चुनाव परिणाम : कड़ी मेहनत करे कांग्रेस
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा को तगड़ा झटका लगा है।
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इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकारें थीं और इनमें से दो राज्यों-मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़-में भाजपा पंद्रह साल यानी लगातार तीन कार्यकाल से राज कर रही थी। इन तीनों भाजपा शासित राज्यों के चुनाव नतीजों का राष्ट्रीय महत्त्व है। 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद से अब तक हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए सबसे बड़ा धक्का यही है। क्योंकि इन तीनों राज्यों को इस पार्टी का गढ़ माना जाता है। इन राज्यों की हार ने अजेयता की उस छवि को भी ध्वस्त कर दिया है, जो मोदी-शाह की जोड़ी के गिर्द भाजपा ने बड़ी कसरत से गढ़ी थी। 2014 के लोक सभा के चुनाव के बाद से महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और असम आदि राज्यों की जीत का श्रेय उन्हीं को दिया जाता रहा था। लेकिन अब वे अपनी पार्टी के परंपरागत गढ़ों में ही फेल हो गए हैं।
इन तीनों राज्यों में भाजपा की यह हार, लोक सभा और विधानसभा सीटों के लिए उपचुनावों में उसकी एक-के-बाद एक कई हार के बाद आई है। 2018 के जनवरी से, देश भर में 13 लोक सभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे, जिनमें से 3 में ही भाजपा और उसके सहयोगियों को जीत मिली थी, जबकि भाजपा से उसकी 5 सीटें, विपक्ष ने छीन ली थीं। इसी प्रकार, 22 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे, जिनमें से सिर्फ 5 पर भाजपा को जीत हासिल हुई थी। बड़े पैमाने पर किसानों की बदहाली, नोटबंदी के प्रतिकूल परिणामों, रोजगार मुहैया कराने में विफलता, भ्रष्टाचार और कुशासन की मार भाजपा पर पड़ी है। इस जन-असंतोष को भांपकर, भाजपा-आरएसएस जोड़ी ने फिर से अपने सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी एजेंडा को आगे कर दिया है, ताकि ध्रुवीकरण कर सके और उसके जरिए समर्थन जुटा सके। इन तीनों राज्यों में चुनाव प्रचार में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का जमकर उपयोग किया गया था और उन्होंने खुल्लम-खुल्ला सांप्रदायिक और मुस्लिम-द्वेषी बोली का प्रयोग किया था। इस चुनाव में उन्होंने 73 रैलियों को संबोधित किया था।
इसके बाद भी भाजपा सरकारों से प्रबल नाराजगी और जनअसंतोष पर काबू नहीं पा सकी। इन तीन राज्यों के चुनाव परिणामों का, आने वाले लोक सभा चुनाव पर भी असर पड़ेगा। आम तौर पर यही रुझान देखने में आया है कि जो पार्टी विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करती है, छह महीने के अंदर हों तो इन राज्यों में लोक सभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन करती है। 2014 के चुनाव में भाजपा ने इन राज्यों की कुल 65 सीटों में से 62 जीती थीं। इस विधासभा चुनाव का रुझान अगर कायम रहता है, तो भाजपा इन तीनों राज्यों में बड़ी संख्या में सीटें हारने जा रही है। इन तीनों राज्यों में चुनावी मुकाबला हमेशा से द्विध्रुवीय यानी भाजपा और कांग्रेस के बीच रहा है। इस तरह, जब भी जनता भाजपा को सत्ता से हटाना चाहती है, कांग्रेस की जीत खुद-ब-खुद हो जाती है। इसके बावजूद, छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो, राजस्थान में कांग्रेस मुश्किल से बहुमत हासिल कर पाई है और मध्य प्रदेश में बहुमत से सिर्फ दो सीट पीछे रह गई है।
जनअसंतोष और सरकार से नाराजगी जितनी ज्यादा थी, उसे देखते हुए कांग्रेस को इन दोनों राज्यों में भी और निर्णायक जीत हासिल करने में समर्थ होना चाहिए था। ऐसा क्यों नहीं हुआ, इसकी छानबीन की जरूरत है। एक पहलू तो यही है कि इन दोनों राज्यों में कांगेस ने, हिन्दुत्ववादी मंच से कुछ मुद्दे उधार लेने की कोशिश की थी, मगर ऐसी मांगें उठाने का उन्हें कोई चुनावी लाभ नहीं मिला। इसकी वजह यह है कि हिन्दुत्व के मंच से आकषिर्त होने वाले लोग हमेशा, मूल हिन्दुत्ववादी पार्टी को ही पसंद करते हैं, न कि उसकी नकल करने वाली पार्टी को। जनता ने कांग्रेस के लिए इसलिए वोट डाले हैं कि वह किसानों की समस्याओं को हल करने, रोजगार पैदा करने और आजीविकाओं की रक्षा करने में, भाजपा की सरकारों की विफलता के लिए, उन्हें सजा देना चाहती है। जनता ने इस तरह भाजपा की राज्य सरकारों के कुशासन के रिकार्ड के खिलाफ ही अपना फैसला नहीं सुनाया है। जनता के गुस्से का एक बड़ा कारण तो नोटबंदी और जीएसटी के लागू किए जाने के जरिए थोपे गए बोझ ही थे। काफी संख्या में शहरी सीटों पर भाजपा की हार, इसकी गवाही देती है। पुन: केंद्र सरकार के इशारे पर ही राजस्थान और मध्य प्रदेश की सरकारें मजदूर विरोधी कानून लाई थीं और उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को कमजोर किया था।
राजस्थान सरकार तो, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और प्राथमिक स्वास्थ्स सेवा के निजीकरण की भी अगुवा थी। हालांकि, 2013 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा के मत फीसद में कमी हुई है, फिर भी इस चुनाव में उसे काफी वोट मिला है। मध्य प्रदेश में उसे 41 फीसद वोट मिले हैं और राजस्थान में 38.8 फीसद। वास्तव में मध्य प्रदेश में तो भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले, 0.1 फीसद वोट ज्यादा ही मिला है, जबकि राजस्थान में उसका मत फीसद, कांग्रेस के मुकाबले सिर्फ 0.5 फीसद ज्यादा रहा है। यह इसी की संभावना को दिखाता है कि अपने पक्ष में जरा सा झुकाव आने से ही भाजपा, फिर आगे निकल सकती है। यह इसकी संभावना की ओर भी इशारा करता है कि भाजपा-आरएसएस जोड़ी, लोक सभा चुनाव के लिए अपने सांप्रदायिक एजेंडा की आंच और तेज कर सकती है। इसलिए इन राज्यों में बनने वाली नई सरकारों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि किसानी के संकट, रोजगार निर्माण और कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के मुद्दों को फौरन हाथ में लें। वे सांप्रदायिक गतिविधियों के प्रति नरमी का रुख नहीं अपना सकती हैं और उन्हें गुंडागर्दी और भीड़ हत्याओं के खिलाफ सख्ती से कार्रवाई करनी होगी।
देश के पैमाने पर अपने प्रभाव को दोबारा हासिल करने के लिए, कांग्रेस को अब भी काफी मशक्कत करनी होगी। तेलंगाना में उसको लगा धक्का और उसका मिजोरम की पूर्वोत्तर की अपनी इकलौती सरकार को खो देना, इसी को दिखाता है। सीपीआइ (एम) और वामपंथ के लिए, राजस्थान में दो सीटों पर जीत, इकलौता सकारात्मक नतीजा है। यह मुसलसल किसान संघर्ष का ही नतीजा है। कुल मिलाकर, इन विधानसभा चुनावों में भाजपा को और मोदी-शाह के नेतृत्व को धक्का लगा है। यह लोक सभा चुनाव भाजपा को शिकस्त देने की आने वाली लड़ाई के लिए, गति मुहैया कराएगी, जिसकी बहुत जरूरत थी।
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