बीच समय में : दांव पर सत्ता और सत्ता का दांव

Last Updated 18 Nov 2018 03:46:24 AM IST

सत्ता की महिमा न्यारी है। उसे खोना और पाना ही राजनैतिक जीवन का मूल मर्म है। इसका अहसास ज्यों-ज्यों चुनाव निकट आते जाते हैं, स्पष्ट रूप से होने लगता है।


बीच समय में : दांव पर सत्ता और सत्ता का दांव

जनता से दूर-दूर रहने वाले नेता जनता के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करने लगते हैं। आम जनता से रूबरू होते राजनेताओं के संवाद और प्रस्तुति की भंगिमा देखते ही बनती है। वे तथ्यों की व्याख्याएं देते हैं, उन्हें इतिहास से जोड़ते हैं, और भविष्य रचने के सपने दिखाते हैं। आम आदमी स्वभावत: भविष्यजीवी होता है, सपने देखता और संजोता है। उसके लिए समाज के सवाल मायने रखते हैं क्योंकि उसके पास विकल्प सीमित होते हैं, और बंदिशें ढेर सारी। अत: राजनीति के नीतिगत सरोकारों को लेकर आम तौर पर उसके मन में उत्साह और रु चि होती है। परंतु आजकल के राजनैतिक परिदृश्य को लेकर उसे कई भ्रमों का सामना करना होता है, और अपने लिए यथार्थ की एक समझ विकसित करनी होती है।
चुनावी बिसात बिछते ही विचित्र ढंग से रंग बदलते सत्ताधारी और विपक्ष, दोनों ही पक्षों के नेता ताल ठोक कर आमने-सामने आ खड़े होते हैं। चुनावी रणनीति के तहत नेताओं के सामने मुख्य रूप से दो दिशाओं में काम करने का एजेंडा होता  है। एक ओर वे अपने को जनता का सबसे बड़ा ‘हितू’ साबित करने में लग जाते हैं, तो दूसरी ओर अपने प्रतिद्वंद्वी को हर तरह से ‘जनविरोधी’, ‘अनैतिक’, ‘अविसनीय’, ‘गैर-प्रजातांत्रिक’, ‘गैर-कानूनी’ और ‘संप्रदायवादी’ यानी हर तरह से नाकारा साबित करने में अपनी सारी ऊर्जा झोंक देते हैं।
राजनेताओं का रंग-बिरंगा अनोखा चित्र रच कर जनता के सामने पेश किया जाता है। इनको मुद्दा बना-बना कर टीवी पर तीखी बहसें होती हैं, और जनता का रु झान अपने पक्ष में ढाला जाता है। सत्ताधारी दल सत्ता को मुट्ठी में रखने के लिए तरह-तरह के खेल खेलता रहता है। गहन और व्यापक तैयारी के साथ अपने विरोधी पर हमले की रणनीति कुछ इस तरह बनाई जाती है कि आक्रमण का ताव (मोमेंटम) न बिगड़े। विरोधी दल भी सत्ता पर किसी भी तरह अपना कब्जा स्थापित करने को आतुर रहते हैं। ऐसी स्थिति में राजनैतिक पार्टयिों के ‘वार रूम’ हर परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार किए जाते हैं। सवाल आखिर सत्ता का है, और ‘सत्ता बिन सब सून’!

लोकतंत्र में सत्ता तक पहुंचने की राह चुनाव के पड़ाव से होकर ही गुजरती है। चुनाव महासमर का रूप ले लेता है, और अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है। इसके हर चरण की अपनी विशेषता  है। इसके पूर्व रंग में प्रत्याशियों का चयन होता है। पार्टी का ‘टिकट’ बांटना कठिन काम है। अब सेवा, समर्पण , चरित्र, औदार्य आदि की जगह जाति, धर्म, शौर्य, धन और ख्याति आदि के बहुत सारे समीकरणों को साधते हुए अंत में पार्टी ‘हाई कमान’ इसे अंजाम देता है। टिकट मिलते ही प्रत्याशी चुनावी स्वयंवर के लिए अपनी दावेदारी पेश करता है, और चुनावी रण में भाग्य आजमाने उतर पड़ता है। कहते हैं कि प्रतिस्पर्धी को पटखनी देने के लिए सब कुछ जायज होता है। सो, सामने वाले को निरु त्तर करने और हथियार डालने के लिए हर तरफ से हमला बोला जाता है, चोट की जाती है। दूसरी ओर, जैसा भी मौका हाथ लगे नारे, वायदे, संकल्प, उद्घाटन, शिलान्यास, लोकार्पण, घोषणा, रैली, महारैली, रेला, कटआउट और रोड शो के साथ बढ़-चढ़ कर अपना दमखम दिखाया जाता है। माना जाता है कि जनता ही उनकी तारनहार है। इस क्षणिक सत्य-रचना के सत्तासीन होने के लिए दूरगामी परिणाम होते हैं। अत: चुनावी फसल काटना सभी प्रत्याशियों का प्रथम धर्म होता है, और वे सही, गलत की चिंता छोड़ हर हथकंडा अपनाते हैं।  
ऐसे मौकों पर सोशल मीडिया भी हरकत में आ जाता है। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध टीवी के चैनलों पर वाद-विवाद का मोर्चा संभालने के लिए पार्टी के प्रवक्ता मुस्तैद रहते हैं। वे सान पर चढ़ा विष बुझा बाण एक-एक कर निकाल कर हमला करते रहते हैं। इस पूरे सचित्र वाक्युद्ध को भरसक संवेदनशील और मर्मस्पर्शी बनाए रखने की पुरजोर कोशिश चलती रहती है। अपनी साख बनाने और दूसरे की साख बिगाड़ने के इस महानाटकीय आयोजन में मीडिया की जबर्दस्त भूमिका होती जा रही है। एक स्तर पर सहानुभूति और वायदों की झड़ी लग जाती है। इसमें नेता और जनता के बीच सौहार्द और सहयोग की गंगा बहने लगती है। सत्य और प्रतिसत्य का निर्माण करने की प्रौद्योगिकी की खरीद-फरोख्त शुरू हो जाती है। चुनावी आचार संहिता के विधि निषेध की सीमा अंतर्गत जो कुछ भी संभव होता है, उपयोग  में लाया जाता है। मुश्किल सिर्फ  यह है कि इस पूरी चर्चा से देश गायब होता जा रहा है, और व्यक्ति केंद्र में आ बैठता है। राष्ट्रीय सरोकार यदि उठते भी हैं, तो दोषारोपण और छिद्रान्वेषण के उद्देश्य से ताकि दूसरे को नाकाबिल सिद्ध किया जा सके। समाज की मूलभूत समस्याएं उपेक्षित ही रह जाती हैं। जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, और न्याय आदि के क्षेत्रों में रचनात्मक सुधारों की बहुत जरूरत है पर उनको लेकर शायद ही कभी कोई सार्थक बहस दिखाई पड़ती है। सत्ता की दावेदारी का प्रयोजन स्वयं सत्ता ही रहे यह देश और समाज के हित में नहीं होगा। राजनीति और उसकी व्यवस्थाएं समाज कल्याण के लिए हैं, और राजनैतिक संस्कृति में इसे स्थान मिलना ही चाहिए। सात दशकों पुराने हो रहे हमारे गणतंत्र के किरदारों में यह परिपक्वता तो आ ही जानी  चाहिए।

गिरीश्वर मिश्र


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