मुद्दा : जानवरों से टकराते इंसान
करीब सौ साल पहले शेर-बाघ-तेंदुए इस पृथ्वी के शक्तिशाली जानवरों में से एक थे। अब वे उस स्वर्णिम अतीत की छाया भी नहीं रह गए हैं।
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इंसानों ने कंक्रीट की ऐसी चारदीवारी जंगलों के चारों ओर खड़ी कर दी है कि रहे-बचे असली वनों में सिमटे इस शानदार जानवर का खाना-पीना तक दुार हो गया है। पर उसकी ताकत से हम अब भी खौफजदा हैं। महाराष्ट्र में आदमखोर बताकर मारी गई बाघिन अवनि का मामला कुछ ऐसा ही है। पर्यावरण मंत्री मेनका गांधी ने उसे राज्य के वनमंत्री के इशारे पर निर्दयतापूर्वक की गई हत्या तक कहा है। ओडिशा में भी सतकोसिया टाइगर रिजर्व में एमबी-2 यानी महावीर नामक बाघ को भी आदमखोर बता कर मारा गया है। ऐसी ही एक घटना यूपी के पीलीभीत जिले के दुधवा टाइगर रिजर्व से सटे इलाके में हुई। वहां गुस्साए ग्रामीणों ने एक व्यक्ति की मौत के बाद एक बाघ को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डाला। दो साल पहले ऐसा ही एक किस्सा देश की राजधानी दिल्ली से सटे औद्योगिक शहर गुरु ग्राम में घटित हुआ था। तब वहां एक तेदुंए के उत्पात और फिर उसे ग्रामीणों द्वारा पीट-पीटकर मार डालने की घटना ने पूरे देश में बाघ-तेंदुओं की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाया था।
ये गिनी-चुनी घटनाएं नहीं हैं। जंगलों से निकलकर शहरों और कस्बों में बिल्ली प्रजाति के इस सबसे बड़े जंगली जीव की घुसपैठ के अनिगनत किस्से अखबारों में तकरीबन रोज ही छाए रहते हैं। सवाल है कि आखिर उनके सामने जंगल से बाहर निकलने और इंसानी आबादी पर धावा मारने की ऐसी क्या मजबूरी आ पड़ी है? अभयारण्यों और चिड़ियाघरों में शेर-तेंदुए अब भी दिख जाते हैं। साथ ही, बेहिसाब शहरीकरण और कटते जंगलों के कारण क्षुब्ध वनराज (बाघ और तेंदुए) कभी-कभार मानव आबादी के बीचोंबीच भी आ ठिठकते हैं। हालांकि मनुष्य और बाघ के बीच अस्तित्व की वैसी लड़ाई के किस्से अब कहीं सुनाई नहीं पड़ते, जो हमारी प्राचीन लोककथाओं में भरे पड़े हैं। पर हाल के वर्षो में हुए हादसों ने एक बार फिर यह सवाल उठा दिया है कि शेर-तेंदुओं को खतरा हम इंसानों से है या वे खुद खतरे में हैं। चार साल पहले 2014 तो यूपी में आदमखोर बाघिन के शिकार को निकले एक विधायक के कारनामों के चर्चे थे तो बाद में इसी राज्य के औद्योगिक शहर मेरठ में तेंदुए के उत्पात के भी काफी समाचार थे। तराई के इलाकों में तो बाघ के आदमखोर हो जाने और वहां के माहौल में खौफ पैदा हो जाने की घटनाओं की बारम्बारता इधर कुछ वर्षो में काफी बढ़ी है।
शहरों में बाघ-तेंदुए का घुस आना सच में अचरज की बात है। कहने को तो अब ऐसे ज्यादातर शहरों के आसपास कहीं वैसा घना जंगल भी नहीं होता है, जहां से भोजन की तलाश में भटकता हुआ यह वन्य जीव गलती से शहर में आ पहुंचता हो। पर सच्चाई यह है कि ऐसे ज्यादातर इलाके वन्यजीव अभयारण्यों के नजदीक ही हैं। गुरु ग्राम में आया तेदुंआ अरावली के जंगलों से ही यहां पहुंचा होगा। हालांकि हरियाणा सरकार अरावली की पहाड़ियों में बाघ-तेंदुओं की मौजूदगी से इनकार करती रही है। इसी तरह घुसपैठ से आक्रांत रहने वाले यूपी के लखीमपुर खीरी और पीलीभीत जिले से दुधवा नेशनल पार्क तकरीबन सटे हुए ही हैं। मेरठ भी उत्तराखंड के राजाजी राष्ट्रीय वन्यजीव अभयारण्य से ज्यादा दूर नहीं है। यही हाल देश के दूसरे शहरी इलाकों का है।
अंधाधुंध तरीके से जंगलों को काटा जाना एक बड़ा कारण तो है, पर संरक्षित वनों के इर्दगिर्द तेजी से बसती मानव आबादियां भी जंगलों पर दबाव बना रही हैं। यह दबाव ऐसा है कि जंगली जीवों को अपना स्वाभाविक घर छोड़कर भोजन के लिए बस्तियों पर धावा बोलना पड़ रहा है। बाघ-तेंदुए की तरह शेरों का जीवन भी संकट में है। गुजरात का गिर शेरों के अभयारण्य के लिए जाना जाता है। लेकिन वहां मनुष्यों की आवाजाही बढ़ गई है, जिससे शेर आसपास के गांवों में भागते हैं। कुछ साल पहले इसी भागदौड़ में कई शेर खेतों की बाड़ में दौड़ते करंट के स्पर्श से मर गए। कई शेरों ने कुंओं में गिरकर दम तोड़ दिया। सच्चाई यह है कि जंगलों में इंसानी दखल लगातार बढ़ रहा है। देश में कई जगहों पर जंगलों के बीच सड़कें और रेल पटिरयां मौजूद (मिसाल के तौर पर उत्तराखंड के राजाजी राष्ट्रीय वन्यजीव अभयारण्य में) हैं जिन पर चौबीसों घंटे वाहनों का आवागमन और चिल्लपौं वन्यजीवों की जिंदगी में खलल डाल रहा है। कई स्थानों पर जंगलों के बीच होने वाले खनन की गतिविधियों ने भी जंगली जीवों का चैन छीन लिया है।
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