सबरीमाला : किस-किस की पोल खुली

Last Updated 21 Nov 2018 05:45:20 AM IST

एक पखवाड़े बाद जब केरल का प्रसिद्ध तीर्थस्थल सबरीमाला चिथिरा अत्ता विशेषम के लिए दो दिनों तक खुला तो इसमें वे सब मुद्दे ज्यादा साफ ढंग से सामने आए जो हाल में इस स्थल को विवादास्पद बनाए हुए थे।


सबरीमाला : किस-किस की पोल खुली

चिर कुंआरे माने जाने वाले देव अयप्पा के इस मंदिर में 10 से पचास वर्ष तक की महिलाओं के आने पर पारम्परिक रोक रही है। हाल में एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसके द्वार सबके लिए खोलने के आदेश दिये थे। उसके बाद से असली टकराव शुरू हुआ।
अदालती आदेश से लैस केरल की कम्युनिस्ट सरकार मंदिर के द्वार खुलवाने के लिये सारा जोर लगा रही थी और परम्परा के नाम पर लोग अदालती आदेश लागू नहीं होने दे रहे थे। इस कानूनी लड़ाई को लड़ने वाला समूह ही नहीं, महिलावादी जमातों की लड़कियां और औरतें पुलिस संरक्षण में मंदिर जाना और भगवान अयप्पा के दर्शन करना चाहती थीं। वे इसे अपने समान अधिकारों से जोड़कर देखती बतातीं रही हैं और केरल सरकार भी इसी नजरिए को मानने के साथ अदालती आदेश को लागू कराना अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी मानती है। पर एक दौर की लम्बी टकराहट के बाद सभी पक्षधर थकने भी लगते हैं और सबकी पोल पट्टी भी खुल रही है। साफ लग रहा है कि जितना सवाल आस्था, संवैधानिक जवाबदेही, अदालती मर्यादा और समानता के अधिकार का है, उससे ज्यादा राजनीति का और अपने-अपने वोट बैंक को पक्का करने का है। केरल सरकार ने भी पहले दौर में सारा जोर लगाने के बाद इतना ही अच्छा किया कि लाठी-गोली का सहारा लेने से बची। और बाद में तो उसने भी मंदिर की ड्यूटी लगाने में महिला पुलिस की उम्र का हिसाब ध्यान रखा। खुद पुलिस के बड़े अधिकारी भी मंदिर में अपराध भाव के साथ प्रार्थना करते दिखे पर राज्य सरकार से भी ज्यादा केन्द्र का रु ख घालमेल का था। उसके मंत्री अदालत द्वारा सीमा न लांघने का नीति वाक्य भी बोलते रहे और केरल सरकार के रु ख की आलोचना भी करते रहे हैं।

कांग्रेस तो बिना लाग-लपेट दोहरा रु ख अपनाए रही। अदालती फैसले का स्वागत करने के साथ वह भक्तों को, खासकर दस से पचास आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर  में न जाने देने के लिए धरने पर भी बैठी रही। इस मामले में उसे भाजपा से पिछड़ने का डर सताता रहा पर असली खेल भाजपा करती रही। केरल की राजनीति में पैठ बनाने के लिए सबसे ज्यादा बेचैन इस पार्टी के लोग ही महिलाओं को रोकने, जबरदस्ती करने के मामले में आगे रहे। जितना हंगामा हुआ उसमें भी यही आगे थे-कांग्रेसी चुपचाप पहाड़ी के नीचे-नीचे धरना देते रहे जबकि भाजपा के लोग सक्रिय विरोध वाले थे। और अदालत तो आदेश देने के बाद से कहां है, किसी को पता ही नहीं है। और अब सामने आए टेप से लगता है कि प्रदेश भाजपा काफी योजनाबद्ध ढंग से इस अभियान अर्थात सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाने में लगी थी। और शासक दल का प्रदेश अध्यक्ष चाहे किसी के आदेश से या अपने विवेक से यह सब कर रहा था पर सुप्रीम कोर्ट की यह तौहीन डरावनी है।
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पी. एस. श्रीधरन पिल्लै एक वीडियो टेप में यह कहते सुने जा रहे हैं कि यह सारा विरोध उन्हीं के द्वारा संचालित था और उन्होंने ही मंदिर के मुख्य पुजारी राजीवरु  कन्दराऊ को मन्दिर के कपाट बन्द करने की धमकी देने को कहा था। उल्लेखनीय है कि जब पुलिस संरक्षण में दो महिलाएं मंदिर द्वार के पास पहुंच गई थीं, तब तंत्री ने कपाट बंद करने की धमकी दी और पुलिस को उन्हें वापस ले जाना पड़ा। यही नहीं, भारतीय युवा मोर्चा के कोझिकोड सम्मेलन में दिये उनके भाषण को भी जान-बूझकर लीक किया गया जिससे कि अफरा तफरी फैले। पिल्लै ने तंत्री को यह भी कहा था कि कपाट बंद करने से अदालत की अवमानना का मामला नहीं बनता है। जाहिर है कि इस टेप के आने के बाद इसकी राजनीति भी चलेगी और सम्भव है कि इसी चर्चा के लिए इसे लीक किया भी गया होगा पर सबरीमाला का मामला कई अथरे में बहुत महत्त्व का है-यह सिर्फ हमारे राजनेताओं के दोमुँहपने को जाहिर करने और हर मामले का राजनैतिक लाभ लेने की होड़ को दिखाने भर वाली चीज नहीं है। एक सवाल बराबरी का है, संविधान प्रदत्त अधिकारों का है और उसमें कोई बहस की गुंजाइश नहीं है। दूसरी चीज आस्था और परम्पराओं का है, जो हल्की चीज हो, अंधविश्वास हो, बुद्धिहीनता और पिछड़ेपन की निशानी हो। यह मान लेना उतनी ही बड़ी बेवकूफी है। सो एक सीमा तो अदालती अधिकार या कानूनी परिभाषा और आस्था के बीच की तय होनी चाहिये, जो कानून की चीज हो उसे अदालत तय करे और जो आस्था, धर्म और परम्परा का सवाल हो उसमें उसके संचालकों को अधिकार होना चाहिये।
अब एक बात यह भी है कि आपको पूजा करनी है या नमाज पढ़ना है और उसके नियम न मानने हैं, तब आप कानून की शरण क्यों लेते हैं? अगर अयप्पा और हाजी अली से कोई परेशानी है तो वहां जाने की जरूरत नहीं है। अगर देवताओं के करोड़ों रूप माने गए हैं तो आप अपने कुछ दशक पुराने कानून का सहारा लेकर सबको बराबरी पर तौलने पर क्यों तुले हैं? पर इससे भी ज्यादा बड़ी चीज यह है कि जब परम्परा-आस्था-विश्वास और आधुनिक कानून और संविधान का टकराव हो ही तब क्या किया जाए? हम जिस दौर में जी रहे हैं या जीवंत समाज रोज ऐसी मुश्किलों से रू ब रू होता ही है। तब उसे क्या करना चाहिए। जाहिर है सिर्फ  कानून से चिपके रहने या परम्परा से चिपके रहने से वही नाटक बार-बार दोहराया जाएगा, जो आज सबरीमाला में दिख रहा है। आप चाहते सत्ता की मलाई हैं, पर लोगों की आस्था और भक्ति से खेल रहे हैं।
आपको सत्ता का बल है और भाजपा या कांग्रेस को पछाड़ना चाहते हैं तो अदालती आदेश लागू कराने के नाम पर डंडे भांजते हैं। असल में ऐसे ही मामले पर नेतृत्व की जरूरत होती है। अगर आप सचमुच के नेता हैं तो आप सभी पक्षों को साथ बैठाइए, नई स्थितियां सबके सामने रखिए, अंधविश्वास और जड़ता को तर्क और प्रमाणों से काटिए और सबके बीच संवाद से रास्ता निकालिये। महात्मा गांधी का उदाहरण सामने है, जब उन्होंने दलितों के हक और छुआछूत मिटाने की लड़ाई लड़ी। तब पुणो, बनारस, देवघर और पुरी जैसे कुछ शहरों के पंडे-पुरोहितों को छोड़कर पूरे मुल्क ने ऐसा व्यवहार किया मानो गांधी हिन्दू समाज के सीने से कोई बोझ उतार रहे हों।

अरविन्द मोहन


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment