राजनीति : फिसलन का दौर
भारत में पिछले करीब एक दशक से लगातार बड़े-बड़े नेताओं के द्वारा अमर्यादित बयान दिए जा रहे हैं, यह बयानबाजी आज भी जारी है।
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लगातार राजनीति का स्तर इस मामले में गिरता जा रहा है ऐसा नहीं है कि किसी एक पार्टी के नेता ही इस तरह के अमर्यादित भाषाओं का प्रयोग कर रहे हैं। इस तरह के अमर्यादित भाषा का प्रयोग लगभग हर छोटे और बड़े पार्टी के नेताओं की तरफ से की जा रही है जिससे किसी एक पार्टी पर किसी तरह का आरोप लगाना गलत होगा। भारत में प्रधानमंत्री को ‘चोर’ कहा जाता है जो बहुत ही अमर्यादित और निंदनीय भाषा है वहीं दूसरी तरफ सरकार की तरफ से ही मुख्य विपक्षी दल के नेता को ‘पप्पू’ कह कर संबोधित करना भी काफी अशोभनीय है। दिन-प्रतिदिन नेताओं की भाषा अमर्यादित होती जा रही है। इसी के साथ राजनीति का स्तर भी गिरता जा रहा है।
कुछ ऐसा ही पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में देखे को मिल रहा है। इस दौरान मुद्दों वाली लड़ाई के बजाए निचले स्तर की बयानबाज़ी हो रही है। सत्ता के लालच में नेताओं की बदजुबानी आसमान को छूने लगी है। वास्तव में अमर्यादित और स्तरहीन भाषा पूरी तरह से लोकतंत्र के विपरीत है। इससे हमारी लोकतांत्रिक राजनीति बुरी तरह प्रभावित हो रही है। कांग्रेस के नेताओं ने एक बार फिर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया है। किसी ने प्रधानमंत्री मोदी की जाति पूछी है, तो कोई प्रधानमंत्री की मां का मज़ाक उड़ा रहा है। सवाल ये है कि चुनाव मुद्दों से जीते जाएंगे या एक दूसरे के खिलाफ अमर्यादित भाषा का प्रयोग करके जीते जाएंगे।
सच तो यह है कि राजनीति से नीति ख़्ात्म हो चुकी है। स्वस्थ राजनीति की बात नहीं रही। दलीय राजनीति का अपना कोई वसूल नहीं दिखता। उसका मुख्य मकसद सिर्फ सत्ता के आसपास केंद्रित रहता है। वर्ष 2014 में हुए लोक सभा और यूपी के आम चुनाव के बाद से भाषायी मर्यादा की आबरू लुट चुकी है। गुजरात चुनाव में इसका गला घोंट दिया गया। नीच, औरंगजेब, खिलजी, मौत का सौदागर, जनेऊ, जाति, धर्म और जाने क्या-क्या। अहम सवाल है कि इस तरह के मसले उठा कर जनभावनाओं को भड़काने और सियासी लाभ लेने की कोशिश क्यों की जाती है, क्योंकि सत्ता पक्ष के पास जहां अपनी विफलताओं का जवाब नहीं रहता, वहीं विपक्ष अपने बीते अपने बीते हुए कार्यकाल की गलतियां छुपाने के लिए रास्ता ढूंढ़ता दिखता है। इसलिए आसमान गिराने की अफवाह फैलाई जाती है। हमें इससे बचना होगा।
चुनाव सरकारों के कामकाज का परीक्षण होता है। लेकिन जान बूझकर मसलों से जनता का ध्यान बांटने की कोशिश की जाती है जबकि राजनेताओं को अपने भाषण में संयम और शालीनता का परिचय देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की 1996 के निर्णय को ध्यान में रखें तो उसमें साफ-साफ लिखा था कि राजनीतिक पार्टयिों के बड़े नेता की उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी है कि अपनी भाषा का उपयोग ऐसा करें जिससे उनसे नीचे वालों को प्रेरणा मिले।
सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में शब्दों की मर्यादा अनिवार्य नहीं है? क्या गालियां देकर वोट बैंक का धुव्रीकरण होता है और गाली देने वाले पक्ष को ज्यादा वोट हासिल होते हैं? अभी तक का अनुभव तो यही बताता है कि जनता की प्रतिक्रिया बेहद तल्ख रही है और उसने गालियों के विपरीत जनादेश दिए हैं। फिर राहुल गांधी क्या सोच रहे हैं? कांग्रेस मोदी सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और चुनावी वादों के खिलाफ खूब अभियान चलाए।
यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री की गरिमा पर तो कालिख मत मलो। ऐसा करना देश का ही नहीं, लोकतंत्र का भी अपमान है। वैसे देश की राजनीति में अभद्र भाषा और अपशब्दों का इतिहास काफी समृद्ध है। नेताओं की भाषा इस इतिहास में नये-नये अध्याय जोड़ती रही है। राजनीति में भाषा की मर्यादा का ख्याल कोई पार्टी नहीं रखती है। फिर भी राजनीति अपनी जगह है, लेकिन राजनीतिक स्कोर के लिये इस तरह की राजनैतिक पैंतरेबाजी को सही नहीं ठहराया जा सकता। क्या यह सही समय नहीं है, जब हमारे नेता आत्मचिंतन करें कि वे किस तरह का आचरण करने लगे हैं। बाहर ही नहीं, कई बार तो संसद तक में असंसदीय शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
बहरहाल, वर्तमान राजनीति में जिस प्रकार से भाषा की मर्यादाएं टूट रही हैं, वह सचमुच गहरी चिंता का विषय है। एक दौर था जब विपक्षी दलों के प्रति भी बेहद आदर एवं सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता था। आज सत्ता पक्ष हों या विरोधी दलों के नेता दोनों की जुबान बुरी तरह से फिसलने लगी है। राजनातिक सहिष्णुता नाम मात्र को देखने को मिलती है। सवाल राजनीति गिर रही है या राजनेता, कहना मुश्किल है। यह चिंतन का विषय है।
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