मीडिया : मीडिया और मंदिर

Last Updated 25 Nov 2018 04:15:53 AM IST

हम एक बार फिर मंदिर निर्माण के उन्माद की खबरों से घिरे हैं।


मीडिया : मीडिया और मंदिर

हैरत यह है कि इस बार हमारे सेक्युलर बुद्धिजीवी और कथित ‘सत्यवादी’ और ‘तटस्थ’ मीडिया उतना भी आलोचनात्मक नहीं नजर आता जितना ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के पुराने नारे से संचालित रथयात्रा कवरेज के दौरान रहा। मंदिर बनाने की खबर लगभग दो महीने रोज बजती थी।-‘सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे’।-‘रघुकुल रीति सदा चलि आई प्राण जाहि पर वचन न जाई’! जैसे नारे टीवी में गूंजते रहते थे, धर्मोन्माद बढ़ाते रहते थे।
छह दिसम्बर को बाबरी मस्जिद तोड़ दी गई। पहली बार हिंदुत्ववादी तत्वों की ताकत का पता चला। दंगे हुए। संविधान, कानून अपनी जगह रहे। एक लघु धर्म-युद्ध जैसा हुआ जिसे नाना कारणों से हिंदुत्ववादी जीते। उनके हौसले बढ़े। एक चबूतरा बन गया। रामलला की मूर्ति स्थापित हो गई। ल्ेकिन तब मंदिर मीडिया में अन्य बहुत-सी खबरों के बीच एक खबर की तरह आता था। लेकिन इन दिनों तो अधिकांश खबर चैनलों को देख कभी-कभी महसूस होता है कि मंदिर निर्माण का मुद्दा उन्होंने गोद ले लिया है, और इस बार वे बनवा के ही रहेंगे। 
यह कुछ तो नोम चोम्स्की के ‘मेन्युफैक्चरिंग कंसेंट’  वाले अमेरिकी मीडिया की तरह नजर आता है,  लेकिन कुछ उससे आगे का संस्करण। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अधिकांश मीडिया के हिंदूकरण का क्षण है। मीडिया और खबर के बीच की जरूरी दूरी खत्म हो गई लगती है। एंकरों से लेकर रिपेर्टरों तक ने हिंदुत्ववाद के हल्ले में उन ‘कैच लाइनों’ तक को अपना बना लिया है, जिनको कई हिंदुत्ववादी संगठनों ने मंदिर अभियान की खातिर ईजाद किया है। उदाहरण देखें : एक अंग्रेजी चैनल की रिपोर्टर फैजाबाद की बाईलाइन से एक हिंदुत्ववादी संगठन के प्रवक्ता से बात कर रही है। प्रवक्ता कह रहा है : ‘जो सालों साल से अयोध्या पर कलंक लगा था, उसे राम भक्तों ने 17 मिनट में ढहा दिया। कागज बनाने में कितना समय लगता है? यूपी और केंद्र, दोनों में भाजपा की सरकार है।

रिपोर्टर-आपका मतलब क्या है?
-यह कि अध्यादेश बनाने में कितना समय लगता है? -आप उकसा रहे हैं?
-जो बोलना था, बोल दिया। गलत सही जनता तय करेगी। कुछ देर बाद यही रिपोर्टर सुझाव-सा देने लगती है : क्यों न सब भाई-भाई होकर हाथ मिलाकर एक साथ आएं..। इस बातचीत की खबर देना तो समझ में आता है, लेकिन रिपोर्टर का सुझाव देना क्या उचित है? इसे कहते हैं खबर के प्रभाव में आ जाना, खबर के साथ सिंक करना! किसी मीडियाकर्मी का ऐसा करना उचित नहीं है। खबर से मीडिया की जरूरी दूरी होनी चाहिए। यह ‘जर्नलिज्म’  नहीं,  प्रकारांतर से ‘एक्टिविज्म’ है। एक हिंदी चैनल दिन भर अपने स्क्रीन पर ‘सौगंध राम की खाते हैं’ के समान नारा लिखकर चरचा में मंदिर बनावाता रहता है। अंग्रेजी और हिंदी के अधिकतर चैनल मंदिर मुद्दे को लगभग अपना-सा बनाकर पेश करने के आदी हो चले हैं।
अब तो औपचारिक टोकाटोकी या किंतु-परंतु तक  नहीं सुनाई पड़ते। इस बार के मंदिर अभियान ने अधिकांश खबर मीडिया को तो अपने रंग में रंग ही लिया है, मंदिर निर्माण के एजेंडे को ‘कानून बरक्स जन भावनाओं’ में बदल दिया है, और मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसके आगे लगभग समर्पण कर दिया है। पिछले दिनों मीडिया में बार-बार दुहराई गई   मंदिरवादी की बाइटों ने मंदिर निर्माण के अभियान के बरक्स ‘इम्यूनिटी’ का माहैाल पैदा कर दिया है। केस अदालत में है, लेकिन हिंदुत्ववादियों का अभियान शुरू है, और मीडिया उसको अपना-सा बनाकर पेश करता है। ‘अब न बनेगा तो मंदिर कब बनेगा?’, ‘मंदिर बनाने से अब कोई नहीं रोक सकता है’, ‘केंद्र में हमारी सरकार, प्रदेश में हमारी सरकार। किसी की मजाल जो रोके’, ‘मंदिर बनाने का कानून बनाओ या अध्यादेश लाओ’, ‘क्या मंदिर की बात नोटंबदी की तरह एक जुमला थी?..।’
शिवसेना, विहिप, संघ और भाजपा आदि मंदिर अभियान चलाएं, यह समझ में आता है। इन्होंने अपने इरादे कभी छिपाए भी नहीं हैं, और यह सब वे आने वाले चुनावों में वोट लेने के लिए कर रहे हैं। यह भी उनकी राजनीति का हिस्सा माना जा सकता है। कांग्रेस के कुछ नेता भी वोटों की खातिर कह सकते हैं कि मंदिर सिर्फ कांग्रेस ही बनवा सकती है, आदि इत्यादि।
हम सब जानते हैं कि हमारे अवसरवादी दल सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं, ल्ेकिन हमारे खबर मीडिया के एक बड़े हिस्से को यह क्या हुआ है, जो अपना ‘मीडिया कर्म’ भूल कर ‘मंदिर एक्टिविस्ट’ की भूमिका में आने लगा है।
यह न देश के लिए शुभ है न मीडिया के लिए।

सुधीश पचौरी


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