मुद्दा : बयानों में अविश्वसनीयता

Last Updated 14 Nov 2018 05:01:05 AM IST

देश में प्रथम आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली नगरपालिका के चुनाव हो रहे थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और नई नवेली भारतीय जनसंघ के बीच लड़ाई थी।


मुद्दा : बयानों में अविश्वसनीयता

इन चुनावों के दौरान संसद में जनसंघ के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस चुनावों में ‘वाइन’ और ‘मनी’ का इस्तेमाल कर रही है। इस बयान को प्रधानमंत्री नेहरू ठीक से सुन नहीं पाए और उन्होंने ‘वाइन’ को ‘वुमेन’ समझ कर इसका पुरजोर प्रतिवाद किया। हालांकि जैसे ही उन्हें महसूस हुआ कि उनसे सुनने में चूक हुई है, तो सदन में खड़े हुए और अपनी चूक के लिए माफी मांगी।
वह दौर भारत की लोकतांत्रिक राजनीति का शैशवकाल था। वर्तमान को इतिहास की कसौटी पर कस कर देखते हैं, तो न वैसी राजनीति नजर आती है, न ही कांग्रेस में बयानों की विसनीयता की चिंता करने वाले नेहरू सरीखे नेता नजर आते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी एक अध्यक्ष से दूसरे, दूसरे से तीसरे होते हुए आज कांग्रेस की कमान राहुल गांधी के हाथों में आ चुकी है। पंडित नेहरू और राहुल गांधी के बीच तीन पीढ़ियों का फासला है। वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व को न तो राजनीतिक मूल्यों की कोई फिक्र है, और न ही बयानों में विश्वसनीयता की कोई चिंता। हाल में राहुल के अनेक बयान अत्यंत अविश्वसनीय, अतार्किक एवं अगंभीर रूप से सामने आए हैं। नीरव मोदी से जुड़ा विषय हो या राफेल समझौते का मुद्दा या मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नाम को पनामा पेपर्स से जोड़ने का मुद्दा हो, राहुल एक के बाद एक सिलसिलेवार गलतबयानी करते नजर आए हैं। राहुल के बेबुनियाद बयानों का सिलसिला इतना लंबा है कि ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल नजर आता है कि उनके बयानों में किसे सच मानें और किसे झूठ! राफेल को लेकर राहुल ने देश में जिस तरह की बहस को आगे बढ़ाने की कोशिश की है, वह देश की सुरक्षा के लिहाज से भी उचित नहीं है। विदेशी साझेदारों के बीच भरोसे का संकट पैदा करने वाली है। अगर वाकई उन्हें पुख्ता तौर पर राफेल के संबंध में किसी अनियमितता या गड़बड़ी का जानकारी है, तो उसको पूरी प्रामाणिकता के साथ रखना चाहिए। लेकिन प्रामाणिकता तो दूर की बात है, राफेल की कीमतों पर उनके  बयानों में ही अनेक असंगतियां हैं।

वे दो तरह की गलतबयानी करते नजर आ रहे हैं। पहली, राफेल की कीमत को लेकर; तथा दूसरी, फ्रांस की सरकार के साथ समझौते में भारत की एक कंपनी के नाम को लेकर। मानसून सत्र के दौरान 20 जुलाई, 2018 को लोक सभा में राफेल का मुद्दा उठाते हुए राहुल ने यूपीए सरकार के दौरान इसकी कीमत 520 करोड़ रुपये बताया। इसके बाद 10 अगस्त, 2018 को रायपुर में उन्होंने प्रति राफेल की कीमत 540 करोड़ बताई। इसके तीन दिन बाद राजस्थान में एक रैली में राफेल की कीमत 526 करोड़ बताई। हालांकि संसद में राफेल की कीमत 520 करोड़ रुपये बताने से पहले वे अप्रैल और मई महीने में मनमोहन सरकार के दौरान की इसकी कीमत 700 करोड़ बता चुके थे। सवाल उठता है कि आखिर, देश की सुरक्षा से जुड़े विषय पर इस तरह का लापरवाह रुख एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का नेता कैसे रख सकता है?
ऐसा सिलसिलेवार होना वाकई एक ‘कन्फ्यूज्ड नेता’ के तौर पर उनकी छवि को दिखाता है। रणनीति में स्पष्टता के अभाव का ही परिणाम था कि उन्होंने राजस्थान की एक जनसभा में प्रधानमंत्री के लिए अत्यंत आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग कर दिया। राहुल के व्यक्तित्व और उनकी बातों का विरोधाभास अत्यंत सहजता से देखा जा सकता है। मसलन, संसद में वे कहते हैं कि हम ‘प्रेम की ताकत’ से जीतेंगे। इतना ही नहीं अचानक प्रधानमंत्री मोदी के पास पहुंचकर गले मिलते हैं, और दूसरी तरफ राजस्थान में अपनी जनसभा में ‘चौकीदार ही चोर है’ का नारा लगवाते हैं।  
इस लेख के शुरू में मैंने नेहरू युग का जिक्र इसलिए किया कि नेता के बयानों में विश्वसनीयता से उसके व्यक्तित्व के प्रति भी विश्वास भाव बढ़ता है। बचकाने और तथ्यहीन बयानों से प्रतिद्वंद्वी को घेरने तथा स्वयं की राजनीतिक विश्वसनीयता हासिल करने की कोशिश सिवाय ख्याली पुलाव पकाने के कुछ नहीं है। यही कारण है कि गत एक वर्ष में कांग्रेस मोदी के खिलाफ अनेक मुद्दे जोर-शोर से लेकर उठी लेकिन किसी भी मुद्दे को लंबे समय तक टिका नहीं सकी। हाल में सीबीआई की आंतरिक अस्थिरता की स्थिति को भी राफेल मामले से जोड़ा जाना राहुल और कांग्रेस द्वारा की जा रहीं गलतियों की कड़ी में ताजा नजीर है। कांग्रेस के सामने संकट यह नहीं है कि वह मोदी के खिलाफ मुद्दे खोज पा रही है या नहीं! संकट यह है कि वह मोदी के खिलाफ जनता के बीच उसके द्वारा उठाया गया कोई मुद्दा टिका नहीं।

शिवानंद द्विवेदी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment