दृष्टिकोण : उस बंदी की भला कोई क्यों करें बंदगी!
दलील पूरी न पड़े तो दलीलों की फेराफेरी और कई बार कठदलीली भी कुछ दूर खींच ले जाती है।
दृष्टिकोण : उस बंदी की भला कोई क्यों करें बंदगी! |
हमारे अर्थ मंत्री (जिन्हें अब वित्त मंत्री कहा जाता है मगर वह पूरा अर्थ नहीं देता क्योंकि उनके जिम्मे देश की समूची आर्थिकी होती है) को दो साल बाद कहना पड़ा है कि नोटबंदी के फैसले का मकसद नकदी पर अंकुश लगाना नहीं, अर्थव्यवस्था को औपचारिक र्ढे पर लाना था। हालांकि 8 नवम्बर 2016 की शाम 8 बजे प्रधानमंत्री ने 500 रु. और 1,000 रु. के नोट का चलन बंद करने के दो बड़े मकसदों का ऐलान किया था कि ‘काला धन और काली कमाई खत्म होगी और नकली नोटों का जाल टूटने से आतंकवाद की रीढ़ टूट जाएगी।’ उसके कुछेक दिन बाद ही अर्थ मंत्री ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में उसके सार्थक नतीजे निकलने का ऐलान किया था।
लेकिन हमारी आर्थिकी पर नजर रखने वाली दूसरी ‘स्वायत्त’ संस्था भारतीय रिजर्व बैंक ने उसी दिन, बल्कि प्रधानमंत्री के ऐलान के कुछेक घंटे पहले ही इन दोनों मकसदों को खारिज कर दिया था। एक अखबार की खबर पर यकीन करें (वैसे, यकीन न करने की कोई खास वजह भी नहीं है) तो रिजर्व बैंक की 8 नवम्बर 2016 को शाम 5.30 बजे हड़बड़ी में बुलाई गई केंद्रीय बोर्ड मीटिंग में नोटबंदी को तो ‘संस्तुति योग्य’ बताया गया मगर सरकार के उस दावे को बेदम करार दिया गया कि बड़े नोटों को चलन से बाहर करने से काले धन और नकली नोटों पर अंकुश लगेगा। तर्क यह था कि ‘ज्यादातर काला धन नकदी में नहीं, बल्कि रियल स्टेट और सोने कीाक्ल में रखा जाता है।’ अखबार का दावा है कि उस मीटिंग के मिनिट्स की प्रति उसे हासिल हो गई है, जिस पर रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने 15 दिसम्बर को दस्तखत किए। यानी उस मिटिंग के पांच हफ्ते बाद और उस मीटिंग में भी कई बोर्ड सदस्य नहीं पहुंच पाए थे। सरकार को सौंपे गए उस नोट में रिजर्व बैंक ने यह भी चेताया था कि इसका अल्पावधि में इस साल जीडीपी पर बुरा असर पड़ेगा।
लेकिन प्रधानमंत्री ने नरेन्द्र मोदी ने तब कहा था कि लंबी अवधि के फायदे के लिए थोड़ा त्याग तो करना ही पड़ता है। उन्होंने उसे ‘यज्ञ’ में ‘आहुति’ देने जैसा बताया। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘50 दिन में दुख दूर नहीं हुआ तो जनता चाहे मुझे जो दंड देगी, वह मुझे स्वीकार होगा।’ शायद अब आंकड़ों, तथ्यों और हकीकत के खुलने के बाद वे अपना वह बयान भूल जाना चाहेंगे। कड़वी हकीकत का इल्म रिजर्व बैंक को तब तो था ही क्योंकि उसने यह भी कह दिया था कि वित्त मंत्रालय जो 400 करोड़ रु. मूल्य के नकली नोटों के प्रचलन का दावा कर रहा है, वह भी इतनी बड़ी मुद्रा व्यवस्था में कोई खास मायने नहीं रखता। लगभग डेढ़ साल बाद रिजर्व बैंक ने यह भी बताया कि 99.3 प्रतिशत 500 और 1,000 रु. के पुराने नोट बैंकों में आ चुके हैं। बाकी करीब 10,000 करोड़ रु. मूल्य के नोट बाहर रह गए हैं, जो 14.6 लाख करोड़ रु. मूल्य के कुल पुराने नोटों में मामूली ही कहलाएंगे। लेकिन यह न भूलिए कि ये पुराने नोट अभी नेपाल, भूटान और दुबई में भी हैं, जिन्हें भारत सरकार ने अभी वापस नहीं लिया है। लेकिन विदेशी सरकारों से करार के मद्देनजर तो उन्हें वापस लेना ही पड़ेगा। अगर इसे काला धन मान भी लिया जाए तो यह प्रधानमंत्री के 2017 में स्वतंत्रता दिवस भाषण में कहे गए 3 लाख करोड़ रु. के ‘कालाधन’ का सिर्फ 3 प्रतिशत ही है। प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से दावा किया था कि 3 लाख करोड़ रु. का काला धन नोटबंदी की वजह से प्रचलन से बाहर हो गया है। शायद इसी वजह से रिजर्व बैंक को पुराने नोटों की वापसी का आंकड़ा जारी करने में देर लगी।
नोटबंदी के दौर में कथित तौर पर सरकारी अर्थशास्त्रियों ने ही नहीं, अपने अर्थ मंत्री ने भी अनुमान लगाया था कि करीब 3-4 लाख करोड़ रु. वापस नहीं आएंगे। यानी सरकार को इतनी बड़ी राशि का फायदा हो जाएगा, जिसे कल्याणकारी योजनाओं में लगाया जा सकेगा। लेकिन वह तो हासिल नहीं हो पाया। इसलिए अब जो रिजर्व बैंक से सरकार की तनातनी है, उसकी भी जड़ में यही बताया जाता है। सरकार रिजर्व बैंक के संरक्षित कोष से 3.6 लाख करोड़ रु. चाहती है, ताकि वह आम चुनावों से पहले माहौल अनुकूल बनाने के लिए उसका इस्तेमाल कर सके। इस खबर पर जब विपक्ष ने हमला बोलना शुरू किया तो दो दिन बाद वित्त मंत्रालय के एक सचिव के जरिए इसका खंडन जारी किया गया। इसके पहले अर्थ मंत्री की दलील थी कि रिजर्व बैंक पुरातनपंथी सोच का शिकार है क्योंकि अब अर्थव्यवस्था का ढांचा बदल गया है और इतनी रकम संरक्षित रखने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन जिसकी बेहद महत्त्वाकांक्षी नोटबंदी के लक्ष्य का अनुमान ही औंधे मुंह गिर गया हो, उसके इस आकलन पर भला कैसे भरोसा किया जा सकता है!
यानी नोटबंदी की मार संस्थाओं को तबाह करने की शक्ल में दिख रही है। अब आइए जरा नोटबंदी की कीमत जान लें। तकरीबन 100 लोगों की कतार में लगने के दौरान जान गंवा बैठने की खबरें हैं। हालांकि सरकार आज भी यह बताने को तैयार नहीं है। कई लोगों ने लगभग पौने दो साल से आरटीआई लगाई हुई है मगर सरकार से उसका जवाब आज तक नहीं मिल पाया है। ऐसे ही एक आरटीआई कार्यकर्ता नीरज शर्मा ने 8 अक्टूबर 2017 को नोटबंदी के कारण मौतों और अर्थव्यवस्था को नुकसान की जानकारी के लिए अर्जी लगाई थी, लेकिन अभी भी उन्हें जवाब का इंतजार है। उस दौरान पैसे की कमी से कितने ही लोगों को इलाज में दिक्कतें हुई, कितने ही लोगों को शादी-ब्याह जैसे पारिवारिक आयोजनों में परेशानी हुई, पुराने अखबार और मीडिया की खबरों को ही खंगालेंगे तो ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। ऐसे में खासकर पैसे के अभाव में भोजन और इलाज के संकट से कितनों की जान पर बन आई होगी, इसका तो अभी भी कोई आकलन नहीं हो पाया है। यह भी गौर कीजिए कि किसी पैसावाले या पूंजीपति के न कतार में खड़े होने की खबरें मिलीं, न ही संकट से दो-चार होने की।
मोटे तौर पर कुछेक समय को छोड़कर संगठित क्षेत्र यानी बड़े उद्योगों और कारोबार को भी नोटबंदी की मार नहीं झेलनी पड़ी। मारा गया वह असंगठित क्षेत्र, जिससे गरीब-गुरबों को रोटी नसीब होती है और जो देश की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा हिस्सा है। छोटे उद्योग-धंधे नकदी पूंजी के अभाव में बंद हो गए। मजदूर अपने गांव की ओर रवाना होने पर मजबूर हो गए। यानी ऐसी विशाल आबादी जिसने कभी काला धन नहीं कमाया, वही सबसे अधिक पीड़ित हुई। कृषि भी रुपयों की कमी से संकट में घिर गई। उपज बिकी नहीं, फसल बुआई में देर हुई और फल-सब्जियों की मांग घटने से कीमतें तेजी से गिरीं। किसानों की आमदनी काफी घट गई। इसका असर बाजार भी पड़ा। रिजर्व बैंक के मार्च 2017 के सर्वे में उपभोक्ता सामग्री की मांग में तेज गिरावट दिखाई पड़ी।
दो साल बाद भी दुख दूर नहीं हो पाए हैं, लेकिन सरकार नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को लंबे झटके को मानने से लगातार इनकार करती आ रही है। वह अभी भी संगठित क्षेत्र के आंकड़ों के आधार पर दावा कर रही है कि वृद्धि दर 7-8 प्रतिशत है। जबकि असंगठित क्षेत्र के आंकड़े जानने का तो कोई उपाय ही नहीं है, जो अर्थव्यवस्था का 65 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है। इस तरह नोटबंदी ने कई संस्थाओें को तबाह कर दिया।
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