तो क्या हुआ। तुलसी मुझसे केवल दो युग ही तो छोटा है, मगर भाई तो है ही। इसी नाते छोटे भाई की भाषा-शैली पर मैं अपना अधिकार समझता हूं।’ मैं समझ गया, मगर दूसरी शंका उठ गई-‘मगर प्रभु, आज तो खड़ी बोली का युग भी लद रहा है। हिग्लिंश प्रचलन में है, ऐसे में बाबा तुलसी की भाषा कौन समझेगा?’
पवनपुत्र क्षण भर के लिए विचारमुद्रा में आ गए..।(जारी)

विभांशु दिव्याल


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