मुद्दा : शिक्षा से ज्यादा सुरक्षा जरूरी

Last Updated 05 Mar 2018 06:28:39 AM IST

संविधान सभा में जब हमारे संविधान निर्माताओं ने बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी राज्य के सुपुर्द करने की सोची होगी तो, यकीनन उन्हें विश्वास रहा होगा कि राज्य बच्चों को एक ‘सुरक्षित शैक्षणिक माहौल’ मुहैया कराएगा.


मुद्दा : शिक्षा से ज्यादा सुरक्षा जरूरी

लेकिन मुजफ्फरपुर के धर्मपुर मध्य विद्यालय के 9 छात्रों की निर्मम हत्या ने संविधान निर्माताओं की संकल्पना को धराशायी कर दिया. नीतीश सरकार की लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना शासन, न केवल मृतक नौनिहालों के परिवारों के लिए मुसीबत लाया है, बल्कि पूरे राज्य भर में दहशत का माहौल पैदा कर दिया है. विडंबना देखिए कि ऐसे समय में जब सुविधा के अभाव में  9 बच्चों को शिक्षा के नाम पर अपनी जान गंवानी पड़ी, तब सूबे की सरकार शिक्षा के लिए 32 हजार करोड़ रुपये के बजट का ऐलान कर शेखी बघार रही है.

सवाल है कि जब राज्य में शिक्षा हासिल करने वाले ही सुरक्षित नहीं है, तब इस भारी-भरकम बजट का क्या औचित्य है? यह खर्च तो तभी सार्थक है, जब इससे फायदा हासिल करने वाले जीवित रहें. सवाल है कि नेताओं के असंवेदनशीलता का शिकार हमारे बच्चे कब तक बनते रहेंगे? दरअसल, विभिन्न पहलुओं पर जब आप गौर करेंगे तो इस दुर्घटना के लिए सूबे की सरकार को ही जिम्मेदार पाएंगे. इसकी कई वजहें हैं. पहला, जब देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी नेशनल हाईवे के क्षेत्र को अतिसंवेदनशील माना है, तब नेशनल हाईवे के बगल में विद्यालय बनवाना किस प्रकार की समझदारी है? एक औसत समझ रखने वाला व्यक्ति भी हाइवे पर दौड़ते वाहनों के खतरे को भांप सकता है.

दूसरा, जब विद्यालय के 662 विद्यार्थियों में से 450 यानी 70 फीसद बच्चों को सड़क पार करके विद्यालय जाना पड़ता है, तब सरकार व प्रशासन ने बच्चों के क्रॉसिंग के लिए कोई सुरक्षित व्यवस्था क्यों नहीं करवाई? ओवरब्रिज या अंडरपास जैसी व्यवस्था मासूमों की सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी थे, और इस पहल को संजीदगी के साथ अमल में लाना चाहिए था. तीसरा, अगर ओवरब्रिज जैसी व्यवस्था नहीं हो सकी, तो क्या प्रशासन को छुट्टी के वक्त बच्चों को सुरक्षित सड़क पार कराने के लिए स्कूल स्टॉफ की तैनाती नहीं करनी चाहिए थी?

शराबबंदी के नाम पर ‘महिला सुरक्षा’ और दहेजबंदी के नाम पर ‘गरीब सुरक्षा’ का राग आलापने वाले नीतीश कुमार की बच्चों की सुरक्षा पर खामोशी और ढुलमुल रवैया हैरान और परेशान करने वाला है. खुद को समाज सुधार के पैरोकार बताने वाले सुशासन बाबू जब आरोपी पर तीव्र कार्रवाई की बजाय होली न मनाने की बात करते हैं, तो एक पारंपरिक नेताओं की तरह हकीकत पर पर्दा डालते हुए नजर आते हैं. ऐसा करना दरअसल राजनीति के लिहाज से निहायत सतही कदम माना जाता है. सवाल है कि क्या सरकार को इस मुसीबत की घड़ी में एक सर्वदलीय बैठक बुला कर इस पर मंथन नहीं करना चाहिए था? मगर विडंबना है कि राज्य के मसलों पर विपक्षी दलों की राय लेने की परंपरा खत्म होती जा रही है. दरअसल, इस प्रकार के मामले आए दिन समाचार की सुर्खियों में रहते हैं. इसी वर्ष जनवरी में, इंदौर में 6 स्कूली बच्चों की सड़क दुर्घटना में जान चली गई थी.

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की मानें तो; प्रतिदिन 43 बच्चे सड़क दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवाते हैं. लिहाजा नौनिहालों की जान के साथ खिलवाड़ हमारी हुकूमत का कमजोर पक्ष उजागर करता है. ऐसे में हमारी सरकारों को ब्रिटेन से सीख लेनी चाहिए, जहां स्कूली बच्चों की सुरक्षा के ढेरों नियम-कायदे बनाए गए हैं और इसका उल्लंघन करने वालों के लिए सजा का भी प्रावधान है. गौरतलब है कि सजा का प्रावधान भी तभी होता है जब जवाबदेही तय की गई हो.

मगर अफसोस की बात है कि हमारे देश में बड़ी-से-बड़ी चूक हो जाती है, लेकिन किसी की कोई जवाबदेही तय नहीं की जाती? इस तरह की सड़क दुर्घटनाओं को महज इत्तेफाक कहकर हुकूमत पल्ला झाड़ लेती और कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति की जाती है. बहरहाल, सूबे की सरकार को चाहिए कि ईमानदारी से अपनी और प्रशासन की जवाबदेही तय करे और इस प्रकार की नौसिखिए कार्य से बाज आए, ताकि फिर कोई मासूम अपनी जिंदगी न खोए. साथ ही सभी दलों को चाहिए कि वह ऐसे गंभीर मुद्दों पर संजीदगी दिखाए न कि सियासत करे.

रिजवान अंसारी


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