कश्मीर : इंसाफ का इंतजार
कश्यप नेहा पंडित के मुस्कुराते चहरे को निहारते निहारते उसके माता-पिता की आंखें छलक रही है.
![]() कश्मीर : इंसाफ का इंतजार |
28 साल की पीड़ा अब नेहा के परिवार के लिए दर्द नहीं तपस्या का एहसास है. 28 साल से विस्थापितों का जीवन जीना काफी कठिन रहा है. अपने ही देश और राज्य में जबरदस्ती बेघर किया जाना क्योंकि वे दूसरे धर्म के हैं, ये त्रासदी से कम नहीं है. भारत जैसे लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर अपनी जमीन से बेदखल होना संविधान की नींव पर चोट है. धीरे-धीरे जैसे दशक बीतते जा रहे हैं कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हुए नरसंहार के साक्ष्य भी मिटते जा रहे हैं और ये समुदाय भी कालचक्र के व्यूह में फंस कर पहचान खो रहा है.
19-20 जनवरी 1990 की रात को कश्मीर का इतिहास बदल गया. कश्मीर जहां महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की किरण देखी थी, जिहाद के बलि चढ़ गया. कश्मीर में आतंकवाद ‘आजादी’ के नाम पर नहीं बल्कि धर्म की आड़ में हिन्दुओं पर कहर ढाहा गया. उस रात घाटी से पांच लाख हिन्दुओं का पलायन हुआ. एक षड्यंत्र पाकिस्तान और कश्मीर में उनके खरीदे हुए समर्थकों के बीच हुए.
घाटी में अल्पसंख्यक हिन्दुओं को भारत के समर्थक के रूप में देखा जाता रहा है, जिनके कारण 1947 में कश्मीर का विलय पाकिस्तान के साथ नहीं हुआ. धर्म के नाम पर कश्मीर में बहुसंख्यक मुसलमानों को एकजुट किया गया था. कश्मीर को इस्लामिक पहचान दिलाने की योजना के पीछे एक ही उद्देश्य था और वो था कि ‘टू नेशन थ्योरी’ के तहत इस्लामिक कश्मीर का पाकिस्तान में विलय एकमात्र नेचुरल विकल्प उभर कर आए.
इसको अंजाम देने के लिए घाटी में उस रात जो हुआ उसका उदाहरण शायद ही कहीं मिले. साल 1989 से ही कश्मीर में कुछ भी सामान्य नहीं हो रहा है. राज्य में फारूख अब्दुल्ला की सरकार ऐसे काम कर रही थी, जिससे आतंकवादियों को बल मिल रहा था. फारूख सरकार ने कई कुख्यात आतंकवादियों को जेल से रिहा किया. पूरे साल अल्पसंख्यक कश्मीरी हिन्दुओं पर हमले हो रहे थे. चुन-चुन कर समुदाय के प्रतिष्ठित और युवकों को मौत के घाट उतारा जा रहा था. कई कश्मीरी हिन्दू लड़कियों को अगवा कर उनके साथ बर्बरता हो रही थी.
लेकिन सुनवाई कहीं नहीं हो रही थी. पुलिस मदद तो दूर मामला दर्ज करने में आनाकानी कर रही थी. मंदिर तोड़े जा रहे थे. हिन्दुओं के घरों पर रोज पत्थरबाजी हो रही थी. समुदाय की महिलाओं का सड़क पर चलना दूभर हो गया था, जिस कारण हिन्दू महिलाओं ने साड़ी पहनना छोड़ दिया था. हिन्दू घरों पर धमकी भरे पोस्टर चिपकाए जा रहे थे. हिन्दुओं को घाटी छोड़ने के लिए स्थानीय अखबारों में रोज विज्ञापन छप रहे थे. ये सब किसी को नहीं दिख रहा था. और फिर उत्पीडन की इंतहा 19-20 जनवरी 1990 की रात को हुई.
रात नौ बजे पूरे श्रीनगर शहर में ही नहीं पूरी घाटी में मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर जोर-जोर से बजने लगे. ‘कश्मीर में क्या चलेगा, निजामे मुस्फा; काफिरो भाग जाओ या मरो; हमें कश्मीर चाहिए, पंडित महिलाओं के साथ न कि हिन्दू मदरे के साथ’ जैसे नारे घाटी में गूंज रहे थे. सड़कों पर हजारों-लाखों की भीड़ जमा हो गई. हिन्दू घरों पर पत्थरों से हमला किया गया. अल्पसंख्यकों के लिए पूरी घाटी टॉर्चर चेम्बर जैसी बन गई. दशकों से साथ रहने वाले मुस्लिम पड़ोसियों ने मुंह मोड़ लिया था. पूरी रात सड़कों पर हिंसा हुई. और भोर होते ही कश्मीरी हिन्दुओं का घाटी से पलायन शरू हुआ.
लाखों की तादात में लोग टेंटो में रहने के लिए मजबूर हो गए. ऐसे ही एक टेंट में नेहा पंडित का परिवार रहा. सोपोर में अपना घर, बाग-बगीचे छोड़कर शरणार्थियों की जिंदगी जीने पर मजबूर इस परिवार ने अपना गुजारा बड़ी मुश्किल से किया. नेहा के माता-पिता ने बस एक लक्ष्य नहीं छोड़ा और वो था बच्चों की पढ़ाई-लिखाई. टेंट से निकल कर ये परिवार राज्य सरकार के बनाए हुए एक कमरे के फ्लैट में रहने लगा. और वहीं नेहा ने जम्मू-कश्मीर स्टेट सर्विस इम्तिहान की तैयारी की और चौथी नंबर पर आई.
नेहा की उपलब्धि पूरे विस्थापित कश्मीरी हिन्दू समुदाय के लिए एक आशा की किरण है. पिछले 28 साल से विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं को आज भी न्याय का इंतजार है. लगभग 300 हत्या के केस में आज तक न तो कोई चार्जशीट दायर हुई है और ना ही कोई पकड़ा गया है. दुखद यह भी कि इस समुदाय की बात कोई राजनीतिक पार्टी या सोशल एक्टिविस्ट नहीं करता. हर साल 19-20 जनवरी को विस्थापित कश्मीरी हिन्दू ‘पलायन दिवस’ के रूप में अपनी इस त्रासदी पर आंसू बहाता है, उस टूटे सपने पर जो महात्मा गांधी ने कश्मीर में देखा था.
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