अयोध्या : भाजपा की दलदल होती जमीन
यह अंदेशा तो 2014 के लोक सभा चुनाव में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार से मतदाताओं की नाराजगी और साथ ही खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले विपक्ष के अंतर्विरोधों का लाभ उठाकर भाजपा के देश की सत्ता में आ जाने के फौरन बाद से ही जताया जाने लगा था कि जैसे ही उसके जनादेश की चमक फीकी पड़ेगी या वह खुद को वायदाखिलाफियों के आक्रोश से घिरती देखेगी, अपने पुराने साम्प्रदायिक एजेंडे पर लौट जायेगी।
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भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बारम्बार दावा करते रहते थे कि उनकी जीत वास्तव में उनके महानायकत्व और विकास के गुजरात मॉडल की जीत है। तब जानकारों द्वारा यह भी कहा ही जा रहा था कि अगले चुनाव वर्ष यानी 2019 के लोक सभा चुनावों से पहले भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा अयोध्या में कोई न कोई अप्रत्याशित हड़बोंग अवश्यंभावी है, क्योंकि उनके पास तब तक पुरानी पड़ चुकी नरेन्द्र मोदी सरकार के विरुद्ध फैली एंटीइन्कम्बैंसी से निपटने का कोई और चारा होगा ही नहीं। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास के एजेंडे पर वोट मांगते-मांगते अचानक लोगों को श्मशान व कब्रिस्तान और ईद, होली व दीवाली का भेद याद दिलाने लगे तो यह अंदेशा और पक्का हो गया।
लेकिन यह अनुमान किसी को नहीं हुआ कि 2019 के ऐन पहले भाजपा अयोध्या में ‘वहीं’ राममंदिर निर्माण के अपने वायदे को पूरा न कर पाने को लेकर अपनों द्वारा ही इस कदर घेर ली जायेगी कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगियों के बीच भी अविसनीय होने लगेगी। इतना ही नहीं, उसके खेमे के अंतर्विरोध इतने गहरे हो जायेंगे कि उसके लिए ‘हिन्दुत्व की सबसे बड़ी ध्वजवाहक’ का अपना तमगा बचाने में मुश्किलें आने लगेंगी। इस क्रम में उसे पहले विश्व हिन्दू परिषद के बागी प्रवीण तोगड़िया से झंझट या कि प्रतिद्वंद्विता करनी पड़ेगी, फिर राममंदिर आंदोलन की ‘पुरानी साथी’, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की घटक और मोदी सरकार की साझीदार शिवसेना की आक्रामकता के खिलाफ रक्षात्मक रु ख अपनाना व डैमेज कंट्रोल पर उतरना पड़ेगा।
फिलहाल, अयोध्या में इधर जो कुछ हो रहा है, वह इसी एक अर्थ में अप्रत्याशित है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते, जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ‘राममन्दिर निर्माण का वादा याद दिलाकर जनता को भड़काने’ वाले ‘सेकुलरिस्टों’ को बेहद आराम से इस अंदाज में झिड़क देते थे, जैसे कहना चाहते हों कि रामभक्तों के इस आंतरिक मामले से तुमसे क्या मतलब? उन्हें उम्मीद थी कि अयोध्या की ‘प्रतिष्ठा’ के लिए सरकारी योजनाओं की संख्या बढ़ाकर, वहां सरकारी दीपावली मनाकर, भगवान राम की प्रतिमा लगाकर और फैजाबाद जिले व मंडल का नाम अयोध्या रखकर वे अपने समर्थक रामभक्तों को यह सोचने को विवश कर देंगे कि एक राममंदिर नहीं तो क्या हुआ, उन्होंने इतनी ढेर सारी चीजें तो उनकी झोली में डाल ही दी हैं। लेकिन जैसे ही आक्रामकता में उनकी विश्व हिन्दू परिषद को भी मात कर देने वाली शिवसेना ‘पहले मंदिर, फिर सरकार’ का नारा लगाती हुई महाराष्ट्र से अयोध्या आकर राममंदिर निर्माण की तारीख पूछने पर आमादा हुई और डराने लगी कि वह भाजपा से हिन्दुत्व का एजेंडा ही छीन लेगी, समूची भाजपा के हाथों के तोते उड़ गये। फिर तो उसको विहिप को डैमेज कंट्रोल के लिए धर्मसभा आयोजित करने को आगे करना ही पड़ा। फिर भी बात कुछ खास बनी नहीं क्योंकि देश की सरकार का नेतृत्व कर रही पार्टी के साथ रहती हुई विहिप आक्रामकता की शिवसेना जैसी हदें पार नहीं कर सकती थी।
प्रसंगवश, शिवसेना ने पहले तो उसे उसके किले अयोध्या तक में प्रचार में शिकस्त दी, फिर उसके सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने उसके मर्मबिन्दुओं को चुन-चुनकर उन पर तीर चलाये। इसे सिर्फ संयोग कहकर खारिज नहीं किया जा सकता कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मध्य प्रदेश की चुनाव सभाओं में मतदाताओं के सामने कांग्रेस नेता राजबब्बर द्वारा उनकी मां को गाली देने का दु:खड़ा रो रहे थे, उनकी सरकार में साझीदार शिवसेना के सुप्रीमो उद्धव ठाकरे अयोध्या में उन्हें कुम्भकर्ण के सम्बोधन से नवाज रहे और उनके 56 इंच के सीने में धड़कने वाले दिल पर सवाल उठा रहे थे। कह रहे थे कि वे इस कुम्भकर्ण को जगाने आये हैं और चाहते हैं कि 2019 से पहले राममंदिर का निर्माण हो जाये ताकि भाजपा अनंतकाल तक इस मुद्दे का लाभ उठाने की स्थिति में न रहे। उनके साथी छुटभैये भाजपा के इस अंतर्विरोध को भी गहरा रहे थे कि उसका मुख्यमंत्री ‘अयोध्या-अयोध्या’ की रट लगाता और अयोध्या आता नहीं थकता तो प्रधानमंत्री के लब पर कभी अयोध्या का नाम आता ही नहीं। उसका कार्यकाल बीत चला है और वह अब तक रामलला के दर्शन तक करने नहीं आया। कानून बनाकर राममंदिर निर्माण का वादा निभाने के प्रति भी वह गम्भीर नहीं ही है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान आदि के विधानसभा चुनावों में भी राममंदिर मसले का जिक्र अकेले योगी ही कर रहे हैं, मोदी नहीं।
भाजपा की ओर से अभी तक इसका कोई जवाब नहीं आया है। उसने इधर जिस तरह अपनी चुप्पी को भी रणनीति बनाना आरंभ किया है, उसके तहत शायद आये भी नहीं, लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार के पिछले साढ़े चार से ज्यादा सालों में उसने इस मसले को लेकर जिस तरह अपनी असुरक्षा ग्रंथि का पता न सिर्फ अपने विरोधियों बल्कि सहयोगियों को भी दिया है, उससे आगे भी उसकी मुश्किलें कम नहीं होने वालीं। जानकारों की मानें तो उलटे वे इस हद तक भी बढ़ सकती हैं कि उसके लिए 2014 की तरह विकास और राममंदिर दोनों के आकांक्षी मतदाता समूहों को एक साथ साधना कतई संभव न रह जाये। अभी ही उसकी असुरक्षा ग्रंथि उसे शिवसेना से इतना पूछने की भी इजाजत नहीं दे रही कि आज वह किस मुंह से अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए सारे हिन्दुओं की एकता की बात कर रही है, कल तो वह महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय हिन्दुओं का रहना और जीना दूभर किये हुए थी! भाजपा की इस असुरक्षा ग्रंथि का मूल कारण यह है कि उसने 2014 में देश की सत्ता में आने के लिए ऐसी शक्तियों के इस्तेमाल से कतई परहेज नहीं किया, जो दिखावे के लिए भी लोकतांत्रिक नहीं होना चाहतीं ओर जिन्हें लोकतंत्र के न्यूनतम तकाजों को पूरा करना भी गवारा नहीं है। यही कारण है कि उसे इन शक्तियों के सामने अपने प्रधानमंत्री के किये-धरे की जवाबदेही लेना भी भारी पड़ रहा है।
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