अफगानिस्तान : तालिबान से वार्ता उचित
रूस की राजधानी मास्को में आतंकवादी संगठन तालिबान के साथ बातचीत में शामिल होने की खबर ने देश में हलचल पैदा कर दी है।
अफगानिस्तान : तालिबान से वार्ता उचित |
भारत का आतंकवादी संगठनों से किसी तरह की बातचीत में भागीदारी न करने का रुख रहा है। अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान के तालिबान के साथ कतर की राजधानी दोहा में वार्ता की कोशिशों का भारत ने कभी खुलकर विरोध नहीं किया, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई अवसरों पर साफ बोला है कि अच्छे और बुरे आतंकवादी नहीं होते, आतंकवादी आतंकवादी होते हैं। इसमें भारत के शामिल होने से कुछ प्रश्न पैदा होंगे। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने कह दिया कि जब तालिबान के साथ भारत बातचीत कर सकता है तो यहां के संगठनों के साथ क्यों नहीं करता?
मास्को वार्ता सम्मेलन के साथ भी यही हुआ है। कोई यह समझने के लिए तैयार नहीं है कि आखिर भारत का भाग लेना विदेश नीति की दृष्टि से लाभकारी है या नहीं? इसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा? सबसे बढ़कर अगर भारत उसमें शामिल नहीं होता तो क्या होता? पहली बार दोहा स्थित तालिबान के राजनीतिक दफ्तर से एक दल भाग ले रहा है। किंतु भारत की ओर से मंत्री नहीं सेवानिवृत्त राजनियक टीसीए राघवन और अमर सिन्हा भाग ले रहे हैं। सिन्हा अफगानिस्तान में भारत के राजदूत और राघवन पाकिस्तान में उच्चायुक्त रहे हैं। विवाद बढ़ने पर विदेश मंत्रालय की ओर से प्रवक्ता रवीश कुमार सामने आए। उन्होंने कहा कि मॉस्को बैठक में भारत ने गैर-अधिकारिक स्तर पर भाग लेने का फैसला किया। भारत ऐसे सभी प्रयासों का समर्थन करता है, जिससे अफगानिस्तान में शांति और सुलह के साथ एकता, विविधता, सुरक्षा, स्थायित्व और खुशहाली आए।
भारत की नीति रही है कि इस तरह के प्रयास अफगान-नेतृत्व, अफगान-मालिकाना हक और अफगान-नियंत्रित होनी चाहिए और इसमें अफगानिस्तान सरकार की भागीदारी होनी चाहिए। इसके बाद कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। भारत वहां तालिबान से बातचीत नहीं कर रहा है। अफगान सरकार भी इसमें सीधे तौर पर भाग नहीं ले रही है। उसके यहां से हाई पीस काउंसिल भाग ले रहा है। इसी तरह भारत की हिस्सेदारी गैर-अधिकारी स्तर पर होगी। सच यह है कि भारत ने रूस के निमंतण्रको स्वीकार करने के पहले काफी विचार-विमर्श किया। अफगानिस्तान से भी बातचीत की गई। अफगानिस्तान चाहता है कि शांति एवं पुनर्निर्माण के जो भी प्रयास हों, उसमें भारत रहे। वह हम पर ज्यादा भरोसा करता है। अफगानिस्तान में हमारी सक्रियता पाकिस्तान और चीन को संतुलित करता है जो हमारे राष्ट्रीय हित में है। पाकिस्तान और चीन दोनों की चाहत थी कि भारत इसमें शामिल नहीं हो। रूस ने मास्को ढांचा बातचीत में अफगानिस्तान, भारत, ईरान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, चीन, पाकिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, अमेरिका और अफगान तालिबान को न्योता दिया था। इसमें अमेरिका को छोड़कर सभी भाग ले रहे हैं। ऐसी किसी प्रक्रिया से प्रत्यक्ष तौर पर बाहर रहकर भारत क्या पा लेता? हां, रूस के इरादे पर संदेह है। ऐसा नहीं है कि भारत को इसका पता नहीं या इस पर विचार नहीं किया गया।
राष्ट्रपति पुतिन का रूस अमेरिका के समानांतर महाशक्ति के रूप में स्वयं को खड़ा करने की रणनीति पर काम कर रहा है। अफगानिस्तान से अच्छे संबंध नहीं है। सम्मेलन द्वारा रूस वहां प्रभावी उपस्थिति चाहता है। जब अफगानिस्तान में मजहबी लड़ाकुओं ने संघर्ष आरंभ किया, उस समय यह सोवियत संघ के समूह के कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत था एवं नजीबुल्ला उसके द्वारा बिठाए गए अंतिम राष्ट्रपति थे। सोवियत संघ की सेनाएं वापस गई और चरमपंथियों ने नजीबुल्ला की हत्या कर दिया। संभव है पुतिन के अंदर अपने इस पूर्व प्रभाव वाले देश में सक्रिया भूमिका निभाने की भावना प्रबल हुई हो। रूस नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में केवल अमेरिका की मौजूदगी रहे। माना जाता है कि इस समय अफगानिस्तान में दो लाख या इससे अधिक तालिबानी लड़ाके हैं। इन लड़ाकों को नियमित रूप से वेतन और अन्य खर्च देना होता है। तो कहां से आता है धन? पाकिस्तान की इसमें भूमिका है, पर उसकी हैसियत सारा खर्च उठाने की न थी, न। ईरान ने भी तालिबान को लंबे समय तक मदद की थी। हां, आज ईरान तालिबान की वित्तीय सहायता नहीं करता। साफ है कि तालिबान को कई देशों से हथियार और धन मिल रहे हैं। इसमें रूस का नाम पाकिस्तान के साथ आ रहा है।
तालिबान फिर अपने-आप ताकतवार तो हुआ नहीं है। 31 जनवरी 2018 को जारी बीबीसी के अध्ययन के अनुसार तालिबान अफगानिस्तान के 70 प्रतिशत हिस्से में खुलकर गतिविधियां चला रहे हैं, जिसमें से छह प्रतिशत पर उसका पूरा नियंत्रण है। अफगान सरकार ने इस रिपोर्ट को गलत बताया। रूस लंबे समय से अफगानिस्तान सरकार को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि उसकी रुचि वहां शांति स्थापित करने और विकास प्रक्रिया में भागीदारी की है। परिस्थितियां देखकर अफगानिस्तान सरकार ने गैर आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल भेजा। भारत की नीति स्पष्ट है, जहां अफगानिस्तान वहां भारत। यही श्रेष्ठ नीति है। रूस और चीन की कोशिश तालिबान को हर प्रक्रिया में एक कोण बना देने की लग रही है। तालिबान को मान्यता देने का भागीदार भारत नहीं बन सकता लेकिन उसकी अनुपस्थिति का लाभ लेकर ऐसा कर लें तो? वहां हमारे गैर आधिकारिक प्रतिनिधि इसे रोकने की कोशिश करेंगे। इस तरह मास्को वार्ता में भागीदारी भारत के दूरगामी हित में है। हालांकि मास्को सम्मेलन से अफगानिस्तान में शांति स्थापना की दिशा में कोई ठोस परिणाम निकलने की अभी संभावना नहीं है।
तालिबान ने बयान जारी किया कि हमारा प्रतिनिधमंडल अमेरिका की घुसपैठ पर चर्चा केंद्रित रखेगा। शांति वार्ता की पहली शर्त होती है, हिंसा का रुकना। तालिबान ने आतंकवादी हमले बंद नहीं किए हैं। तालिबान की मुख्य मांग विदेशी सेनाओं की वापसी की है। कतर में अमेरिका उससे जुलाई और अक्टूबर में बातचीत कर चुका है। किंतु सेनाएं वापस हों इसके पहले हथियार डालने और शांति अपनाने का कदम उठाने को ये तैयार नहीं। ऐसी मानसिकता में शांति संभव ही नहीं है। बावजूद इसके अगर रूस ने वार्ता आयोजित किया है, तो हमें उससे कतई दूर नहीं रखना चाहिए था। अफगानिस्तान संबंधी प्रयासों में पाकिस्तान और चीन रहे और हम न रहें यह तो पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा।
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