मछरा : तीसरी ताकत की जरूरत

Last Updated 13 Nov 2018 12:19:17 AM IST

मछरा-मध्य प्रदेश और उसे बांटकर 2002 में बनने वाले राज्य छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान के पहले अक्षरों का संक्षिप्त नामकरण है, जहां विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे हैं।


मछरा : तीसरी ताकत की जरूरत

तीनों राज्यों में कई स्तरों पर बहुत समानता है। खास तौर से यह कि तीनों राज्यों में दो ही पार्टियां कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी आमने-सामने रहती हैं। देश के करीब-करीब बाकी सभी राज्यों में तीसरी ताकत का उभार देखने को मिला है। मसलन, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली क्षेत्र में आम आदमी पार्टी जैसे राजनीतिक दल का उभार हाल के वर्षो में दिखा। प्रश्न है कि क्या मछरा में विधानसभा चुनाव इन राज्यों में तीसरी राजनीतिक शक्ति के उभार की भी पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं? 
ब्रिटिश साम्राज्य से सत्ता के हस्तांतरण के बाद देश के दो पिछड़े और ग्रामीण-बहुल राज्यों राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के मुकाबले भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्व अवतार) ही एक बड़ी ताकत के रूप में मौजूद थी। राजस्थान में 1962 तक कांग्रेस की हुकूमत को छुआ नहीं जा सका लेकिन 1967 में जयपुर के पूर्व राजघराने की महारानी गायत्री देवी और भारतीय जनसंघ ने विधानसभा की सर्वाधिक सीटें जीत लीं। वह दौर भारतीय राजनीति में कांग्रेस के मुकाबले नये राजनीतिक ध्रुवीकरण का दौर था, और देश के नौ राज्यों में संविद सरकारें बनी थीं।  राजस्थान में पहली बार जनसंघ के नेता भैरो सिंह शेखावत के नेतृत्व में 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसे पहली गैर-कांग्रेसी सरकार कहा जा सकता है।

राजस्थान की राजनीतिक प्रवृत्ति यह दिखती है कि जनसंघ ही, जो 1980 में गांधी समाजवाद के रास्ते पर चलने की घोषणा कर भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आई, कांग्रेस के मुकाबले राज्य की राजनीति में उभरतीं विरोधी शक्तियों का केंद्र बनती चली गई और पहली बार भैरोसिंह शेखावत कुछेक निर्दलीय विधायकों के समर्थन से 1993 में सरकार बनाने में सफल हुए। इस तरह भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में अपने बूते खड़े होने का मुकाम हासिल किया। राजस्थान में पार्टियां एक ही विचारधारा की प्रतिद्वंद्वी के रूप में एक दूसरे के मुकाबले रही हैं। जाति-धर्म पार्टियों के  आधार केंद्र रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद एक नये राजनीतिक भूगोल के रूप में राजस्थान के स्तर पर राजनीति की नई जमीन तैयार करने के लिए जो प्रयास हुए वे राजस्थान के किसी एक हिस्से में सिमट कर रह गए। मसलन, समाजवादी नेता मामा बालेर दयाल ने समानता और बदहाली दूर करने की विचारधारा के आधार पर आदिवासी इलाकों में नई राजनीति खड़ी करने की कोशिश की लेकिन उनका विस्तार बांसवाड़ा से बाहर नहीं हो सका। किसान और किसानी के आधार पर कभी कुमारानंद ने तो कभी पथिक जी ने वैसे ही कोशिश की थी, जैसी सीकर के इलाके में हाल के दौर में सीपीएम ने की। लेकिन ऐसे प्रयास संसदीय राजनीति में विस्तार के रास्ते के रूप में विकसित नहीं हो सके। राजस्थान में तीसरी ताकत के रूप में खड़ी होने की जो भी कोशिश दिखी वह वास्तव में दो ताकतों के भीतर ही भागेदारी के नतीजे के साथ ठप पड़ गई।
आदिवासी बहुल पिछड़े राज्य मध्य प्रदेश में विधानसभा के पहले पहल हुए चुनाव के दौरान कांग्रेस के मुकाबले दूर-दूर तक कोई दूसरी पार्टी देखने को नहीं मिली। पहले चुनाव में जनसंघ ने 76 सीटों पर चुनाव लड़ा और 62 पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। कांग्रेस के 225 उम्मीदवारों में 194 को कामयाबी मिली। साम्यवादी पार्टी ने 143 उम्मीदवार खड़े किए और 13.3 प्रतिशत मत पाकर केवल 2 पर ही जीत सकी। केएमपीपी दूसरी ऐसी पार्टी थी, जिसे 14.22 प्रतिशत मत मिले थे और उसके 71 उम्मीदवारों में केवल 8 सफल हो पाए। जनसंघ के राजनीतिक मिजाज के विपरीत आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के बुनियादी आर्थिक-सामाजिक हितों पर आधारित राजनीति करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत आठ दल थे। लेकिन मध्य प्रदेश में भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी अकेले कांग्रेस के मुकाबले सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई। समाजवादी नेता रघु ठाकुर के अनुसार तीसरा मोर्चा बनाने की एक कोशिश 1989 में की गई लेकिन वह विफल हो गई। दो पार्टियों के भीतर के असंतोष के नतीजे के रूप में बाहर आए नेताओं का समूह तीसरे मोच्रे का नारा जरूर लगाता दिखता है, लेकिन वह वास्तविक रूप में राजनीतिक विचारधारा के रूप में तीसरा मोर्चा नहीं होता है। यह आम प्रवृत्ति है कि विभिन्न तरह के मिजाज वाले क्षेत्रों में बंटे किसी राज्य में किसी एक कोने पर आधारित पार्टी खड़ी कर उसे तीसरा मोर्चे के रूप में संबोधित किया जाता है, जिसका मकसद सदन में प्रतिनिधित्व तक ही सिमटा रहता है।
मध्य प्रदेश के विभाजन के बाद से छत्तीसगढ़ में भी यही सब देखने को मिला। फर्क सिर्फ  यह दिखाई देता है कि मध्य प्रदेश में जहां पिछड़े वर्ग के हाथों में नेतृत्व है, वहीं आदिवासी-बहुल छत्तीसगढ़ में सवर्ण नेतृत्व है। मछरा में तीसरी शक्ति की राजनीति के संकेत भी धुंधले दिखते हैं। देश भर में चुनाव आयोग द्वारा मान्यताप्राप्त पार्टियों की संख्या 51 है, लेकिन इनमें एक भी मछरा से नहीं है। गैर-मान्यताप्राप्त पंजीकृत पार्टियां भी इन राज्यों में वैसी नहीं हैं, जो राजनीतिक स्तर पर तीसरे मोर्चे की दिशा में जाती दिखती हों। दावे के साथ कहा जा सकता है कि मछरा में चुनाव की पूर्व संध्या में किसी क्षेत्र विशेष और जाति विशेष के बीच प्रभाव रखने वाली पार्टियां तालमेल कर भी लेती हैं, तो उनका तालमेल राजनीतिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाली पार्टियों के साथ नहीं हो पाता।
राजस्थान में इस विधानसभा चुनाव में भी कई पार्टियों ने एक तीसरा मोर्चा बनाने का दावा किया है, और छत्तीसगढ़ में भी मायावती-अजीत जोगी की पार्टी के गठजोड़ के रूप में एक मोर्चा सामने आया है। लेकिन यह चुनावी गठबंधन इन पार्टियों की तात्कालिक जरूरत को ही रेखांकित करता है, न कि यह तीसरी शक्ति के किसी प्रादुर्भाव का संकेत है। मछरा में एक तरह से राजनीतिक जड़ता बनी हुई है। नई शक्तियों के रूप में सामाजिक स्तर पर दमित हिस्से का उभार तो दिखाई दे रहा है, लेकिन वह संसदीय प्रतिद्वंद्विता में नई राजनीति की तरफ बढ़ने का संकेत नहीं दे रहा है। कह सकते हैं कि मछरा में संसदीय पार्टियों के बीच नई भाषा में राजनीति के लिए तीसरे मोर्चे की जरूरत बनी हुई है।

अनिल चमड़िया


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