मीडिया : चुनाव सर्वेक्षणों की नीयत

Last Updated 11 Nov 2018 05:55:35 AM IST

टीवी पर चुनाव पूर्व पी पोल सर्वेक्षण देने की परंपरा पुरानी है। जब टीवीके नाम पर सिर्फ दूरदषर्न था तो भी सर्वे आते थे और जब निजी चैनल आगए तो भी खूब आते थे।


मीडिया : चुनाव सर्वेक्षणों की नीयत

जब राज्यों के चुनाव होते तो टीवी में सिर्फ राज्यों के चुनावों के प्रक्षेपण आते, चरचाएं आतीं। जब राष्ट्रीय चुनाव होते तो उनके प्रक्षेपण आते। लेकिन इन दिनों जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, उनके सर्वे देने के साथ हमारे चैनल राष्ट्रीय सर्वे भी देने लगे हैं। इससे प्रक्षेपणों की प्रस्तुति में दोष पैदा होता है और दर्शकों के बीच भ्रम पैदा होता है। हम चाहते हैं कि पहले पांच राज्यों के चुनावों के सर्वें के अनुमानों को पहले जानें और छह महीने बाद होने वाले लोक सभा चुनावों के बारे में बाद में जानें। लेकिन हमारे कई अंग्रेजी चैनल राज्यों के अनुमानों को राष्ट्रीय चुनावों के अनुमानों से  साथ मिलाकर देते दिखते हैं। यह नया चलन है।
लोक सभा के संभव चुनावों का अनुमान तब दिया जाता जब उनके होने में तीन महीने रह जाते तो बात समझ में आती थी, लेकिन जो चुनाव अभी सीधे एजेंडे पर नही हैं उनके बारे में पहले बताना राज्यों के चुनावों के अनुमानों के ‘स्वतंत्रता बोध’ को प्रभावित करता है। क्या इसीलिए अंग्रेजी के कुछ चैनल सर्वे की जगह ‘नेशनल एप्रूवल रेटिंग्स’ कहते हैं या ‘पॉलिटीकल स्टाक एक्सचेंज’ कहते हैं। हमें तो दोनों ही नाम स्टॉक मारकेट से उधार लिए लगते हैं जो उनको सर्वे से कुछ बना देते हैं। दोनों ही राष्ट्रीय प्रक्षेपणों को प्राथमिकता देते हैं, राज्यों के प्रक्षेपणों को दूसरे नंबर पर रखते हैं। इस क्रम में अगर राष्ट्रीय प्रक्षेपण एक ओर जा रहे होते हैं तो उसका असर राज्यों पर पड़ सकता है।

इसी तरह अगर राज्यों के प्रक्षेपण पहले दे दिए जाएं तो उनका असर राष्ट्रीय आकलनों पर पड़ सकता  है। राष्ट्रीय प्रक्षेपणों को प्राथमिकता देकर ये चैनल राज्यों के प्रक्षेपणों के प्रति अन्याय करते हैं। ये चैनल अगर राज्यों के प्रक्षेपणों को पहले भी बताते हैं तो भी राष्ट्रीय चुनावों के प्रक्षेपण के आलेक में बताते हैं। यह उनके अपने पूर्वग्रह हैं। ये प्रक्षेपण अक्सर बताते हैं कि अखिल भारतीय पीएम मोदी की लोकप्रियता सबसे अधिक है। राहुल उनसे बहुत पीछे हैं। दक्षिण के चार राज्यों तमिलनाडु केरल, कर्नाटक आंध्र में राहुल आगे नजर आते हैं लेकिन कुल भारतीय परिदृश्य में मोदी बहुत आगे नजर आते हैं। अगर चैनल फिलहाल सिर्फ राज्यों के प्रक्षेपणों को दें तो उनके नतीजे कुछ अलग ही होंगे क्योंकि सर्वे करने वाले अपनी राय देने वाले व्यक्तियों से सिर्फ राज्यों के बारे मे सवाल करेंगे और जवाब लेंगे!
लेकिन अगर एक ही व्यक्ति से एक ही साथ राज्यों और केंद्र के काम काज के बारे मे पूछा जाएगा तो जवाब सिर्फ राज्यों के बारे में न आएगा, वह व्यर्थ ही तुलनात्मक रूप ले लेगा। यही होता नजर आता है। किंतु अगर चैनल राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता का आंकड़ा पहले देने की जगह राज्यों के प्रक्षेपणों  को पहले देंगे तो आंकड़े कुछ भिन्न होंगे। लेकिन अफसोस कि इन दोहरे सर्वेज को लेकर होती चरचाओं में एंकरों से कोई यह नहीं पूछता कि राष्ट्रीय प्रक्षेपणों को राज्यों के चुनाव के प्रक्षेपणों के साथ क्यों दिखाते हैं और कि ये ‘पॉलिटीकल स्टाक एक्सचेंज’ क्या बला है? या कि ‘नेशनल एप्रूवल रेटिंग’ क्या चीज है? क्या अपनी राजनीति ‘स्टाक एक्सचेंज’ जैसी है या कि वह ‘रेटिंग्स’ निर्भर है!
ये रेटिंग्स की भाषा किसकी भाषा है? क्या यह राष्ट्रपतीय चुनाव प्रणाली से निकली अमरीकी भाषा है? हमारा मानना है कि राष्ट्रीय प्रक्षेपणों के लिए अभी बहुत समय है जबकि राज्यों के चुनाव सामने हैं। ऐसे में दोनों को एक साथ रख देने से ऐसा लगता है कि हम राज्य के चुनावों के प्रक्षेपणों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ही देखें।
लेकिन जब यह बात आती है कि क्या राज्यों के चुनाव केंद्र सरकार पर जनमत संग्रह माना जा सकता है तो कई चरचाकार कहने लगते हैं कि दोनों का मिजाज अलग-अलग है। राज्य की जीत हार किसी भी राष्ट्रीय  नेता की छवि पर ‘जनमत सग्रह’ नहीं मानी जाती। राज्यों में स्थानीय हित फैसलाकुन होते हैं जबकि आम चुनावों को राष्ट्रीय हित फैसलाकुन होते हैं। इसलिए भी दोनों के प्रक्षेपणों को अलग-अलग समय पर दिखाया जाना चाहिए! सर्वेक्षणों के नतीजों का दारोमदार पूछे गए सवालों की प्रकृति से तय होता है कि उत्तर कैसा मिलेगा? कई सर्वे वाले तो इसीलिए जैसा चाहते हैं वैसा ही नतीजा दिखा देते हैं। इसीलिए हमारा आग्रह है कि चैनल जब भी कोई सर्वे दिखाएं सेंपिल का आंकड़ा बताने के साथ सवालों की भाषा को भी दिखाएं! इसी से साफ हो जाएगा कि कोई सर्वे किस नीयत से किया गया है।

सुधीश पचौरी


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