विश्लेषण : लोकतंत्र की लौटी सांस
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार राज्यों के सत्ता परिवर्तन से लोकतंत्र की अटकी हुई सांस वापस लौट आई है।
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हिन्दी इलाके में कांग्रेस को मिली कठिन जीत ने बता दिया है कि मेहनत की जाए तो कट्टरता, क्रूरता और भीड़तंत्र की बीमारी से ग्रसित लोकतंत्र स्वस्थ हो सकता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2014 में ताजी बयार लेकर आए थे और किसी विचार या दायरे में न सोचने वाले व्यापक समाज को लगा था कि अच्छे दिन आएंगे। लेकिन वे और उनकी पार्टी चुनावी जीत और दीर्घकाल तक शासन करने की महत्त्वाकांक्षा में इतने खो गए कि अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गए। उनकी पार्टी के अध्यक्ष से लेकर प्रवक्ताओं तक पर अहंकार हावी होता गया। उन्होंने लोकतंत्र में संवाद और जनमत निर्माण के लिए बने जनसंचार माध्यम के बुनियादी मूल्यों को ही बदल दिया। जनसंचार माध्यम सत्ता से नहीं, विपक्ष से सवाल पूछने लगे और समाज के विवेक को जगाने की बजाय उसमें प्रतिशोध की भावना भरने लगे। यह बात कठिन चुनाव की ऊब चूब से निकले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंगलवार को प्रेस कांफ्रेंस में मोदी को धन्यवाद देते हुए स्वीकार की।
विडंबना देखिए कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देकर सत्ता में आए मोदी ने न सिर्फ अपने उद्देश्य के विरु द्ध काम किया बल्कि पिछले सत्तर सालों में देश में पैदा हुई वैज्ञानिक सोच और सद्भाव के माहौल को बिगाड़ने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। राजनीतिक विमर्श को मजाक बनाकर रख दिया। इस बात की होड़ होने लगी कि कौन ज्यादा कट्टर बात कहेगा और कौन चौबीसों घंटे सातों दिन समाज को ध्रुवीकृत करके अगला चुनाव जीतने की योजना में लगा रहेगा। मोदी, अमित शाह तो एक दूसरे से होड़ कर ही रहे थे और गिरिराज सिंह उनसे संगत बिठाते रहते थे, लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उन्हें पीछे छोड़ते नजर आए।
चैनलों पर चलने वाली बहसों ने या तो महापुरु षों के दंगल का आख्यान रचा या फिर धर्म की अधार्मिंक व्याख्या का वितान खड़ा किया। लेकिन जनता ने इन तमाम भटकाओं और त्रेता युग में लौटने के आकषर्ण के बावजूद तीन राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा को हराकर दिखाया है कि अभी भी उसकी रोजी-रोटी का सवाल अहम है। उसे गाय, गीता और गंगा के नकली आख्यान से दबाया नहीं जा सकता। गाय की पूजा हमें क्रूरता से दूर संवेदनशील मनुष्य बनने की प्रेरणा देती है। मगर हम जब गाय के लिए मनुष्य को मारते हैं, तो मानवता को खोकर हिंसक पशु बन जाते हैं। गाय किसानों के लिए उपयोगी जानवर है, न कि उनकी फसल नष्ट करने वाली समस्या। आज गोवंश की भूमिका दूसरी वाली हो गई है। इसी तरह गीता हमें निष्काम कर्म की शिक्षा देती है। वे लोग भला कैसे गीता को मानने वाले कहे जा सकते हैं, जो सत्ता के लिए हर प्रकार के निम्नस्तरीय विमर्श खड़ा करते हैं।
निश्चित तौर पर आजाद देश के लोकतंत्र के भीतर लड़े जाने वाले चुनाव साधन की पवित्रता की अनिवार्यता की ज्यादा मांग करते हैं। इसी तरह गंगा के उपासक तो प्रोफेसर जीडी अग्रवाल जैसे लोग कहे जाएंगे जो उसे शहरीकरण और उद्योगीकरण से बचाने के लिए अपनी जान दे देते हैं न कि वे जो गंगा का भावनात्मक दोहन करके सत्ता तक पहुंचते हैं। कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष राहुल गांधी को पूजा-पाठ और धर्म का चोला पहना कर सत्ता में वापसी का कार्यक्रम बनाया। लेकिन चुनाव परिणाम के बाद राहुल ने रोजगार, किसानों के संकट और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आख्यान को बदलने का संकेत दिया है। इस सोच और कार्यक्रम से राहुल न सिर्फ मोदी के विकल्प के तौर पर उभरते दिख रहे हैं, बल्कि अराजकता के माहौल में एक व्यवस्था की बयार का अहसास दिलाते हैं। वे आधुनिक हैं। पारंपरिक बनकर जनमानस से जुड़ने में लगे हैं। कांग्रेस के सामने चुनौती है कि हिंदी इलाके में गांधी जैसा हिंदू बनकर कैसे काम करे। समान धर्म संगठनों और पार्टियों को महज सीटों और पदों से ऊपर उठकर व्यापक गठबंधन के लिए कैसे तैयार करे। महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती पर उनकी विरासत का दावा करने वाली पार्टी के लिए यह बड़ी चुनौती है।
राहुल का यह कहना इस मायने में उम्मीद जगाता है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की विचारधारा से कांग्रेस का मौलिक मतभेद नहीं है। वे गठबंधन के लिए बहुत खुले थे लेकिन वह हो न सका यानी कांग्रेस अपने भीतर सामाजिक परिवर्तन और समाजवाद को शामिल करने के लिए तैयारी कर रही है। मंडल और भूमंडल की यह छतरी तेजी से उभर रहे कमंडल के हमले से लोकतंत्र और संविधान को कितना बचा पाएगी, यह समय बताएगा। लेकिन राहुल, अखिलेश और मायावती के साथ मिलकर अगर संकल्प ले लें तो सफलता जरूर मिलेगी। मायावती और अखिलेश यादव की दिक्कत है कि राष्ट्रीय विमर्श खड़ा करने से घबराते हैं, जबकि राहुल तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उसे खड़ा करने में रु चि रखते हैं। यह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत है, तो देश के लिए भी। चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को इतना बड़ा मौका नहीं दिया है कि घमंडी हो जाए। जनता ने उसे आत्मविश्वास दिया है और भविष्य की राह दिखाई है। बताया है कि लोकतंत्र विकल्पहीन नहीं होता। भारतीय जनता के पास विकल्प फेंकने की अद्भुत क्षमताएं हैं, जिनका वह समय-समय पर प्रदशर्न करती है।
अच्छी बात है कि कांग्रेस और उसके अध्यक्ष विपक्षी एकता के लिए दृढ़ दिखते हैं। विनम्रता दिखाते हुए कहते हैं कि विपरीत विचारधारा से लड़कर उसे हराना चाहते हैं, लेकिन किसी को देश से मिटाना नहीं चाहते। निश्चित तौर पर संघ के लोकतंत्रीकरण और भाजपा के विवेकीकरण में ही देश का उद्धार है। कहने के लिए ही इस हार में प्रदर्शित प्रधानमंत्री की विनम्रता कांग्रेस के प्रभाव से ही उत्पन्न हुई है। आजकल एयर प्यूरीफायर का वह विज्ञापन काफी याद करने लायक है, जिसमें पति, पत्नी की इच्छा को ठीक से न समझते हुए घर पर सास को ले आता है, जबकि पत्नी कहती है कि ठीक से सांस नहीं आ रही है। हमारे लोकतंत्र की सांस लौटी है, और उसे लगातार शुद्ध करने की जरूरत है। कांग्रेस का दायित्व है कि दूसरे दलों को साथ लेकर लोकतंत्र की वायु को शुद्ध करे। भारतीय जनमानस खुली और साफ हवा में सांस लेना चाहता है। उसे हर चुनाव में एयरप्यूरीफायर चाहिए न कि नये किस्म का जानलेवा प्रदूषण।
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