इन खेलों का क्या होगा?

Last Updated 15 Jan 2018 06:11:34 AM IST

तुर्की में आयोजित अल्पाइन एजदर 3200 कप टूर्नामेंट में हमारे देश की 21 वर्षीया आंचल ठाकुर कांस्य पदक न जीतती, तो हमें पता ही नहीं चलता कि स्कीइंग में भारत अपनी कोई उपस्थिति दर्ज करा सकता है.


भारत की आंचल ठाकुर कांस्य पदक जीता.

गुमनाम सी एक लड़की की इस जीत से इस तथ्य का रहस्योद्घाटन भी हुआ कि स्कीइंग को हमारे देश में खेल मंत्रालय की तरफ से मान्यता तक नहीं मिली है. सिर्फ  स्कीइंग और आइस स्केटिंग ही क्यों; दर्जनों ऐसे खेल हैं, जिनमें देश की लड़िकयां नाम रोशन कर सकती हैं, मेडल ला सकती हैं, लेकिन उनकी तरफ न तो सरकार और खेल मंत्रालय का ध्यान है और न ही हमारे पूरे समाज में उन्हें लेकर कोई सुगबुगाहट है. ऐसे में टेनिस, क्रिकेट, हॉकी बैडमिंटन और थोड़ा-बहुत एथलेटिक्स व तीरंदाजी के बाहर किसी खेल में लड़िकयां क्या खेल दिखाएंगीं और क्या ही मेडल लाएंगी?

इसमें संदेह नहीं कि पिछले कुछ अरसे में देश में चुनिंदा खेलों में महिलाओं ने अच्छा प्रदर्शन किया है पर टेनिस को छोड़कर ये खेल ज्यादातर ऐसे हैं, जो इनडोर कहलाते हैं. जैसे; वे या तो बैडमिंटन में अच्छा कर रही हैं या फिर भारोत्तोलन जैसे एथलेटिक्स अथवा तीरंदाजी में नाम कमा रही हैं. इनमें भी बैडमिंटन व टेनिस से बाहर के खेलों को महिलाओं के लिए ग्लैमरस नहीं माना जाता रहा है. आज हमारे पास देश का नाम रोशन करने वाली गीता-बबीता फोगट और साक्षी मलिक जैसी पहलवान बेटियां भी हैं, मगर इनकी उपलब्धियां समाज को इस तरह प्रेरित नहीं कर पाई हैं कि ज्यादा-से-ज्यादा लड़िकयां इन खेलों में हाथ आजमाएं. इस स्थिति का अंदाजा कुछ बातों से हो जाता है.

आज भी गली-मुहल्लों से लेकर कस्बों-शहरों के पाकरे या मैदानों में क्रिकेट-फुटबाल-हॉकी खेलते हुए लड़के ही दिखाई देते हैं, लड़िकयां नहीं. अगर कोई लड़की ये खेल खेलना चाहती है तो उसे वहां हमउम्र लड़िकयां नहीं मिलेंगी. पिछले साल 2017 में आईसीसी र्वल्ड कप में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ शानदार 171 रन बनाने वाली हरमनप्रीत कौर खुद ऐसी ही त्रासदी झेल चुकी हैं. उन्हें पंजाब के मोगा जिले में क्रिकेट अपना शौक और शुरु आती ट्रेनिंग लड़कों के संग क्रिकेट खेलकर पूरी करनी पड़ी थी. पहलवानी में भी लड़िकयों के पास लड़कों से ही पंजा लड़ाने का विकल्प है. सवाल है कि आखिर बैडमिंटन और टेनिस के अलावा अन्य खेलों में महिला खिलाड़ियों की दुर्दशा का कारण क्या है? यह सही है कि ज्यादातर खेलों में पुरुषों का वर्चस्व रहा है और क्रिकेट-हॉकी में तो यह खासतौर दिखता है.



यह भी नजर आता है कि जब पुरुष क्रिकेट की बात होती है, तो पैसे और मीडिया कवरेज-किसी चीज की कमी नहीं रहती. लेकिन महिला क्रिकेटरों का शानदार प्रदर्शन भी उन्हें मीडिया अटेंशन नहीं दिला पाता है. हॉकी के मामले में तो स्थिति और भी दयनीय है क्योंकि यहां तो पुरु ष हॉकी की तरफ ही लोगों का ध्यान नहीं है. जिस स्कीइंग में मेडल जीतकर आंचल ठाकुर ने इस खेल को चर्चा में ला दिया है, उससे जुड़ी वस्तुस्थिति पर गौर करेंगे तो पता चल जाएगा कि देश में आखिर तमाम उन महिला खेलों पर बर्फ क्यों जमी हुई है, जिनमें यदि मौका और संसाधन मुहैया कराए जाएं, तो मेडलों का ढेर लग जाए.

स्कीइंग के लिए जिस बर्फीली सतह की जरूरत होती है, वह हमारे देश में हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में सर्दियों के मौसम में भरपूर होती है. इनमें से कुछ राज्यों में विंटर गेम्स के छिटपुट आयोजन भी होते रहे हैं, पर उनका ज्यादा बड़ा उद्देश्य पर्यटकों की भीड़ को आकर्षित करना रहा है, महिला खिलाड़ियों को खोज कर उन्हें ट्रेनिंग दिलाना नहीं. खुद आंचल ने जो हासिल किया, उसके लिए पूरा खर्च भी खुद उठाया. स्कीइंग के उपकरण 5 से 10 लाख रुपये में आते हैं, इतना खर्च हरेक के वश में नहीं है. यही नहीं, जब खेल मंत्रालय ही ऐसे खेलों को मान्यता नहीं देता, तो ट्रेनिंग और सहूलियतें देने का जिम्मा भी वह नहीं उठाता.

यही नहीं, दूरदराज में रहने वाली लड़िकयों को अगर स्कीइंग ही नहीं, मुक्केबाजी, तीरंदाजी, भारोत्तोलन और तमाम अन्य खेलों में मुकाम बनाना है तो खर्च के अलावा महानगरों में उनकी ट्रेनिंग खुद के जोखिम पर लेनी होती है. लड़िकयां भविष्य में घर के आंगन में शाम के वक्त बैडमिंटन ही खेलती न रह जाएं, इसके लिए जरूरी है कि देश की खेल नीति पर एक बार फिर विचार हो. उसमें यह इंतजाम किया जाए कि अपने इलाके के हिसाब से लड़िकयां जिस खेल को रूचि के आधार पर चुनें. बेटियों को पढ़ाने के साथ उन्हें खेलों में भी बढ़ावा मिलेगा, तो देश के पास कहने के लिए ढेरों गौरवगाथाएं होंगी.

मनीषा सिंह


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