अर्थव्यवस्था : सतही समाधान से नहीं बनेगी बात
केंद्र में आसीन नरेन्द्र मोदी सरकार का कार्यकाल पूरा होने को है। चुनाव की ओर बढ़ते देश की सरकार के लिए यह समय ऐसा होता है, जब वह अपने कार्यकाल के दौरान हासिल उपलब्धियों की फहरिस्त बनाने में जुट जाती है।
अर्थव्यवस्था : सतही समाधान से नहीं बनेगी बात |
नागरिक सरकार के कार्यों की चर्चा में मशगूल हो जाते हैं। चूंकि आर्थिक मुद्दे उन्हें सीधे प्रभावित करते हैं, इसलिए सर्वाधिक चर्चा इन्हीं पर होती है। जहां तक देश के आर्थिक परिदृश्य की बात है, तो भारतीय मुद्रा की दिनोंदिन कमजोर होती हालत चिंता का सबब बनी हुई है। इससे घरेलू उपभोग की लागत बढ़ गई है।
बैंकिंग क्षेत्र और वित्तीय संस्थानों के निराशाजनक प्रदर्शन से घरेलू निवेश को झटका लगा। विदेशी निवेशक भी अपना पैसा निकालने में जुट गए। हालांकि 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी, तब अस्थिर अर्थव्यवस्था उसे विरासत में मिली थी। आज स्थिति कुछ बेहतर है, लेकिन कर्ज लागत बढ़ने और घरेलू मांग घटने का अंदेशा सामने है। मूडीज इंवेस्टर्स सर्विसेज के मुताबिक, ऊंची ब्याज दर से कर्ज लागत बढ़ी है। भारतीय रिजर्व बैंक के 2019 में नीतिगत ब्याज दरों को स्थिर बनाए रखने से घरेलू मांग घटेगी। हालांकि आर्थिक वृद्धि की रफ्तार और विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति ठीकठाक है, लेकिन कुछ घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कारक खतरे की घंटी बने हुए हैं। इनमें से अधिकांश तो गत लोक सभा चुनाव से पूर्व मुद्दे भी बने थे। मूडीज का कहना है कि इन कारणों से अगले कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी रहेगी। मोदी सरकार के सत्ता में आने पर उम्मीद थी कि घरेलू निवेश सुधरेगा। लेकिन मार्च, 2018 में निवेश जीडीपी का मात्र 30.8% दर्ज किया गया। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि ऐसा पहली दफा हुआ है, जब इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में निजी क्षेत्र द्वारा घोषित नई परियोजनाओं की लागत सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा घोषित परियोजनाओं की लागत से कम रही। जहां तक वैश्विक मोच्रे का प्रश्न है, तो तीन प्रमुख कारक भारत की मौजूदा आर्थिक समस्याओं को बढ़ा रहे हैं। अमेरिकी ब्याज दरों में वृद्धि, कच्चे तेल के बढ़ते दाम और विश्व भर में व्यापार संरक्षणवाद का बढ़ती प्रवृत्ति। इनके चलते वैश्विक निवेशक शंकाग्रस्त हैं।
इनमें में से पहले दो कारक 2013-14 में भी मुद्दे बने थे। अलबत्ता, कच्चे तेल के बढ़ते दाम ऐसा मुद्दा है, जो मतदाताओं पर सबसे ज्यादा असर डालता है। इस साल अप्रैल के बाद से वैश्विक बाजार में कच्चे तेल के दामों में 24 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इसका बड़ा कारण तेल उत्पादक देशों द्वारा उत्पादन में कटौती करने का फैसला था। कच्चे तेल के बढ़ते दामों के साथ ही भारतीय रुपये की गिरावट ने अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार की। तेल का दाम प्रति बैरल एक डॉलर बढ़ने से देश का आयात बिल सीधे-सीधे 823 करोड़ रु. बढ़ जाता है। इस कारण मौजूदा वित्तीय वर्ष की प्रथम तिमाही में चालू खाता घाटा बढ़कर जीडीपी का 2.4 प्रतिशत हो गया।
घरेलू मोच्रे पर भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है। मोदी सरकार के सत्ता संभालने पर उम्मीद थी कि निवेशकों में अर्थव्यवस्था को लेकर सुधार की धारणा बनेगी। लेकिन इस लिहाज से अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। एक और समस्या है, जो मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने से भी पहले से अर्थव्यवस्था को हलकान किए हुए थी। बैंकिंग क्षेत्र डूबत ऋणों के बोझ तले दबा रहा है। नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल (एनसीएलटी) के तमाम प्रयासों के बावजूद सरकारी बैंकों को अप्रैल, 2014 से अप्रैल, 2018 के बीच तीन सौ हजार करोड़ रुपये के ऋणों को बट्टे खाते में डालना पड़ा। निजी बैंकों में भी शीर्ष स्तर पर प्रबंधन को लेकर प्रतिकूलता मंडराती रही। बैंकिंग क्षेत्र को सबसे बड़ा झटका हाल में लगा जब गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थान भी इस कतार में आ शामिल हुए।
भारत की शीर्ष ढांचागत वित्त पोषक कंपनी इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंस सर्विसेज (आईएल एंड एफएस) जमाराशियों पर ब्याज का भुगतान करने में नाकाम रही। इससे डर है कि उत्पादक क्षेत्रों को ऋण मुहैया कराने का पूरा सिलसिला ही न डगमगा जाए। अर्थव्यवस्था के आठ प्रतिशत की दर से बढ़ने की बात भ्रम में डालने वाली है। मूडीज ने भी अनुमान जताया है कि 2018 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 7.4 फीसद रहेगी। विमुद्रीकरण और जीएसटी जैसे दोहरे झटकों के बाद अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा होना लाजिमी है। ऐसी स्थिति में दीर्घकालिक विकास नीति जरूरी है, न कि संकट का सतही समाधान।
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