जी-20 विश्लेषण : नुमाइशी रस्मअदायगी

Last Updated 06 Dec 2018 04:14:33 AM IST

इस वर्ष अभी हाल अर्जेंटीना में संपन्न जी-20 शिखर सम्मेलन कई मामलों में उल्लेखनीय रहा।


जी-20 विश्लेषण : नुमाइशी रस्मअदायगी

पहले यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि इस जमावड़े में औपचारिक सत्रों के बीच वाले अंतराल में अमेरिकी राष्ट्रपति की मुलाकात चीनी राष्ट्रपति शी से हो सकती है, जिनके देश के खिलाफ ट्रंप ने वाणिज्य युद्ध की घोषणा कर दी है। परंतु घर से निकलने के पहले ही ट्रंप ने यह सूचित कर दिया कि चीन के रु ख में कोई नरमी नहीं आई है अत: किसी अनौपचारिक वार्ता की कोई गुंजाइश नहीं। मगर यहीं रूस के राष्ट्रपति पुतिन से मिलने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई।

यह बात उनके यूरोपीय सहयोगियों को काफी खली क्योंकि इस सम्मेलन के कुछ ही दिन पहले पुतिन ने ऊक्रेन के तीन जंगी जहाजों को अजोल सागर में प्रवेश से रोक कर अपने कब्जे में कर लिया था। या जलमार्ग ऊक्रेन के एक प्रमुख बंदरगाह तक पहुंचाता है और जब से रूस ने क्रीमिया प्राय: द्वीप पर नाजायज सैनिक हस्तक्षेप से कब्जा किया है; विवाद का विषय रहा है। ऊक्रेन के राष्ट्रपति ने जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल से यह विनती की कि वह नाटो का नौसैनिक हस्तक्षेप कर उनके देश को रूसी उपनिवेश बनने से बचाएं। मार्केल ने उनसे हमदर्दी तो दिखाई परंतु यह साफ कर दिया कि ऊक्रेन नाटो का सदस्य नहीं अत: ऐसा नहीं किया जा सकता। यह भी जोड़ना जरूरी समझा कि ऐसे विवाद चाहे कितना भी दुर्भाग्यपूर्ण और विस्फोटक क्यों न हों, इनका समाधान सैनिक नहीं राजनयिक ही हो सकता है। जहां तक ट्रंप की पुतिन से मुलाकात का सवाल है, उन पर पहले ही यह आरोप लगाया जाता रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूसी गुप्तचर सेवा के हस्तक्षेप के बाद से ट्रंप का भयादोहन करने की क्षमता पुतिन ने हासिल कर ली है। उनके प्रति बेरुखी ट्रंप नहीं दिखला सकते। एक और मुलाकात चौंकाने वाली थी।

सऊदी अरब मूल के अमेरिकी पत्रकार खाशोगी की हत्या की साजिश में सीधे लिप्त होने का आरोप जिन सऊदी युवराज पर लगा है, उनके साथ पुतिन ने बहुत गर्मजोशी से दोस्ताना मुलाकात की। मुहम्मद बिन हसन को ट्रंप और पुतिन के अलावा किसी और ने अहमियत नहीं दी। उनके साथ बहिष्कृत सदस्य जैसा बर्ताव किया। ग्रुप फोटो खिंचवाने के बाद वह मंच से अदृश्य हो गए थे। फिर तभी दिखलाई दिए, जब पुतिन ने उन्हें ‘अपने खेमे’ में इज्जत बख्शी। दूसरे शब्दों में, अमेरिका, रूस और सऊदी अरब की मंडली अलग-थलग बनी रही। कुछ इस अंदाज में बर्ताव करती कि उन्हें दूसरों के अनुमोदन की जरूरत नहीं। भारतीय प्रधानमंत्री ने यथासंभव यह दर्शाने का प्रयास किया कि भारत अन्य प्रतिनिधियों के साथ भी सार्थक संवाद कर रहा है, मगर सचाई यह है कि वह चीन की बेरु खी से खिन्न लगातार अमेरिका की तरफ खिंचता जा रहा है। अमेरिकी प्रभाव में ही उसने ईरान के ऊपर सऊदी अरब को तरजीह दी है। ‘खलनायक’ के रूप में जिस सऊदी राजकुमार का चितण्रमीडिया में हो रहा है, उससे ‘भारत के राष्ट्रहित में’ मिलने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। उन्हें यह आश्वासन मिला कि ईरान पर लगे प्रतिबंधों से भारत की तेल आपूर्ति को सऊदी अरब संकटग्रस्त नहीं होने देगा।
यहां यह बाद रेखांकित करने की दरकार है कि सऊदी अरब भारत पर कोई खास एहसान नहीं कर रहा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें गिर रही हैं और अपनी खुशहाली बरकरार रखने के लिए तेल उत्पादन में अरबों को कटौती पड़ सकती है। दूसरी तरफ उत्तरी अतलांतिक में अमेरिकी शेल तेल का उत्पादन बढने से सऊदी अरब को नये बाजार तलाशने पड़ेंगे। एक अन्य फोटोग्राफ में मोदी जापान के प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ खड़े दिखलाई दिए। इसका उद्देश्य यह संदेश देना था कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यह तीनों देश सहकार-सहयोग को पुष्ट करेंगे। चाहे प्रत्यक्ष रूप से यह नहीं कहा गया, यह अभियान दक्षिण पूर्व एवं पूर्वी एशिया में चीन के आक्रामक विस्तारवाद का प्रतिरोध करने की परियोजना ही है। हालांकि यह समझ पाना कठिन है कि कैसे भारत इसमें कोई सार्थक भूमिका निबाह सकता है। बहरहाल। हमारी समझ में यह सम्मेलन जी-20के क्षय या हृास का ही लक्षण है। जिस संयुक्त ‘परिवार’ का गठन प्रमुखत: आर्थिक नीतियों के दूरदर्शी समायोजन और सार्वभौमिक मुद्दों पर सहमति बना तनाव घटाने के लिए किया गया था, वह अचानक सिकुड़ कर तीन निरंकुश तानाशाही मिजाज वाले नेताओं के एक जगह मिलने की घटना बन कर रह गया है।
ट्रंप, पुतिन और शी के ही इर्द-गिर्द शेष उपग्रह मंडराते रहते हैं। यही तीन अपनी इच्छानुसार कार्यसूची तय करते हैं-बदलते हैं। ट्रंप के लिए न तो पर्यावरण का संकट वास्तविक है और न ही मानवाधिकारों का मुद्दा। सऊदी अरब हो या रूस अमेरिका अपने स्वार्थ के दबाब में मौन धारण कर सकता है। शी की चुप्पी का विश्लेषण कठिन है। अमेरिका एक सीमा का उल्लंघन करने से कतराता है। ट्रंप यह तय कर चुके हैं कि स्वदेश हित में वह यूरोप को बेसहारा छोड़ सकते हैं। चाहे रूस के हमलावर जुझारू तेवर हों या शरणार्थियों की समस्या। यूरोपीय समुदाय ब्रेक्सिट के बाद से बुरी तरह विभाजित है। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस संकट से अपने देश को उबारने में समाधान में बुरी तरह असफल रही हैं। फ्रांस पिछले दशक की सबसे भयानक सामाजिक उथल-पुथल और अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। फ्रांस हो या जर्मनी यह दोनों बड़ी ताकतें जी-20 में अपनी पारंपरिक संतुलनकारी अग्रगामी भूमिका नहीं निभा सकती।
भारत के लिए यह समझना उपयोगी होगा कि जिस तरह ट्रंप ने विश्व व्यापार संगठन का अवमूल्यन किया है, वैसे ही वह दूसरे उन सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थानों-संगठनों को बधिया बनाने में लगे हैं। इससे भले ही अमेरिका को तात्कालिक लाभ होता हो भारत के हितों का संरक्षण अनायास सुनिश्चित नहीं हो सकता। बहुपक्षीय राजनय तभी लाभदायक सिद्ध हो सकता है, जब सभी पक्ष उभयपक्षीय नजरिए से सोचना बंद करें और पारदर्शी संवाद से सहमति  के निर्माण के लिए तत्पर हों। इस घड़ी यह साफ है कि भूराजनैतिक और एकाधिकारी वर्चस्व स्थापित करने की होड़ ने जी-20 को एक नुमाइशी सालाना रस्मअदायगी वाले समारोह में बदल दिया है। निकट भविष्य में इसमें बदलाव की संभावना नजर नहीं आती, हमारा हित अपने पड़ोस और मित्र देशों पर अधिक ध्यान देने में है।

पुष्पेश पंत


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