बीच समय में : अभिव्यक्ति की सीमा और धर्म

Last Updated 11 Nov 2018 05:45:39 AM IST

भगवान की धारणा को कभी नहीं माना। जब भगवान एक नहीं है, तो नियंता भी एक नहीं है। अमूमन एक ही मंदिर में अनेक देवी-देवता मिलेंगे।


बीच समय में : अभिव्यक्ति की सीमा और धर्म

अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं तय करना संभव नहीं है। अभिव्यक्ति का लक्ष्य मात्र अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि उसका परम लक्ष्य तो अभिव्यक्ति की सीमाओं का विस्तार करना और तोड़ना है। हर दौर में लेखकों-कलाकारों ने यह काम किया है, वे यह काम आज भी कर रहे हैं। सामान्य कम्युनिकेशन भी सीमाएं नहीं मानता। बोलना या अभिव्यक्ति तो परिवर्तन की प्रक्रिया में, सीमा तोड़ने की प्रक्रिया में शामिल होना है। अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में मनुष्य जब भी दाखिल होगा देर-सबेर अभिव्यक्ति की सीमाएं तोड़ेगा। अभिव्यक्ति की विशेषता है कि सीमा नहीं मानती। चाहे जितने कानून बनाओ, चाहे जितने आदेश लागू करो।
अभिव्यक्ति और धर्म के अन्तस्संबंध में एक बात साझा है। वह है कि धर्म भी नियम-सीमा नहीं मानता और अभिव्यक्ति भी नियम की सीमा नहीं मानती। धर्म को यदि प्राचीन नियमों के अनुसार ही चलाया जाए तो धर्म अनाकषर्क होगा। उसकी कोई अपील नहीं होगी। दूसरी बात यह कि प्राचीनकाल में तो धर्म ही कम्युनिकेशन था। कालांतर में अन्य कम्युनिकेशन के रूप आए हैं। धर्म की भूमिका मूलत: कम्युनिकेशन की ही रही है। कम्युनिकेशन में ज्यों ही एक-दूसरे के बीच संवाद आरंभ होगा, कम्युनिकेटर और समाज के बीच में संवाद आरंभ होगा, अभिव्यक्ति की सीमाएं क्रमश: टूटने लगेंगी। यह अभिव्यक्ति का अंतर्निहित नियम है।

हिन्दू धर्म में भगवान से बड़ा भक्त है जबकि इस्लाम में अल्ला बड़ा है, बाकी उसके मातहत हैं। हिन्दू धर्म में भगवान नियंता नहीं है, भक्त नियंता है। हिन्दू धर्म में नियम महत्त्वपूर्ण नहीं है, आदत या संस्कार महत्त्वपूर्ण हैं। आदतें महत्त्वपूर्ण होने से हिन्दू धर्म में किसी भी किस्म के शारीरिक नियंत्रण की संभावनाएं नहीं हैं। धर्म का लंबे समय से अंदर से रूपांतरण होता रहा है। हमारे यहां कोई एक नियंता नहीं है। हर नागरिक का अपना-अपना हिन्दू धर्म है। हिन्दू धर्म में यह उदारता या खुलापन बड़े वैचारिक संघर्ष के कारण पैदा हुआ है, और यह प्रक्रिया बड़ी श्रम साध्य और त्यागपूर्ण रही है।
भारत में भगवान तो है, लेकिन वह नियंता नहीं है। यहां पर भगवान-भक्त का संबंध स्वैच्छिक है। इसमें भक्त बड़ा है, भगवान से। आराधना के सारे नियम भक्त बनाता है। भगवान तय नहीं करते। यही वजह है कि हिन्दू धर्म में सबसे ज्यादा मत-भिन्नता है, इस्लाम में एक अल्ला है, हमारे यहां तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं, अनेक ईश्वरों के सहस्रनाम हैं। हमने एक बड़ी तादाद में ऐसे भी मंदिर मिलेंगे जिनमें आराधक-प्रचारक की भगवान के साथ प्रतिमा लगी हुई है यानी हमारे यहां भक्त को भगवान के बराबर का दरजा दिया गया है।
हिन्दू धर्म में भगवान को नियंता के रूप में नहीं मानते, बल्कि शिष्टाचार के रूप में मानते हैं। शिष्टाचार है, इसीलिए मंदिर के सामने से गुजरते समय सिर झुका लेते हैं। यह आदत मस्जिद या गिरिजाघर के सामने से गुजरते समय नहीं होती। ईर कब हमारे शिष्टाचार में घुल-मिल गया, हम नहीं जानते। लेकिन इसके बावजूद ईश्वर कभी भी हिन्दू समाज का नियंता नहीं रहा। हिन्दू धर्म के विभिन्न पंथों और संप्रदायों के प्रचारकों ने भी कोई संहिता बनाकर उसे लागू करने की कोशिश नहीं की। हिन्दू धर्म के बहुत सारे कोड या संहिताएं सभ्यता के विकास में बहुत बाद में आई। इनके आने के बाद भी समाज में संहिताओं को न मानने की परंपरा बनी रही है। हिन्दू धर्म में ईश प्रशंसा भी कर सकते हैं, ईश-समालोचना भी कर सकते हैं, चाहें तो अपने लिए नया भगवान बना सकते हैं, और उसका समूचा ताम-झाम भी खड़ा कर सकते हैं। भारत में ईश निंदा के लिए किसी की हत्या नहीं की गई जबकि उनके खिलाफ क्या-क्या किया जाए, उसके प्रावधान जरूर हैं, लेकिन ईश-निन्दा के कारण या नास्तिक होने के कारण किसी को जान से नहीं मारा गया।
भारत में भगवान का सम्मान करने के लिए कानून को हाथ में लेने की जरूरत नहीं है। कानून के भय से आम जनता में ईश्वर के प्रति सम्मान भावना पैदा नहीं की जा सकती। कानून का काम है सामाजिक नियमन का। ईश्वर के प्रति आस्था पैदा करना कानून का लक्ष्य नहीं है। हमारे यहां ईश्वर है, लेकिन वह वैसे ही है जैसे टीवी है, रेडियो, इंटरनेट है। ईश्वर हमेशा से संस्कारों के कम्युनिकेशन का चैनल रहा है, और आज भी है। कौन किस धर्म में जाएगा, किससे शादी करेगा, यह हिन्दू धर्म में कभी भी सामाजिक चर्चा के केंद्र में नहीं रहा। आदि शंकराचार्य के जमाने से लेकर तुलसीदास के जमाने तक यह चीज साफ तौर पर देख सकते हैं कि किससे शादी करोगे और कौन-सा धर्म मानोगे, यह नागरिक के विवेक पर छोड़ दिया गया था। मूल बात यह है कि धर्म तो कम्युनिकेशन है, और कम्युनिकेशन को आप नियमों में बांध नहीं सकते। कम्युनिकेशन का नियम है तोड़ना, वह समाज को तोड़कर बनाने का काम करता है। वह पुराने को नष्ट नहीं करेगा तो नया आएगा कैसे? हर किस्म का कम्युनिकेशन अपने लिए तोड़ने-बनाने की यह जंग लड़ता है, और इसे नियमों में बांधना संभव नहीं है। अभिव्यक्ति का दायरा वहां तक फैला है, जहां तक अर्थ का दायरा फैला हुआ है। हम सोचें क्या अभिव्यक्ति के अर्थ की कक्षा तय की जा सकती है?

जगदीर चतुर्वेदी


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