सरकारी स्कूल : बढ़नी चाहिए संख्या

Last Updated 15 Nov 2018 04:10:17 AM IST

अधिकांश निजी विद्यालय वाले केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की दशा सुधार कर इसे नई दिशा देने की सरकारी कोशिश प्रशंसनीय है।


सरकारी स्कूल : बढ़नी चाहिए संख्या

किन्तु विद्यालयीन शिक्षा में अपेक्षित विकास का हर प्रयास अधूरा साबित होगा यदि सरकारी विद्यालयों की संख्या और गुणवत्ता के लिए केंद्र तथा राज्यों की सरकारें दृढ़ता से जरूरी कदम नहीं उठाती हैं। एक खबर के अनुसार सत्रह जुलाई, 2018 को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबंधित कुल विद्यालयों की संख्या देश में 20299 और 25 अन्य देशों में 220 बताई गई, जिसमें निजी संस्थाओं की संख्या 15837 थी।  वर्तमान में अनुमानत: देश के कुल 20783 विद्यालयों में केंद्रीय विद्यालय-1195, सहायताप्राप्त सरकारी विद्यालय-2953, नवोदय विद्यालय-598 तथा केंद्रीय तिब्बत शिक्षा संगठन के विद्यालय-14 हैं। बाकी निजी संगठनों द्वारा संचालिक स्वतंत्र विद्यालय हैं। 
यदि हम आकलन करें तो पाते हैं कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा संचालित विद्यालयों में निजी विद्यालयों की भागीदारी 77 फीसदी से  अधिक है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा  संचालित विद्यालयों की संख्या 1962 में केवल 309 थी, और अब 20750 से अधिक। इनमें सरकार जल्द 8000 विद्यालय और शामिल करने की तैयारी कर चुकी है। मानव संसाधन विकास मंत्री संबद्धता नियमों में बदलाव कर नये विद्यालयों का मार्ग प्रशस्त करने को तत्पर हैं। इसके लिए तीन दशक पुराने मानकों में बदलाव और संबद्धता नियमों की जटिलता दूर करना लाजिमी है। सरकार की सक्रियता का प्रमाण है कि इसने संबद्धता की प्रक्रिया को आसान बनाते हुए पूर्व में आवश्यक 12-14 दस्तावेज को सिर्फ दो दस्तावेज तक सीमित किया है। पहला-जिला शिक्षा प्रशासन से भूमि स्वामित्व, भवन सुरक्षा एवं स्वच्छता संबंधी प्रमाणपत्र; तथा दूसरा- शुल्क मानक, आधारभूत संरचना मानक आदि से संबंधित शपथ पत्र। संबद्धता संबंधी प्रक्रिया को पारदर्शी और आसान बनाने के लिए इसे ऑनलाइन किया गया है।

विद्यालय निरीक्षण का कार्य आवेदन प्राप्ति के साथ ही शुरू होगा और इसकी प्रकृति भी अकादमिक होगी। संतोषजनक निरीक्षण रिपोर्ट के बाद बोर्ड विद्यालयों को संबद्धता संबंधी पत्र भेजेगा और कार्यवाही को आगे बढ़ाने में शिक्षकों के प्रशिक्षण, केवल निर्धारित शुल्क लिए जाने तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए सतत प्रयास के क्रम में सौर ऊर्जा, वर्षा जल संरक्षण एवं हरित परिसर  के लिए किए जाने वाले प्रयास को आधार  बनाएगा। प्राचार्य एवं उपप्राचार्य को भी प्रति वर्ष दो-दिवसीय अनिवार्य प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। यद्यपि निजी संस्थानों को नियंत्रित रखने का संकल्प मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजना में मुखर है, फिर भी भारत जैसे युवा जनसंख्या वाले विशाल देश की समावेशी प्रकृति की शिक्षा के लिए यह नाकाफी है। प्रश्न है कि केंद्रीय विद्यालयों और नई शिक्षा नीति, 1986 की उपज नवोदय विद्यालयों की संख्या इतनी कम उस देश में क्यों है,  जिसका संकल्प लोक-कल्याणकारी समावेशी शिक्षा प्रदान करना है।
हमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्णय को भी अपनाना होगा जिसमें आदेश दिया गया है कि सरकारी संस्थाओं से वेतन पाने वाले सभी पदाधिकारी-कर्मचारियों के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा सरकारी विद्यालय में अनिवार्यत: सुनिश्चित की जाए। भारत के भीतर कई और भारत बनाने वाले महंगे संस्थान समावेशी शिक्षा प्रदान नहीं कर सकते, फिर राज्य एवं केंद्र सरकारें सरकारी विद्यालयों की संख्या एवं गुणवत्ता बढ़ाने के प्रति इतनी तटस्थ क्यों हैं? मॉडल स्कूल खोलने की योजना शिथिल है, बजट में घोषित जनजातीय विद्यार्थियों के लिए हर जनजातीय ब्लॉक में एकलव्य आवासीय विद्यालय खोलने की प्रतिबद्धता की परीक्षा शेष है। कस्तूरबा बालिका विद्यालयों को और समर्थ बनाने की जरूरत है, तो अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के लिए अभी और तैयारी करने की आवश्यकता। विद्यालयीन शिक्षा पर खर्च बढ़ाना ही होगा। यदि हमें आगे जाना है, और उच्च शिक्षा को मजबूत आधार प्रदान करना है तो यह जरूरी है। यह तो एक मजदूर भी जानता है कि केंद्रीय माध्यमिक बोर्ड से संबद्धता प्राप्त विद्यालय के तथाकथित मालिक कितने अमीर होते हैं, उनके शिक्षक कितनी राशि में कार्य करते हैं, पढ़ने वाले बच्चों की जेब की हैसियत कितनी होती है, और फिर यह कि इसकी प्रकृति समावेशी नहीं होती। मात्र दस रुपये में परीक्षा में लिखी गई कॉपियां सूचना के अधिकार के तहत केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा मुहैया कराई जाएगी-यह भी सुखद समाचार है। संभव है कि इससे बोर्ड द्वारा मूल्यांकन में हुई हालिया गड़बड़ियों की संख्या घटे। विद्यार्थी सदमे एवं परेशानी के शिकार होने से बच सकें। नये फाम्रेट के आधार पर सूचना  मांगने के लिए विद्यार्थियों को कुछ विशेष जानकारी देनी होगी। यह भी बोर्ड का बड़ा फैसला है कि मूल्यांकन के बाद अंकों की गणना में होने वाली किसी गलती से बचने के लिए मूल्यांकन केंद्रों पर गणित और कंप्यूटर शिक्षक तैनात किए जाएं परंतु विद्यालयीन शिक्षा में कई सुधार व बदलाव इससे भी अधिक जरूरी हैं क्योंकि शिक्षा अंक या फिर अकादमिक उपलब्धि तक सीमित नहीं होती। बुनियादी तालीम एवं गुरुकुल प्रणाली के मूल तत्व अपनाने की जरूरत है। शारीरिक श्रम शिक्षा का अभिन्न अंग होना चाहिए। गांधी के एजुकेशन फॉर थ्री एच-हेड, हार्ट एवं हैंड के सिद्धांत को अपनाना होगा। विद्यालयीन शिक्षा सिर्फ अकादमिक ज्ञान देने तक सीमित नहीं हो, मूल्य एवं नैतिक शिक्षा, जेंडर एजुकेशन, जनसंख्या शिक्षा, भाषा ज्ञान, आपदा प्रबंधन जैसे सम्प्रत्यय भी शिक्षा का अभिन्न अंग हों।
नेतरहाट विद्यालय की तर्ज पर भी विद्यालय खोलने की आवश्यकता है। चीन की उच्च शिक्षा के विकास और उसकी चौतरफा प्रगति में विद्यालयीन शिक्षा की मजबूती का बड़ा योगदान है। भारत में सरकार को प्रबलता से सरकारी विद्यालयों की संख्या और उनकी गुणवत्ता बढ़ाने के लिए तत्पर होने की जरूरत है। विद्यालयीन शिक्षा के विकास के लिए समान विद्यालयीन प्रणाली को लागू करना निजी संस्थानों को मजबूती प्रदान करने से अधिक लाभकारी है। आखिर, कोठारी आयोग, मुदलियार आयोग तथा नई शिक्षा नीति, 1986 की संस्तुतियों की अनदेखी उस देश में क्यों है, जिसकी करीब-करीब सभी राजनीतिक पार्टियां कमजोर तबकों और अरसे से उपेक्षित लोगों के कल्याण का नाम लेकर राजनीति करती हैं।

डॉ. ललित कुमार


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