वैश्विकी : चीनी गोद में जाता पाक
पाकिस्तान को 1.66 अरब डॉलर की अमेरिकी सुरक्षा सहायता रोके जाने से दोनों देशों के संबंध और ज्यादा खराब हो गए हैं।
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राष्ट्रपति ट्रंप का मानना है कि अमेरिका पाकिस्तान सरकार को अरबों डॉलर की सैनिक और सुरक्षा सहायता देता है, लेकिन इस्लामाबाद अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सैनिकों को मारने वाले आतंकवादी समूहों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं करता। वहां की सरकार ने अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को अपने मुल्क में छिपा कर रखने में उसकी मदद की, जो अमेरिका में 11 सितम्बर 2001 में र्वल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले का मास्टर माइंड था।
पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों के बीच तनाव का प्रमुख कारण अफगानिस्तान में तालिबान हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप अपने पूर्ववर्त्ती राष्ट्रपतियों की तरह अफगानिस्तान की सीमा पर सक्रिय तालिबान और हक्कानी आतंकी समूहों पर नियंत्रण करने के लिए पाकिस्तान सरकार को समझाने में विफल रहे हैं। इसी हताशा और निराशा के कारण डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान को सैनिक मदद रोकने की घोषणा की है। हालांकि एक दशक पहले भी अमेरिकी राजदूत क्रोकर से बातचीत में पूर्व पाकिस्तानी जनरल कियानी ने माना था कि पाकिस्तान जानता है कि काबुल में अमेरिकी सैनिक चंद दिनों के मेहमान हैं। वे आते हैं और जाते हैं, जाहिर है कि ऐसे में इस्लामाबाद तालिबान और हक्कानी को अपना आजीवन शत्रु बनाना नहीं चाहेगा।
पाकिस्तान को अमेरिकी सैनिक मदद रोकने का असर इस्लामाबाद पर ही नहीं, अमेरिका के लिए भी आर्थिक बोझ बढ़ाता है। अफगानिस्तान को वस्तुओं की आपूर्ति करने वाले मागरे को पाकिस्तान नियंत्रित करता है। पाकिस्तान ने नवम्बर 2011 से जुलाई 2012 तक इन आपूर्ति मागरे को बंद कर दिया था। उस समय अमेरिका को अफगानिस्तान में तैनात अपने सैनिकों को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति वैकल्पिक मार्ग से करनी पड़ी थी और इसका खर्च प्रतिमाह 17 अरब डॉलर से बढ़ कर 104 अरब डॉलर हो गया था।
पाकिस्तान भले ही यह कहे कि अमेरिकी सहायता रुकने से उसकी आर्थिक स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन इसका गंभीर असर पड़ेगा। पाकिस्तानी सैनिक सत्ता प्रतिष्ठान देश में सबसे अधिक प्रभुत्व रखने वाला सत्ता प्रतिष्ठान है। अमेरिकी सहायता का बड़ा हिस्सा पाक सेना अपने पर खर्च करती है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की अफगान और दक्षिण एशिया की नई नीति को लेकर पाकिस्तान का सत्तारूढ़ प्रवर वर्ग दुविधा में है। यदि पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिका का सख्त रुख कायम रहता है तो और सहायता रोकने की नीति जारी रहती है तो उसका चीन की तरफ जारी झुकाव और अधिक हो सकता है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की हाल में हुई चीन-यात्रा का आशय भी यही था। अमेरिका पाकिस्तान और चीन के त्रिकोणीय रिश्तों के बीच पाकिस्तान के कराची स्थित बीजिंग के वाणिज्य दूतावास पर बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी के आत्मघाती आतंकवादियों द्वारा किया गया हमला यह सवाल खड़ा करता है कि इस घटना से वाशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच आई कड़वाहटों को क्या कम कर सकता है।
अमेरिकी सहायता रुकने के कारण पाकिस्तान में अगर किसी तरह कि राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता पैदा होती है तो चीन मूकदर्शक नहीं रह सकता। पाकिस्तान में चीन की अनेक रणनीतिक और आर्थिक परियोजनाएं चल रही हैं। अगर चीन अमेरिका द्वारा पैदा की गई आर्थिक शून्यता को भरता है तो वह पाकिस्तान को देने वाली मदद की शतरे को कठोर कर सकता है। चीन पाकिस्तान से यह अपेक्षा करेगा कि पाकिस्तान उन घरेलू विद्रोही समूहों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे जो उसकी क्षेत्रीय आर्थिक परियोजनाओं के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं।
गौरतलब है कि कराची हमले की जिम्मेदारी लेने वाला बलूच लिबरेशन आर्मी ने कहा है कि वह अपनी जमीन पर चीनी सेना के विस्तारवादी प्रयासों को बर्दाश्त नहीं करेगी। जाहिर है कि चीन अपने को ऐसी स्थिति में देखना नहीं चाहेगा कि वह पाकिस्तान से कोई लाभ नहीं ले सके। जाहिर है कि पाकिस्तान ऐसी स्थिति में अफगानिस्तान की आपूर्ति लाइन को बंद नहीं करेगा और अफगान नीति पर अमेरिका की पाकिस्तान पर निर्भरता उसे मदद रोकने की नीति को वापस लेने के लिए बाध्य करेगा।
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