मुद्दा : सामाजिक रिश्ते बचाना जरूरी
अभी पिछले ही दिनों गुड़गांव के रेयान स्कूल की घटना में एक नाबालिग छात्र द्वारा अपने साथी की हत्या, बेटे को पढ़ाई के लिए डांटने पर उसके द्वारा अपनी मां और बहन की हत्या और एक बाप के द्वारा अपनी सगी बेटी का यौन शोषण जैसी घटनाओं ने आज समाज को अंदर से झकझोर कर रख दिया है.
मुद्दा : सामाजिक रिश्ते बचाना जरूरी |
ये तो केवल अभी तुरंत की ही घटनाएं हैं. इनके साथ ही साथ आरुषि जघन्य हत्याकांड जैसे न जाने कितने मामले और उनका अंजाम भी हमारे सामने हैं.
ये उदाहरण बताते हैं कि आज सामाजिक संबंधों से जुड़े सरोकार लगातार ध्वस्त हो रहे हैं. यही बजह है कि आज आत्मीय रिश्ते स्वार्थ की आग में झुलसने को मजबूर हैं. परिवार के आत्मिक संबंधों पर चोट करने वाली आज तमाम घटनाएं रोज देखने में आ रही हैं. आज परिवार व विवाह के ढांचे की दरकती दीवारें, रक्त संबंधों में लगातार टूटन और रातों-रात लोगों के सफल होने का जुनून जैसे कारण समाज में बदलाव की तेज रफतार को महसूस करा रहें हैं. इनके अलावा छोटे-छोटे स्वार्थ आत्मीय संबंधों के साथ में नाबालिग बच्चे तक खून की होली खेलने पर उतारू हैं. वैसे तो हमारे सामाजिक संबंधों और सगे रिश्तों में खूनी जंग का एक लंबा इतिहास रहा है. परंतु कुछ समय पहले तक इस प्रकार की घटनाएं राजघरानों के आपसी स्वाथरे के टकराने तक ही सीमित थीं. लेकिन अब यह मुद्दा इसलिए और भी गंभीर हो गया है क्योंकि अब छोटे-छोटे स्वाथरे को लेकर रक्त संबंधों की बलि चढ़ाने में आमजन भी शामिल हो गए हैं. वर्तमान की इस सच्चाई को प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं कि तकनीकी शिक्षा, पूंजी, बाजार, सूचना तकनीकी के साथ में सोशल मीडिया जैसे कारकों के फैलाव के सामने परिवार, समुदाय से बनने वाले सामाजिक रिश्ते बौने नजर आ रहे हैं. इसलिए सामाजिक रिश्तों में टूटन वास्तव में समाज व देश के लिए चिंता का विषय है.
वर्तमान की इस तेजी से भागती जिंदगी में सामाजिक रिश्तों के अहसासों से बनने वाले समाज में अब यह बहस चल पड़ी है कि क्या सामाजिक रिश्तों में अभी और कड़वाहट बढ़ेगी? क्या भविष्य में विवाह और परिवार का सामाजिक-वैधानिक ढांचा बच पाएगा अथवा इनका पूरी तरह कायापलट हो जाएगा? क्या बच्चों को परिवार का वात्सल्य, संवेदनाओं का अहसास, मूल्य एवं संस्कारों की सीख नैसर्गिक परिवारों में मिल पाएगी अथवा उन्हें भी अब सूचना तकनीक से जुड़े आभासी समाज पर ही निर्भर रहना होगा? क्या भविष्य में एकल परिवार ही जीवन की सच्चाई बनकर उभरेंगे अथवा इनमें भी अभी और टूटन बढ़ेगी? अगर हम यह मानते हैं कि यह दौर तेज से बदलते समाज का दौर है तो फिर सवाल यह भी है कि क्या इन रिश्तों की टूटन को बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया समझा जाए या इसे नये वैश्विक समाज का दबाव मानकर चलना बेहतर होगा? आज के नये वैश्विक समाज ये कुछ ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं, जिनका भारतीय समाज के दायरे में ही हमें जवाब खोजना होगा. सामाजिक संबंधों के ढांचे पर ऐतिहासिक निगाह डालने से यह ज्ञात होता है कि आजादी के आंदोलन के बाद पुरानी पीढ़ी में जिन मूल्यों और आदशरे के साथ सामाजिक रिश्तों को परिवार के संयुक्त सांचें में ढाला, पूंजी के विस्तार, बाजार की आक्रामकता और व्यक्ति के रातों-रात सफल होने की महत्त्वाकांक्षाओं ने उसे एक ही पल में बिखेर कर रख दिया. इन रिश्तों के टूटन की खनक आज समाज में साफ सुनाई दे रही है.
ध्यातव्य है कि जिस तरह वैश्विक संस्कृति फैल रही है उससे ऐसा अनुभव होता है जैसे औद्योगिक-व्यापारिक व्यवस्था के फैलाव में परिवार और समुदाय के भावनात्मक रिश्ते और उनकी वफादारियां बाधक सिद्ध हो रही हैं. अवलोकन बताते हैं कि आज हर रिश्ता एक तनाव के दौर से गुजर रहा है. वह चाहे माता-पिता का हो या पति-पत्नी का, भाई-बहन, दोस्त या अधिकारी व कर्मचारी का ही रिश्ता क्यों न हो, इन सभी रिश्तों के बीच एक शीत भाव पनप रहा है. ध्यान रहे सामाजिक रिश्ते निरंतर संवाद की मांग करते हैं. संवाद का अभाव इन सामाजिक रिश्तों की गर्माहट को कम करता है. सामुदायिक रिश्तों की मिसाल माने जाने वाले गांवों में भी अब परिवार की संयुक्तता विभाजित हो रही है. इससे बचाव का एक ही रास्ता है कि हम अपने परंपरागत सामाजिक रिश्तों की गर्माहट को पुन: महसूस करना शुरू करें. रिश्तों के सघन संवाद के बढ़ने से न केवल भारतीय परिवारों की नींव मजबूत होगी, बल्कि इससे भविष्य में देश के सामाजिक व सांस्कृतिक ताने-बाने को भी मजबूती मिलेगी. शायद सामाजिक रिश्तों को बचाने का यही एक सबसे आसान रास्ता है.
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