सामयिक : दलितों का देश कहां महाराज!

Last Updated 10 Jan 2018 05:51:13 AM IST

भीमा कोरेगांव में पहली जनवरी 2018 को हुई रैली के दौरान हुआ हमला और उसके जवाब में हुए बंद के दौरान हुई तोड़फोड़ और हिंसा निंदनीय है लेकिन उससे निकला आख्यान और नेतृत्व महत्त्वपूर्ण है.


सामयिक : दलितों का देश कहां महाराज!

अब मामला महज ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के साथ लड़ने वालों की शौर्यगाथा बनाम बाजीराव पेशवा की सेना और उनके देशी राज से सहानुभूति रखने तक सीमित नहीं है. मामला इतना ही नहीं है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान मिलने वाला सामाजिक सम्मान चाहिए या देशी शासकों के शासन में मिलने वाली गुलामी चाहिए.
यह सिर्फ राष्ट्रभक्ति बनाम देशभक्ति का मामला भी नहीं रह गया है. इसके साथ अब युवाओं के सपने और रोजगार का सवाल भी जुड़ता जा रहा है और अल्पसंख्यक समाज भी इसकी ओर आकर्षित हो रहा है. बात निकली है तो दूर तक चली गई है और अक्सर सत्ता के लिए तो कभी साधनों के सवाल पर बिखराव की स्थिति में रहने वाला दलित समुदाय प्रकाश अम्बेडकर और जिग्नेश मेवाणी के साथ मिलकर पूछ रहा है कि क्या यह वही देश है, जिसे बनाने के लिए बाबा साहेब अम्बेडकरने 1927 के महाड़ सत्याग्रह में मनुस्मृति जलाई थी और 1950 में आधुनिक मनु के तौर पर संविधान बनाकर देश को सौंपा था. वह पूछ रहा है कि दलितों का देश कहां है महराज? इसीलिए गुजरात विधान सभा में हाल में चुनकर आए दलित विधायक जिग्नेश मेवाणी नौ जनवरी को संसद मार्ग पर होने वाली रैली में एक हाथ में मनुस्मृति और दूसरे हाथ में संविधान लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूछने जा रहे हैं कि अपने को अम्बेडकरका भक्त बताने वाले मोदी जी को क्या मंजूर है. भीमा कोरेगांव से निकला दलितों की राष्ट्रीयता का यह आख्यान हिन्दुत्व के राष्ट्रवाद को सीधे चुनौती दे रहा है इसलिए उसके पदाधिकारी कह रहे हैं यह ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड’ है और जातिवाद का जहर फैला रही है.

महाराष्ट्र से निकला यह संवाद देश के किस-किस हिस्से तक जाएगा यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन 2016 में पड़ी बाबा साहेब की 125 वीं जयंती के मौके पर संघ परिवार ने जिस उत्साह से उन्हें अपने वैचारिक और सांगठनिक दायरे में शामिल करने की कोशिश की थी और वोट के स्तर पर एक हद तक उसमें सफल भी रहे थे वह अब जाति उन्मूलन के सवाल पर उन्हें परेशान कर रहा है. पीछे पलट कर देखें तो आश्चर्य नहीं होगा कि 14 अगस्त 1931 को महात्मा गांधी से अपनी पहली मुलाकात में बाबा साहेब का विरोध और उनके प्रश्न लगभग इसी तरह के थे. अम्बेडकर ने कहा था गांधीजी मेरे पास मातृभूमि नहीं है’ और उनकी इस टिप्पणी को सुनकर गांधीजी सकपका गए थे. गांधीजी ने कहा था कि डॉक्टर साहेब आपके पास मातृभूमि है और उसकी सेवा किस तरह की जाए यह आपके कार्यों से प्रकट होता है.’
इसका तीखा प्रतिकार करते हुए अम्बेडकरने कहा था जिस देश में हम कुत्ते और बिल्लियों जैसी जिंदगी जीते हैं उस भूमि को जन्मभूमि और उस धर्म को अपना धर्म मैं तो क्या कोई स्वाभिमानी स्पृश्य भी नहीं कह सकता.’ हालांकि इन 87 वर्षो में बहुत कुछ बदला है और एक दलित नागरिक दूसरी बार इस देश का राष्ट्रपति बना है, न्यायपालिका के शीर्ष पर दलित पहुंच चुके हैं, सबसे बड़े प्रदेश में एक दलित स्त्री पांच बार मुख्यमंत्री बनीं हैं और संसद में अनुसूचित जाति के तकरीबन डेढ़ सौ सांसद हैं और आरक्षण का लाभ लेकर शहरों में एक समर्थ मध्यवर्ग भी खड़ा हुआ है. इसके बावजूद सामाजिक स्तर पर कायम दूरी और वैमनस्यता और उसके चलते जगह-जगह दलित समुदाय पर होने वाले अत्याचार अम्बेडकरके उस कथन को नये सिरे से प्रासंगिक कर देते हैं. सरकारी संगठनों और सामाजिक संगठनों द्वारा हैदराबाद, उना, सहारनपुर और मेरठ जैसे देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों पर होने वाली अत्याचार की घटनाओं और समय-समय पर व्यक्त होने वाले संविधान विरोधी उदार दलितों के साथ ही समाज के लोकतांत्रिक संगठनों और व्यक्तियों में डर पैदा करते हैं और भीमा कोरेगांव युद्ध के दो सौ साल के उपलक्ष्य में हुए आयोजन से निकले आख्यान से उन्हें जोड़ते हैं.
यह सही है कि 1818 के उस युद्ध में पहले अंग्रेजी सेना फिर महारों की वीरता और विजय का जिस तरह से वर्णन किया गया है उसका एक हिस्सा अंग्रेजों द्वारा गढ़ा गया है और दूसरा हिस्सा बाबा साहेब अम्बेडकरऔर उनके अनुयायियों द्वारा. पहले अंग्रेजों को भारतीयों को विभाजित करने की आवश्यकता थी तब उन्होंने वहां स्तंभ खड़ा किया और बाद में बाबा साहेब को अंग्रेजी सेना में महारों की भर्ती के माध्यम से उन्हें रोजगार और सम्मान दिलाना था इसलिए उन्होंने उसकी व्याख्या जाति के सम्मान और शौर्य से जोड़कर की. आज दलित समाज अगर अपने गौरवशाली अतीत की तलाश में और प्रभावशाली राष्ट्रवाद के मुकाबले भीमा कोरेगांव के माध्यम से अपनी शौर्यगाथा तैयार कर रहा है तो यह गांधी के नेतृत्व में तैयार किए गए कांग्रेस के राजनैतिक राष्ट्रवाद और संघ परिवार के माध्यम से तैयार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरह ही दलित राष्ट्रवाद की एक तीसरी धारा है, जो महाराष्ट्र में सशक्त तरीके से उपस्थित है. बेनेडिक्ट एंडरसन अपनी चर्चित पुस्तक इमैजिन्ड कम्युनिटी’ में मानते हैं कि राष्ट्रवाद एक काल्पनिक समुदाय की रचना पर ही खड़ा होता है.
अगर देखा जाए तो पुणो, नागपुर और वर्धा के आसपास कहीं राष्ट्रवाद की इन तीनों धाराओं का केंद्र भी तलाशा जा सकता है और इसीलिए यहीं वे सबसे जोरदार तरीके से टकराती भी हैं. दलित जातियों की इस राष्ट्रीयता को उभारते हुए 1901 में भारतीय जनगणना के अधीक्षक राबर्ट वाने रसेल ने रायबहादुर हीरालाल के साथ मिलकर लिखी गई अपनी पुस्तक ‘कास्ट एंड ट्राइ ऑफ सेंट्रल इंडिया’(1916) में लिखा है कि महाराष्ट्र दरअसल महारों का राष्ट्र है. हालांकि बाद में ज्यादातर तत्वज्ञानी इसकी उत्पत्ति मराठी भाषा और जाति से बताते हैं. आज सवाल यह है कि अपने देश और राष्ट्रीयता की तलाश कर रहे दलितों को क्या पहले के गांधीवाद की तरह आज हिन्दुत्व से टकराना ही पड़ेगा और पहले उनके लिए दमनकारी रहा गांधीवाद आज हिन्दुत्व के समक्ष उनका सहयोगी और उद्धारक साबित होगा?

अरुण त्रिपाठी


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